*ताना कंटक सा लगता है*
विषय ताना
शीर्षक कंटक
विद्या स्वछंद काव्य
लेखक डॉ अरूण कुमार शास्त्री
9968073528 वाट्स अप
ताना देते हो और मुस्कुराते हो । कसम से तुम तो कांटा चुभाते हो ।
मैं कहता सरलतम शब्दों में बात अपनी ।
तुम तो बहुत खूबसूरत प्रस्तुति से अर्थ भिन्न ही लगाते हो ।
न नाज़ करते न तारीफ़ करते न तालियां बजाते हो ।
दूर खड़े हो दूर दूर से आंखों आंखों में मुस्कुराते हो।
बड़ा मुश्किल है आभास करना दिखता कुछ होता कुछ ।
अपने ही हिसाब से सब ऐसी स्थिति में कयास अपने अपने लगाते हैं
ताना देते हो और मुस्कुराते हो । कसम से तुम तो कांटा चुभाते हो ।
दर्द दंश का पीने की आदत हमें हो गई है।
व्यर्थ ही अब समझ लेना इन दिखावे के प्रयासों में समय अपना गंवाते हो ।
धनात्मक सोच है हमारी और संस्कृति भी ये जान लीजिए।
दे दे के ताना आप तो बेकार अब कड़वा पान चबाते हो ।
एक सलाह है मुफ़्त में मान्यवर इस अरूण की ।
सीधे – सीधे जी हां सीधे – सीधे बोला करो अटकलें क्यों लगाते हो।
चलो छोड़ो ताना और कंटक की बातें।
भूल जाते हैं सब दोष दुश्वार की बातें।
गले लगा लें इक दूसरे को इस नवरात्र में।
मां शारदे के चरणों में शीश हम झुकाते हैं।