तलबगार दोस्ती का (कविता)
तलबगार दोस्ती का
तुमने दोस्ती का दामन यूं छुड़ाया
फिर भी मुझे कोई गम नहीं
सदा खुश रहे तू दुआ है बस मेरी यही चाहे उस खुशी में शामिल हम ना हो
पर जरा सोचना बैठकर
कभी दिल से
आखिर क्या थी गलती मेरी
किस बात के हम गुनहगार हो गए
जितना रखा पाक साफ दिल
उतने ही दागदार हो गए
तुम जमाने की रंगरलिया में गुम थे आखिर कैसे समझ पाते पाक दोस्ताना को
तुम्हें चाहना कोई मेरी गलती ना थी आखिर खुद्दारी की दोस्ती ही तो हमें मंजूर थी
क्या हुआ जो तुम समझ ना पाए दोस्ती को
मगर तुम्हारे वह लफ्ज आज भी मुझे याद है
जरूरी तो नहीं तुम भी हमसे दोस्ती- ए-वफा करो
इतने तलबगार तो हम भी नहीं