तरक़्क़ी ले रही कुर्बानियां साए की
दिल्लगी का मुझे भी हुनर आ गया!
बेख़बर था जो बाख़बर आ गया!
तरक़्क़ी ले रही कुर्बानियां साये की,
ज़द में आज कोई शजर आ गया!
जिधर देखूं नज़र तू ही तू आती है,
याद फिर वो सुहानासफ़र आ गया!
तन्हा रहा दुनिया की भीड़ में अक्सर,
मासूम हाथों में जब खंज़र आ गया!
वीरान हो गया आशियाना-ए- दिल,
न जाने ये कैसा मंज़र आ गया!
वफ़ा की चाहत में वफ़ा नहीं मिलती,
आशिके-ज़ख्म-दर्दे जिगर आ गया!
दर पे खुशियों की हुई आमद शायद,
‘मुमताज़’ दुआओं का असर आगया!!
-मोहम्मद मुमताज़ हसन
रिकाबगंज, टिकारी, जिला-गया
बिहार -824236