तन्हा
इस शहर की गलियों में जिधर देखो हुजूम है ,
इस इन्सानी सैलाब में अजब दीनी जुनूँ है ,
हर शख़्स लगता है बे-परवा दुनिया से ,
अपने में मगन बे-ख़ुद सा किसी ख़्वाब में.,
मै अपने आप को सबसे अलग – थलग पाता हूँ ,
ना ही मुझमें वो जुनूँ तारी है ,
ना मेरी ख़ुदी पे ये पस-मंज़र भारी है ,
शायद इसलिए मै अपने आप को तन्हा पाता हूँ ,
कुछ इसी कश्मकश में रह दिन गुज़ारता हूँ।