तन बदन हो जाता कमजोर है
तन बदन हो जाता कमजोर है
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तन बदन हो जाता कमजोर है,
नहीं चलता किसी पर जोर हैँ।
हर कदम सांसे फूल जाती हैँ,
आयु ढलते ढलते ढल जाती हैँ,
परछाई ही बन जाती चोर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है।
कोई भी न सुनता आवाज को,
कोने मे रखते बिगड़े साज को,
समझ मे ही नहीं आता शोर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है।
याद आती हैँ जवानी की बातें,
प्रीत की रीत में बीती हसीं रातें,
बिगड़ी बिगड़ी सी सारी तौर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है।
लाठी ही तो बुढ़ापे का सहारा,
अपनों में ही हो जाता बेसहारा,
रिश्तो की मार्मिक नरम डोर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है।
बिस्तर पै बिखरा सा सामान है,
खुद की दशा पर खुद हैरान है,
कोई न ठिकाना न कोई ठोर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है।
कभी पैंद तो कभी हो सिराहने,
तीर लगता न किसी भी निशानें,
मजबूरियों से भरा हुआ दौर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है।
बहु बेटे बेटियाँ व पोते पोतियाँ,
सेंकते रहते बातों की रोटियाँ,
अंधेरा ही अंधेरा दूर भोर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है।
मनसीरत लूट गई सारी बहारें,
नजर आती हैँ खाली दीवारें,
कोई भी तो नहीं करता गौर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है।
तन बदन हो जाता कमजोर है,
नहीं चलता किसी पर जोर है।
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सुखविन्द्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैंथल)