तरक्की का कैसा ये मंज़र सजा है
तरक्की का कैसा ये मंज़र सजा है
तरक्की का कैसा ये , मंज़र सजा है
संस्कारों से मानव , हुआ जुदा है
भाग – दौड़ की संस्कृति , हुई विकसित
अपना ही अपनों से हुआ जुदा है
अहम् की कैसी ये , बिछी है बिसात
मानव का मानव पर से , भरोसा उठा है
चीरहरण ने पार करी , हदें सारी
अपना ही अपनों को , नोचने में भिड़ा है
ऊंची – ऊंची बिल्डिंगों से , सजते शहर हैं
दिल आदमी का , संकुचित हुआ है
कूड़े के ढेर पर , नन्हा तन देखो
कुँवारी माओं का दिल , पत्थर हुआ है
एक – दूसरे को गिराने का , चलन कैसा
आदमी ही आदमी का , दुश्मन हुआ है
धर्म पर लहराता , राजनीति का परचम
आज धर्म राजनीति का , मोहरा हुआ है
तरक्की का कैसा ये , मंज़र सजा है
संस्कारों से मानव , हुआ जुदा है
भाग – दौड़ की संस्कृति , हुई विकसित
अपनों से ही अपने , हुए जुदा हैं