तहरीर ये मेरे हाथों की जंजीर तेरी ना बन जायें
ग़ज़ल-(बह्र – मुतदारिक मुसम्मन मख़बून मुस्सकिन मुज़ाइफ
अरकान-फेलुन *7)
(वज़्न – 22 22 22 22 22 22 22 22
जो ख्वाब सजाये थे हमने उन में तुम आग़ लगा देना।।
आंखों मे बसी तस्वीर मेरी अश्को के साथ बहा देना।।
तुमने चलकर कुछ ही लम्हा,अब छोड़ दिया मुझको तन्हा।
गुमराह किया जो राहों से,तो फिर अब राह दिखा देना।।
अब कोई रंग न फीका हो, आख़िर तुम दुल्हन हो हमदम।
हाथों की मेंहदी में मेरा, अब ख़ून -ए-जिग़र भी मिला लेना।।
तहरीर ये मेरे हाथों की जंज़ीर न तेरी बन जाये।
रुसवा न कहीं कर दे तुझको, ख़त मेरे सब तू जला देना।।
थी मेरी तमन्ना मैं सोता , तेरी जुल्फ़ों साये में।
अब गहरी नींद सुला करके, आंचल का कफ़्न उढ़ा देना।।
चौखट पे तेरी “अनीश” खड़ा, दिल में इतनी सी आस लिये ।
इक जामे-मुहब्बत दे न सको, तो फिर अब जह़्र पिला देना।।
——अनीश शाह