“तब जाकर कुछ लिखता हूं”
जो भी मैं कुछ लिखता हूं
घनीभूत स्मृति के बादल
जब पीर बनते हैं आंसू
तब आंसूओं को पीता हूं
तब जाकर कुछ लिखता हूं।
विविध रंग जीवन की छाया
उलझता हूं, सुलझाता हूं
जब करुणा होती है कलित
तब संवेदनाओं में बहता हूं
तब जाकर कुछ लिखता हूं।
मजाल नही, एक पंक्ति भी
बिन मर्जी उनके लिख पाऊं
ये प्रभाव उन्हीं का तो है बस
आदेश उनका समझता हूं
तब जाकर कुछ लिखता हूं।। भास्कर