ताटंक कुकुभ लावणी छंद और विधाएँ
ताटंक छन्द , लावनी छंद , ककुभ छंद
ताटंक छन्द , लावनी छंद , ककुभ छंद अर्द्धमात्रिक छन्द है
प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं , विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है. दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है.
विषम चरण के 16 मात्रा के अन्त को लेकर कोई विशेष नियम नहीं है , पर किसी भी छंद में यदि 16 मात्रा के चरण पर यति हो तो चौकल 22. , 112 , 211 , 1111 की श्रेष्ठ मानी गई है ,लय अच्छी रहती है , हम आप पूरा प्रयास करे कि 16 की यति उपरोक्त हो, पर चूकिंं छंद विधानो में अलग अलग मत मिलते है , तब हम इतना ही कह सकते है कि लय नहीं जानी चाहिए |
इसके साथ ही हम इस विशेषांक में छंद का चरणांत यथावत करें , एक दीर्घ का दो लघु न बनाएं , एक दीर्घ. को दो लघु करने का नियम होता है , पर हम यहाँ सही यथावत अभ्यास करें | फिर भी आप करते है तो यह लेखक कवि की मर्जी है
आप एक बार निवेदन अनुसार यथावत सृजन करें | इससे आपका कलम अभ्यास निसंदेह सही होगा
सम चरणों का पदांत गुरुओं से होता है
कुकुभ छन्द, ताटंक छन्द , लावनी छंद में बड़ा ही महीन अन्तर है
जिसका पदान्त दो गुरुओं से हो कुकुभ छन्द कहलाता है.
जिसका पदान्त तीन गुरुओं से हो ताटंक छन्द कहलाता है.
जिनका पदान्त दो लघु , दो दीर्घ से हो लावनी छंद कहलाता है ,
(लावनी में भी पदांत कहीं दो लघु एक दीर्घ मिलता है )
गीत लिखते समय गीतकार इसे लावनी गीत ही कहते है | क्योंकि गीत के चरणांत में गुरुओं का ठिकाना नहीं रहता है , कि कितने है
उदाहरणार्थ मै अपने लिखे कुछ कुकुभ /ताटंक /लावमी छंद प्रस्तुत कर रहा हूँ |
छंद — १६-१४ पदांत तीन गुरु से (ताटंक छंद)
जलने बाला जलता रहता , जलती रहती है ज्वाला |
कभी न मरघट पर अब लगता ,किसी किस्म का भी ताला ||
राम नाम है सत्य यहाँ पर , लगता जय का है नारा |
मेला है यह सात दिवस का, अनुभव मीठा या खारा ||
ठगनी कहते रहते ज्ञानी , जिसको कहते हैं माया |
सबको देखा लेते उसकी , बड़े प्यार से है छाया ||
हम संसारी रागी बन्दे , बनते हैं कब. बैरागी |
करें त्याग की जितनी बातें , उतनी चाहत की आगी ||
मैं सुभाष कहता हूँ सबसे , क्या पावन कर दे गंगा |
मैल न मन का छुटा सकें तो , क्या हो जाएगें चंगा ||
धर्मसभा में घन्टों बैठे , जहाँ ज्ञान की थी बातें |
भूल गए हम सब घर आकर , बस याद रही हैं घातें ||
कौन श्रेष्ठ हैं कौन मूर्ख हैं , कौन यहाँ पर हैं दानी |
पाप पुण्य है किसके अंदर , लेखा – जोखा नादानी ||
अँगुली एक उठाकर हमने , चार स्वयं पर हैं तानी |
उपदेश सभी के मुख में हैं, जगह – जगह पर है ज्ञानी ||
उत्तम लगते जो भी तुमको , उसको ऊँचा ही मानों |
जिसमें कटुता और कपट है , उसको दानव ही जानो ||
नहीं जन्म का जादू चलता, अब कौन सृजन को रोके |
अभिनंदन उनका ही होता, जो नव पथ झंडा रोपे ||
जिसने मुख में भरकर गाली , आसमान पर है थूका |
