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22 Mar 2018 · 1 min read

तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला है

पैसोँ की ललक देखो दिन कैसे दिखाती है
उधर माँ बाप तन्हा हैं इधर बेटा अकेला है

रुपये पैसोँ की कीमत को वह ही जान सकता है
बचपन में गरीवी का जिसने दंश झेला है

अपने थे ,समय भी था ,समय वह और था यारों
समय पर भी नहीं अपने बस मजबूरी का रेला है

हर इन्सां की दुनियाँ में इक जैसी कहानी है
तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला है

समय अच्छा बुरा होता ,नहीं हैं दोष इंसान का
बहुत मुश्किल है ये कहना किसने खेल खेला है

जियो ऐसे कि हर इक पल मानो आख़िरी पल है
आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है

तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला है

मदन मोहन सक्सेना

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