“तरबतर”
लबालब भरे ये श्याम घन
चले आये हैं डग बढ़ाये
धरा लहलहाती , खिलखिलाती
है उनके आतिथ्य में सर झुकाये
काले -काले मेघों के ये घेरे हैं ख़ूब घेरे
ज़रा सा हाथ बढ़ाया और बरस पड़े
पावन सी प्रकृति खिल -खिल गयी
रेशमी बूंदों से पहन ताज़गी का पैरहन
ठहर -ठहर गुज़रती हवा आईने से जल पर
करती चली बेतकल्लुफ चित्रकारियां
बारिशों ने भिगोई है जो शाम ओ सहर
तरबतर हो गया है दिल का शहर