“तब्दीलियां” ग़ज़ल
जहाँ भर को, हम क्यूँ, दिवाने लगे हैं,
जो मन्ज़र ख़िज़ाँ के, सुहाने लगे हैं।
गये रूठ मुझ से, हैं क्यूँ अब वो फिर से,
मनाने मेँ जिनको, ज़माने लगे हैं।
कोई, कह रहा था, हैं बेचैन वो भी,
तो क्या फिर से हम, उनको भाने लगे हैं।
है चर्चा दहर भर मेँ, क्यूँ फिर से इतना,
वो अब, रस्मे-उल्फ़त, निभाने लगे हैं।
थीं तब्दीलियां भी, अयाँ ख़्वाब मेँ कुछ,
ग़ज़ल वो मिरी, लब पे, लाने लगे है।
है ज़िद, आएँ ख़ुद वो अयादत को, “आशा”,
कि अब प्राण, तन से ही, जाने लगे हैं..!
##———–##————##————