तलाश
शब्दों के सितार कभी कभी..
अपने आप चल पड़ती हैं उंगलियां..
सुस्ताई सी. अलसाई सी. कोई धुन..
खोल देती है दिल की बंद खिड़किया.
जिंदगी की जिस रफ़्तार से चल रही.
परवाह नहीं वक्त देता है अगर झिड़कियाँ.
शीशे के पारदर्शी पिंजरे हैं..
नहीं दीखती अपनी ही परछाई..
आँखे मूंदकर. अक्सर बैठ जाता हूं.
अपने आप से.
शायद कहीं मुलाक़ात हो.
फिर निकल पड़ता हूं जज़्बात के हाइवे पर..
शब्द भी भाग रहे हैं पीछे..
इनको भी तलाश हैं…
शायद ये भी अपने मायने तलाश रहे हैं..