तपों की बारिश (समसामयिक नवगीत)
नीर बरसा,
तपतपाते
जेठ में भी ।
रोहिणी में
शीतला के,
मेघ बरसे
घरघराते ।
कुरितु आई
बूँद लेकर,
तड़ित चमकी
कड़कड़ाते ।
अँध उड़ती,
हवा चलती,
पेड़ उखड़े,
तार टूटे ।
गिरा मंडप,
बुझी आगी,
भरी भाँवर
वधू रूठे ।
उमस छाई
दुकानों में,
सेठ में भी ।
धूप के सँग
गिरा पानी,
बंदरों का
ब्याह होता ।
चिड़ा-चिड़िया
घोंसले में,
पपीहे का
कंठ रोता ।
प्यास बुझती
मवेशी की,
भरा पानी
कूप में कुछ ।
लू ठिठकती,
गिरा पारा,
कमी आई
धूप में कुछ ।
आर्द्रता है
मूछ में भी,
ऐंठ में भी ।
नीर बरसा,
तपतपाते
जेठ में भी ।
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—– ईश्वर दयाल गोस्वामी ।