तन्हां बुढ़ापा
तन्हां बुढ़ापा
मेरा ये लेख उन बुजुर्गों की जिंदगी पर है,जो परिवार होते हुए भी अकेले रहने को मजबूर हैं,किसी के बेटे बहू अलग शहर में रह रहे हैं,तो किसी का कोई है ही नहीं…..
वो अपनी अनचाही तन्हां जिंदगी किस दर्द और आस के साथ बसर कर रहे हैं, मैंने अपने शब्दों से उनकी अनसुनी तकलीफ़ बयां करने की एक छोटी सी कोशिश की है
सिर्फ इस उम्मीद के साथ कि,काश मेरे शब्द किसी के मन को बदल सकें और अहसास करवा सकें कि, माता-पिता को सिर्फ अपने बच्चे,अपना परिवार चाहिए उन्हें ऐश आराम नहीं सुकून चाहिए……
वो निगाहें खामोश निहारती हैं, खिड़की से बाहर
और देखती हैं,वो शोर…
जिसकी कमी अब उसकी जिंदगी में सबसे ज्यादा है
वो कभी जिनका घर खुशहाल हुआ करता था परिवार की बातों और हंसी ठहाकों से…..
आज वही बात करने के लिए कोई अपना खोजते हैं
कभी देखते हैं उम्मीद लिए दरवाजे की ओर,
तो कभी फोन पर टकटकी लगाते हैं….
ज़रूरत ना हो,तो भी कभी कभी ओडर कर देते हैं,बाहर का खाना,या कोई भी अन्य सामान
घंटी बजते ही दरवाज़े की ओर,वो बालपन से दौड़ते हैं
पहले तो करते हैं बहसबाज़ी बिन बात, डिलेवरी बॉय से
मानों उनके दबे हुए शब्द और तन्हां पन यूं ही अनायास बोलते हैं
फिर, मृदुभाषी हो आगृह करते हैं,बेटा करना माफ़ मुझे
अकेलेपन ने कुछ चिड़चिड़ा कर दिया है मिज़ाज मेरा
आओ अंदर दो घड़ी थकान मिटा लो तुम भी…
फ़िर चाय की चुस्कियों संग, बातों का पिटारा खोलते हैं
थक जाता है डिलिवरी बॉय,पर अंकल जी चुप न होते हैं
अनचाहे मन से फिर,उसको अलविदा बोलते हैं
कितनी हताश हैं कयी जिंदगियां, तन्हाई और बैचैनी से
और कहीं… कोई अपनों से दूर, खुशी से ऐसा जीवन चुनते हैं…
कैसी विडम्बना है ये भी….
कोई परिवार चाहता है जीने के लिए,
कोई परिवार त्यागता है खुश रहने के लिए ।
दीपाली कालरा नई दिल्ली