तन्हा
कब से तन्हा हूँ
इस सूने खंडहर की तरह
सदियों से जीर्ण-शीर्ण
इमारत की तरह
न कोई आता है न जाता है
कुछ जंगली बेलें उगी हुई हैं
ज़िंदगी के नाम पर
या कभी कभार
कोई परिंदा पंख फड़फड़ाता है
कोनों में सुबकती तनहाइयाँ
कभी-कभी आपस में बतियाती हैं…
©️कंचन”अद्वैता”