तरुवर की शाखाएंँ
शाखाएंँ तुम्हारी वृहद फैली,
सघन उलझी हुई लताओ से,
झुकी हुई है डाली-डाली,
लदे हुए है फलो की ढ़ेरी से,
शीश झुका कर आभार जताता,
जड़ है दाता मधुर फल-फूलो का,
दिखता जो नहीं धरा के ऊपर,
दबा दूर धरा के गहराइयों में,
जीवन देता हरा-भरा सा वहीं,
जिसके आभार को है जताते,
शीश उठा कर शाखाएंँ बढ़ती,
अभिमान से दूर तक फैलती,
झुकती नहीं धरा के मुख पर,
छाया भी मिलता नहीं पथ को,
फलता फूलता नहीं तरुवर वह,
काट छाँट कर शाखाओं के उसके,
समूल नाश कर देते जड़ से,
मुख्य कारण को ना समझे जीवन का,
महत्त्व न देता अपने सत्य बीज का,
स्वयं फलो से वंचित होता।
रचनाकार-
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।