थूक लोटकर मुख पर आया , वह खुद डाली से चूका ||
अमृत-विष-मदिरा सागर में , यह सब हमने है देखे |
रसपान आपकी मर्जी है , जिसको जैसा जो लेखे |
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मुक्तक – (पदांत. दो गुरु से ) कुकुभ छंद
संस्कार माँ दे देती है , संघर्ष पिता सिखलाता |
गोदी में बिठलाकर बेटे , शिक्षाएं सब दे जाता |
अपना अंश देखकर पुलकित , रहे बंश की परिपाटी ~
भविष्य निहार वर्तमान से , करता रहता है नाता |
संकट जिस पर भी आता है ,वह निपटा लेता भाई |
समाधान भी खोज निकाले , माने भी नहीं बुराई |
हँसी उड़ाते पर पीड़ा में , उनसे कहना है मेरा ~
जिस दिन संकट घर आएगा , समझोगें पीर पराई |
आगे दिखते बहुत लोग अब , मिलती उनकी तैयारी |
आगे बढ़ने छीना झपटी , करते है मारा मारी ||
रिश्ते दिखते आज खोखले, मिलकर भी है भड़काते ~
तू डाल -डाल मैं पात-पात , दिखलाते है हुश्यारी |
यारो राहें कभी न टूटे , लोग टूटते जाते है |
मंजिल के पहले गुब्वारा, सदा फूटते जाते है |
दोषारोपड़ यहाँ देखता , खोजे घूमे यहाँ सुभाषा ~
प्यार भरोसा करते जिस पर , वही छूटते जाते है |
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मुक्तक , १६-१४ , पदांत दो लघु दो दीर्घ से
नहीं यहाँ बच पाया कोई , कहती है मरघट ज्वाला |
खुद का बेटा तुझें फूँकता , दिखता है खेल निराला |
राम नाम है सत्य जगत में , लोग यहाँ पर कह जाते ~
मेला यह है सात दिवस का, मानो इतनी जग माला |
बड़ा सहज है दृश्य मनोहर , अंधे को सब बतलाना |
बहरे को भी नाच दिखाकर, मीठी सी ताल सुनाना |
ब्रम्हा बिष्णु हार जाएगें , साथ सुनो अब शिव भोले
मूरख आकर मिले सामने , बड़ा कठिन है समझाना |
ऋतु बसंत का मादक मोसम ,सजनी बोली अकुलाई |
जब प्रीतम परदेश हमारे , बजती क्यों है शहनाई |
चकवी बनकर नाम पिया का, सुबह शाम मैं रटती हूँ ~
झुलसाने को विरह अग्नि भी, मौसम ने क्यों सुलगाई |
अँगना में कान्हा खेल रहे , गूँज रही है किलकारी |
मात् यशोदा पुलकित होती , सोचें पल है मनहारी |
वहाँ नंद भी दौड़े आए , चढ़े श्याम है तब गोदी ~
चिपक हृदय से बालपने की , करते लीला अवतारी |
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यह थी कुकुभ , ताटंक लावनी की बारीकिया , पर तीनों के पदांतो में मामूली अंतर होते है , अत: आप एक दिन तीनो बारीकियों से सृजन अभ्यास करें |
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तीनो बारीकियो को नजर अंदाज कर प्राय: कवियों में यह लावनी छंद प्रचलित हो गया है – अत: इस पर अनुशरण कर हम इस छंद में , कुछ प्रयोग रख रहे है , जिस पर आप अनुशरण कर कलम चला सकते है |
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कुकुभ/ताटंक /लावनी छंद (दुमदार)
मेरा क्या है तुम खा लेना , मेरे हिस्से का दाना |
पचा- पचाकर भाषण देना , मन की खूब सुनाना ||
हम सब बोलेगें जयकारा |
झंडा ऊंचा रहे हमारा ||
फटी चड्डियाँ बनियाने भी , नहीं कहेगीं कुछ मेरा |
