तलाश जिन्दगी की-पुस्तक समीक्षा
कहते हैं कि इनसान के जीवन सफर में तलाश कभी समाप्त नहीं होती। ये तलाश ही है जो बचपन में युवावस्था की कल्पना करवाती है और ये तलाश ही है जो युवावस्था में स्वप्नों को साकार करवाने का अहसास करवाती है। कोई तलाश में मंजिल को पा जाता है तो कोई तलाश के सफर में कुछ पीछे रह जाता है।
युवा साहित्यकार एवं समीक्षक मीनू गेरा द्वारा लिखित ‘तलाश जि़न्दगी की’ कविता-संग्रह में शामिल कविताएँ भी कुछ ऐसे ही दौर से रूबरू करवाती महसूस होती हैं। प्रस्तुत कविताओं में कहीं आस है तो कहीं विराम, कहीं साँझ है तो कहीं ख्वाहिश, कहीं तस्वीर में छुपी दासतां है तो कहीं अन्तर्मन के भावों की गाथा।
कवयित्री ने प्रथम कविता माँ को अर्पित की है, जिसमें चंद लफ्ज़ों में केवल माँ शब्द ही नहीं, बल्कि उसके अभाव एवं पूर्ति को भी बयां किया है। कुछ आगे चलकर रिश्तों की गहराई बताई है तो बीच पड़ाव में मंजिल के मूल अर्थ को जिन शब्दों में बताया है, शायद उसके बारे में कलम से लिखकर या जुबां से बोलकर बता पाना परे की बात है।
अन्तिम पड़ाव में कवयित्री ने समाज के चित्रण को बखूबी पेश करते हुए ‘तस्वीर’ के माध्यम से कड़वे सत्य को कम परंतु संपूर्ण शब्दों में जीता-जागता प्रमाण प्रस्तुत किया है।
‘तलाश जि़न्दगी की’ कवयित्री मीनू गेरा का भले ही प्रथम काव्य-संग्रह है, परंतु इनकी कविताओं की गहराई में खोने वाले पाठक स्वयं जानेंगे कि रचनाकार ने किस कदर साहित्य के समन्दर में गोता लगाकर उसकी गहराई को मापने का अथक प्रयास किया है।
‘तलाश जि़न्दगी की’ पुस्तक में शामिल कविता ‘माँ के लिए’ से लेकर ‘तस्वीर’ तक कुल अठत्तर कविताओं की संजीवनी माला-स्वरूप पुस्तक बेहद आकर्षक एवं काबिल-ए-तारीफ बन पड़ी है।
युवा साहित्यकार एवं समीक्षक मीनू गेरा की प्रशसंनीय लेखनी पर ये चंद लाईने सटीक बैठती हैं-
भारी था जिसका बोझ
वो लम्हा लिए फिरा
सिर पर मैं एक पहाड़ को,
तन्हा लिए फिरा
मनोज अरोड़ा
लेखक एवं समीक्षक
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