तस्वीर!
घर के किसी कोने के दीवार पे टंगी,
तस्वीर हूँ मैं, एक सुंदर तस्वीर।
सुनहरे सुंदर फ्रेम मे ज़करी बेजान सी,
मात्र शोभा बढ़ाने की चीज़।
जो बोल नहीं सकती,
मुस्कुरा नहीं सकती,
अपने अस्तित्व पर जमे धूल,
पोंछ नहीं सकती,
बस चुप-चाप सह सकती है,
किसी के ग़ुस्से से अपना आहत होना,
तो किसी के फेंकने से,
अपने अस्तित्व का ही मिट जाना।
अपने आत्मसम्मान के लिए,
लड़ने का ज़ज़्बात मेरे भी जाग रहे,
ज़कर गये है मेरे ज़बरे,
वर्षों से एक ही स्थिति में मुस्कुराते हुए।
अब मै खिलखिला के हँसना चाहती हूँ,
किसी के दुख में साथ दे रोना चाहती हूँ,
चीख-चीख के अपनी व्यथा
सब को सुनाना चाहती हूँ।
मगर क्या कोई चित्रकार
मेरे ऐसे रूप को कैद करेगा?
क्या तब भी मुझसे
कोई अपना घर सजायेगा?
उस रूप में भी क्या
मैं सुंदर कहलाऊँगी?
क्या तब भी मुझे
ऐसे ही सजाया जायेगा?
पर मैं ने तो हमेशा
तस्वीरो को हँसते ही देखा है,
अपने गमों को आँख मूंद
छुपाते ही देखा है
क्योंकि तस्वीरे नहीं दिखाते
अपने दुख,
वे बस दिखा सकती है
अपने सुख!