कभी नहीं वह हक मांगेगी , वह जानेगीं सब. तेरा ||
तुमको मीठा उनको खारा |
झंडा ऊंचा रहे हमारा ||
कितने वादे बाँटे तुमने , कितनी है हमको यादें |
पांच साल में शक्ल दिखाकर , सब कोई आकर साधें ||
लगता हटा गरीबी नारा |
झंडा ऊंचा रहे हमारा ||
तेरे डंडे झंडे में है, मेरे बहुमत की डोरी |
दाता होकर हमको लगती , याचक की माथे रोरी ||
फिरता रहता मारा- मारा |
झंडा ऊंचा रहे हमारा ||
नेता जी बतला दो सबको , कैसी पहनी है खादी |
मजदूरों का माल हड़पकर , बोल रही है आजादी ||
आंखें दिन में देखें तारा |
झंडा ऊंचा रहे हमारा ||
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चरण गीतिका- लावनी
शीर्षक- अब नाती की शादी में
मापनी – 30 मात्रा, 16,14 पर यति, (अंत दीर्घ )
लगती घर में है वरदानी , जो छाया की दादी ने |
आज फिर आया है यौवन ,अब नाती की शादी ने ||
बेटे और बहू से कहती , नहीं जानते तुम दोनों ,
कौन दुकानें मै बतलाती , अब नाती की शादी में |
सभी याद है रिश्ते नाते बिना डायरी बतलाती ,
आएगें मेहमान. कितने , अब नाती की शादी में |
सोच रखा है सब दादी ने , पूछों तब ही बतलाती ,
पकवानों की लम्बी सूची अब नाती की शादी में |
रूठा रिश्तेदार मनाना , तरकीब जानती पूरी ,
किसकी कैसी शान निराली ,अब नाती की शादी में |
सभी तरह के जेवर साड़ी ,देख रहीं बारीकी से ,
बिछियाँ से लेकर चूड़ी तक ,अब नाती की शादी में |
पेड़ जानिए. ऐसा दादी , सबको मीठा फल देती ,
समाधान का जादू करती , अब नाती की शादी में |
(सुभाष सिंघई)
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लावनी गीतिका 16-14 मात्रा
ताना मुझको मार रही है , कहती हमसे दर खाली |
जो सिखलाया वह क्यों भूले ,कहती दम से घरवाली ||
ठोक पीटकर मुझे सुधारा, काम सभी था समझाया ,
पर मैं निकला अक़्ल का शत्रु , बोली धम से घरवाली |
साली मुझसे मिलने आई , सीख चुके हैं क्या जीजू ,?
नहीं प्यार से देख सका मैं , देखी गम से घरवाली |
देख पड़ोसन हँसती मुझ पर , मैं भारी हूँ सकुचाता ,
है दो कोड़ी मूल्य हमारा, कहती छम से घरवाली |
कोरोना ने दिन दिखलाए , बंद रहा दरबाजे में ,
दुनियादारी भूल गया मैं , भजूँ धर्म. से घरवाली |
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गीत -लावनी , 16 – 14
राम नाम का गान सुनाता , लगता जय का है नारा | मुखड़ा
मेला है यह सात दिवस का, अनुभव मीठा या खारा || टेक
ठगनी कहते रहते ज्ञानी , जिसको कहते हैं माया | अंतरा
सबको देखा लेते उसकी , बड़े प्यार से है छाया ||
हम संसारी रागी बन्दे , बनते हैं कब. बैरागी |
करें त्याग की जितनी बातें , उतनी चाहत की आगी ||
माया के बंधन में रहते , हम. प्राणी सब संसारा | पूरक
मेला है यह सात दिवस का, अनुभव मीठा या खारा || टेक
मैं सुभाष कहता हूँ सबसे , क्या पावन कर दे गंगा |अंतरा
मैल न मन का छुटा सकें तो , क्या हो जाएगें चंगा ||
धर्मसभा में घन्टों बैठे , जहाँ ज्ञान की थी बातें |
भूल गए हम सब घर आकर , बस याद रही हैं घातें ||
