*** तदबीरें जीने मरने की ***
हरकते-ए-खदीन
देखता हूं जब
सोचता हूं
इफ्तार-ए-दावत
रोज रोज़ा रखकर भी
पाया ना रोजी का किनारा
ताउम्र सताएगी फ़िक्र
फ़क़त जीने के लिए
ख़ुदा ने दावते-रोजी
कुछ रोज की दी है
अगर रफ्ता-रफ़्ता राह
रोजी की ना ली तो
यादगारे-जिन्दगी
ख्वाबगाह होगी
तबीयत होगी हंसने की
अफ़सोस की रोना आएगा
इसलिए सोचता हूं खदीन
तदबीरें जीने मरने की
?मधुप बैरागी