नहीं मानता लेकर. मानव , अपने ऊपर. उपकारा | पूरक
मेला है यह सात दिवस का, अनुभव मीठा या खारा || टेक
कौन श्रेष्ठ है कैसे कह दें , कौन यहाँ पर हैं दानी | अंतरा
पाप पुण्य है किसके अंदर , लेखा – जोखा नादानी ||
अँगुली एक उठाकर हमने , चार स्वयं पर हैं तानी |
उपदेश सभी के मुख में हैं, जगह – जगह पर है ज्ञानी ||
सबके अपने डंडे झंडे , सबके अपने है नारा | पूरक
मेला है यह सात दिवस का, अनुभव मीठा या खारा || टेक
(सुभाष सिंघई)
लावनी गीतिका , 16- 14
भला बुरा यदि मानव जाने , ऊँची सोच विचारों में |
एक दिवस मंजिल को पाता , गिनती मिले सितारों में ||
करनी की भरनी मिलती है , नियम बनाया कुदरत ने ,
खुले आम अच्छाई दिखती , किए गए उपकारों में |
जगह – जगह पर मिले बुराई , नहीं खोजना पड़ता है ,
एक खोजने पर मिलती है , सबको सदा हजारों में |
कुछ कठनाई आती देखी , कर्म जहाँ अच्छाई के ,
पर फल मीठा पकता देखा , रहता सदा बहारों में |
जो भी मानव बना कृतध्नी , करता देखा चालाकी ,
उसकी चर्या देखी सबने , रहता हरदम. खारों में |
कर्म हमारे प्रतिदिन अच्छे , प्रभु भजन मय जीवन हो ,
स्थान मिले रहने को मुझको , दिल के अंदर यारों में |
सोच “सुभाषा” हरदम रहती , सृजन मनन कुछ चिंतन हो ,
समय न मेरा कुछ भी गुजरे , बेमतलब की रारों में |
सुभाष सिंघई
लावनी गीत
कह देता मैं आज सभी से , अपने मन की बातों को |
हिंदी के अब साथ सुनो जी ,पीछे चलती घातों को ||
हिंदी के आचार्य बने हैं , पर करते है उस्तादी |
दूजी भाषा बना रहे हैं , हिंदी छंदों की दादी ||
नहीं रगण को बतलाते है , फाईलुन कह समझाते |
गणसूत्रों पर नाक सिकोड़ें , अरकानों पर. मुस्काते ||
नहीं हमारी हिंदी याचक , दूर. करो खैरातों को |
कह देता मैं आज सभी से, अपने मन की बातों को ||
बैर नहीं हम पाला करते , सबकी अपनी शैली है |
हिंदी छंद विधानों की भी , अपनी निज की थैली है ||
दूजी भाषा की जो बहरें , हिंदी छंदों में खोजें |
उस्ताद उन्हें कह दीजे तुम , मन में रखना है मोजें ||
बने सेकुलर ढ़ोगीं जोड़ें , उल्टे पुल्टे नातो को |
कह देता मैं आज सभी से, अपने मन की बातों को ||
यमाताराजभानसलगा: , इनकी अपनी आजादी |
काँट छाँट जो भी करता है , समझों उसको अपराधी ||
हिंदी सेवक हमको मानों , मात् शारदे मम माता |
दूजों की भी निज मर्यादा , रखना हमको है आता ||
अपनी- अपनी मर्यादा में , खोलो अपने छातों को |
कह देता मैं आज सभी से, अपने मन की बातों को ||
सुभाष सिंघई
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वह भाषा भी अच्छी मानो , पर. उसमें उस्ताद कहाते |
हिंदी में आचार्य .कहें हम , ज्ञानी जन. है बतलाते ||🙏
सुभाष सिंघई
लावनी छंद (दुमदार ) 16–14 , चरणांत दो लघु दो दीर्घ
नेता जी अब खाते जाना , जितना है पेट तुम्हारा |
हम पैदा करते जाएगें , है यह अधिकार हमारा ||
दुर्गति हम ही देखेगें |
मिलकर तुमको फेकेगें ||
तुम्हें चुना है हमने मिलकर , अब तुम जनता चुन डालो |
माल मलाई जो सरकारी , पूरी तुम. ही अब खालो ||
हम सब बैठे लेखेगें |
मिलकर तुमको फेकेगें ||
लाज शरम तुमने सब बेंची , अभी तुम्हारी सब पारी |
महक रही सरकारी धन से , घर में जो अब फुलवारी ||
साल पांचवी सूखेगें |
मिलकर तुमको फेकेगें
समय नहीं जनता से मिलने , बंगलों में रहकर सोते |
नहीं लोग वह अच्छे लगते , कष्टों को आकर रोते ||
आंसू ही अब फोड़ेगें |
मिलकर तुमको फेकेगें ||
लोकतंत्र की अजब कहानी , देख रहे है सब लीला |
तोड़ मोड़कर अपने मन का ,है किया सरासर ढीला ||
यहाँ ‘ सुभाषा’ बोलेगें |
मिलकर तुमको फेकेगें
सुभाष सिंघई
ताटंक गीतिका , 16- 14 चरणांत तीन गुरु
चिन्ता से मन सदा खोलता , देखा सबने है पानी |
फिर भी चिंता में रत रहता , लेखा हमने है ज्ञानी ||
धन वैभव सँग ज्ञान पिटारा , फिर भी चिन्ता का रोगी
चिन्ता तन को खाती रहती , पर ज्ञानी ने है ठानी |
चिन्तन भी चिन्ता से करते , हो जाएं. महिमा वाले ,
शत्रु स्वयं के बन जाते है , करते रहते हैं हानी |
कौन किसे अब समझाता है, सभी तमाशे को देखे ,
कुछ चिन्ता की करें व्याख्या, तब होती है हैरानी |
सदा सुभाषा यही विचारें , कौन बांटता चिन्ता को ,
जिसको हमने पाल रखा है , वह ठगने में है नानी |
सुभाष सिंघई
दिनांक अक्टूबर 2021
पद. आधार लावनी 16 -14 पदांत दो लघु दो दीर्घ
नंद. गेह.लीला सब न्यारी |
खेल रहे आंगन में कृष्णा , गूँज रही है किलकारी ||
मातु यशोदा पुलकित होती , समझे खुद को सुख नारी |
वहाँ नंद भी दौड़े आए , चढ़े श्याम तब. मनुहारी ||
चिपक हृदय से बालपने की , करते लीला अवतारी |
खड़ी देखती है बालाएं , मेरी आवें कुछ बारी ||
दौड़ लगाऊँ लेकर गोदी , जीतू सबसे यह पारी |
दृश्य कल्पना सुखद ‘ सुभाषा, ‘है आनंदित मन भारी ||
सुभाष सिंघई
लावनी चरण गीतिका 16 – 14
चरण – गाएं अपना यश गाना
फाँक रहें है अपनी हरदम , बने हुए है कुछ नाना |
अपनी ढपली राग अलापें , गाएं अपना यश गाना ||
जहाँ देखते अपना मतलब , करते है वह मधु बातें ,
काम निपट जाने पर देखा , गाए. अपना यश गाना |
रूप अलग है अंदर बाहर, उनसे धोखा सब खाते ,
छोड़े छाड़े वह कथनी को , गाएं अपना यश गाना |
दिखा घोंसला छल छंदों का , तख्ती पर. हरि नामा ,
ताल. तमूरा तेरा लेकर , गाएं अपना यश . गाना |
नहीं बोलना कभी ” सुभाषा” , और न कहना सच बातें ,
उनकी हंडी फूटेगी जो , गाएं अपना यश गाना |
पदकाव्य आधार लावनी मात्रानुशासन 16 – 14
अब छोड़ो बात पुरानी |
कौन श्रेष्ठ हैं इस दुनिया में ,यह गाओं नहीं कहानी ||
पाप पुण्य है किसका कितना , लेखा – जोखा नादानी |
अँगुली एक उठाकर हमने , चार स्वयं पर हैं तानी ||
उपदेश सभी के मुख में हैं, जगह – जगह पर हैं ज्ञानी |
पर उस तट पर ठहर ‘सुभाषा’ ,जिस तट हो मीठा पानी ||
सुभाष सिंघई
मुक्तक , आधार ताटंक छंद , , चरणांत तीन दीर्घ
ठगनी कहते रहते ज्ञानी , जिसको कहते है माया |
सबको देखा लेते उसकी , बड़े प्यार से है छाया ||
हम संसारी रागी बन्दे , बनते है कब. बैरागी |
सुनीं त्याग की जितनी बातें , उतना चाहत को गा़या ||
मैं सुभाष कहता हूँ सबसे , क्या पावन कर दे गंगा |
मैल न मन का छुटा सकें तो , क्या हो जाएगें चंगा ||
धर्मसभा में घन्टों बैठे , जहाँ ज्ञान की थी बातें |
भूल गए हम सब घर आकर , याद रहे खोटे पंगा ||
सुभाष सिंघई
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विधा : गीतिका ,आधार छन्द : लावणी छन्द
( १६+१४ मात्रा अन्त २ या ११ )
समान्त : “आर” स्वर. पदान्त : “करे”
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लावणी छंद , {गीतिका }
पैसा -पैसा माँगे मानव , तब ईश्वर बौछार करे |
मैल हाथ का यह होता है , कौन इसे स्वीकार करे |
पैसा पाने देखा सबने , लँगड़े भी दौड़ा करते ,
अंधा तक भी उसको पाने , हाथों को तैय्यार करे |
पागल देखा चौराहों पर , होश नहीं कुछ भी रखता,
पर वह पैसा को पहचाने , हर द्वारे गुंजार करे |
अजब -गजब पैसों का सागर , सभी चाहते लें डुबकी,
दम खम जौर लगाने मानव , पैसा ही पतवार करे |
भाई – भाई लड़ जाते है , बँटवारे की बात चले ,
पैसा करता मूल्यांकन है , हम सबको लाचार करे |
अपना- अपना स्वर है रटते , बन जाते सब दुश्मन है ,
कौन मानता कड़वा सच यह, अमरत जलकर खार करे |
महिलाएँ भी नर्तन करती , सभी दिशा में शोर मचे ,
चूल्हा बँटकर फूटा रहता , चक्की की भी हार करे |
पाई- पाई चिल्लाती है , लेने देती चैन नहीं |
इंच-इंच पर दिखे “सुभाषा’, झगड़ा बढ़कर मार करे |
सुभाष सिंघई
कुकुभ /लावनी छंद , {गीत }
पैसा ईश्वर नहीं जगत में , पर पाने को नर रोता |
कौन मानता कड़वा सच यह, पैसा ही सब कुछ होता ||
पैसा पाने देखा सबने , लँगड़े भी दौड़ लगाते |
अंधे तक भी उसको पाने , निज हाथों को फैलाते ||
पागल देखा चौराहों पर , होश नहीं कुछ रख पाता |
पर वह पैसा को पहचाने , हर द्वारे तक है जाता ||
अजब गजब पैसों का सागर , सभी लगाते है गोता |
कौन मानता कड़वा सच यह , पैसा ही सब कुछ होता ||
भाई – भाई लड़ जाते है , होता है जब बँटवारा |
पैसा करता मूल्यांकन है , बनता आकर आधारा ||
पाई- पाई चिल्लाती है , चैन नहीं लेने देती |
परिवारों में दीवाल खिचे , इंच- इंच बँटती खेती ||
अपना- अपना स्वर है रटते , बन जाते है सब तोता |
कौन मानता कड़वा सच यह , पैसा ही सब कुछ होता ||
महिलाएँ भी नर्तन करती , सभी दिशा में हों घाटे |
चूल्हा बँटकर फूटा रहता , चक्की के बँटते पाटे ||
मुफ्त देखता पुरा मुहल्ला , होता जब खड़ा तमाशा |
खाने के पहले ही फूटे , जब फूला हुआ बताशा ||
एक दूसरे बैरी बनते , घर मर्यादाएँ खोता |
कौन मानता कड़वा सच यह , पैसा ही सब कुछ होता |
सुभाष सिंघई
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© सुभाष सिंघई
(एम•ए• हिंदी साहित्य , दर्शन शास्त्र)
(पूर्व ) भाषा अनुदेशक आई टी आई
जतारा ( टीकमगढ) म०प्र०
आलेख- सरल सहज भाव शब्दों से छंदों को समझानें का प्रयास किया है , वर्तनी व कहीं मात्रा दोष हो, या विधान दोष हो तो परिमार्जन करके ग्राह करें
सादर