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1 Jul 2021 · 24 min read

तटस्थ

“तटस्थ”
-राजा सिंह
काहूकोठी से गुजरते हुए वह दिखी थी.एक पल को लगा कि वह हमारा भ्रम है.वह हमसे दूर थी. एक फ़र्लोंग से कम फासला नही रहा होगा फिर भी ऐसा लगता था कि वही है.नहीं..वह नहीं होगी?उसका आभाष कराती कोई अन्य होगी.
वह चपल चंचल तेज थी और सुंदर भी.वह गर्व से तनी रहती थी.उसके चलने, बोलने में आत्मविश्वास झलकता था.स्पष्ट और साफ है कि वह नही होगी?जितना वह करीब आती जाती स्पष्ट होता जाता कि वह सृष्टि नहीं है.अरे,वह तो पूना में होगी.वह जबसे कानपुर से गयी है बहुत कम बार वह आई है.
वह लड़की चुपचाप थकी,ढली और उजड़ी सी चली आ रही थी.ऐसा लगता है कि वह बीमार है.मगर आकार प्रकार में वह उस जैसे ही लगती थी.पता नहीं क्यों उस पर से दृष्टि हट नहीं रही थी.
भीड़ भरी गलीनुमा सड़क पर जिसके दोनों तरफ बेतरतीब दुकाने थी.उनकी चहल पहल थी.आदमिओं, औरतों, रिक्सा, ऑटो, टेम्पो और कभी गुजर जाने वाली होर्न बजती कारें की आवाजाही से बचते बचाते उसकी और मेरी गति भी धीमे हो रही थी.अब मैंने महसूस किया कि मेरी गति समान्य से कुछ अधिक थी.मै उसे पहचानने को उत्सुक कि वह वही है या फिर कोई और.जब हमारी दूरी कुछ फुट के फासले पर अटक गयी तो मुझे यह अहसास गहरा गया कि वह सृष्टि नहीं और मैंने अपनी दृष्टि उस पर से हटा ली और अपनी चाल बढ़ाने को सोची.
मै उसे क्रॉस करके आगे निकलने ही वाला कि उसकी आँखे अनायास ही मेरी ओर उठ आई,निरीह-खामोश.मै जाते जाते एक पल को ठिठक गया परन्तु उससे कुछ नहीं कहा.सिर्फ देखता रहा.
“लेखू,यहाँ… कहाँ..? कब आये?…”
वे ऑंखें अजीब या अजनबी नहीं थीं.अपने सम्बन्ध में सारे भेद खोल चुकी थीं.बल्कि उन्हें देखकर अपने भीतर से शर्मन्दगी की एक लहर उठी और सारे दिल दिमाग को झकझोरती चली गयी.वह सृष्टि को इतनी देर में पहचान पाया.
“अरे.सिरी..तुम..? कानपुर कब आई..?..और यह क्या हाल बना रखा है?..कहाँ से आ रही हो..?” मेरा अधीर मन उसके विषय में सब कुछ एक पल में जानने को आतुर हो उठा.
“खपरा मोहल से आ रही हूँ.”
“क्यों..?मुझे बेहद आश्चर्य हुआ.
“वहां दोसर वैश्य मोंटेसरी स्कूल में पढ़ाती हूँ.” उसने कुछ हिचकते हुए जवाब दिया.
जब मै उससे बात कर रहा था तो एक संदेह घर कर गया…कारण..?..पूना में क्यों नहीं..?वह बिना पलकें झपकाएं मेरे चेहरे पर अपनी आँखें टिकाएं मेरे प्रश्न को तलाश रही थी. आँखें मेरी भी उसी पर स्थिर थीं परन्तु कई तरह के संदेहों और बिना मतलब के विचारों से ओतप्रोत.
“किसी रेस्ट्रा में बैठते है ? बहुत दिनों बाद मिले हैं वही बात करतें हैं?” मुझे जल्दी थी उसके विषय में सब कुछ तुरंत जान लेने की.
“नहीं..” बहुत कमजोरी से निकला शब्द, “देर हो रही है..घर में बच्चें इंतज़ार कर रहे होंगे..किसी के सहारे छोड़ कर आती हूँ..उनके अपने भी हैं..” फिर कुछ पल सोचकर बोली ,”ऐसा करते है घर चलते हैं.एक लंबे अरसे बाद मिले है.काफी विस्तार से बातें करनी हैं.” उसने तत्परता से कहा.
“सॉरी ! सिरी, अभी नहीं चल पाउँगा.वाइफ इंतज़ार कर रही होगीं.तयशुदा कार्यक्रम के अंतर्गत उसे लेकर उसके घर जाना है,यशोदा नगर.वहां लंच फिक्स्ड है.
“तब..?” सिरी स्नेह भरे उलाहने से उसे देखने लगी.
“फिर कभी.” उसे मना करते हुए अफ़सोस हो रहा था.
इस दौरान हम दोनों चुपचाप सरकते हुए सड़क से हटकर एक किनारे खड़े हो गए थें.मै उससे एक जबदस्त नाराजगी भरे शब्दों की उम्मीद कर रहा था. परन्तु उसने कुछ नही कहा.आँखें जैसे चुपचाप उठी थीं वैसे ही चुपचाप झुक गयीं.वे निरीह खामोश आँखें उसके आसपास भटकती रहीं और उसके फिर- कभी प्रश्न के उत्तर को तलाशती रहीं.
हम दोनों चुप खड़े थे.हम दोनों मानों एक दुसरे को टटोल रहे थे.यह संभवतः पहला मौका था जब हम दोनों मिले हो और कुछ देर साथ न गुजारें हो.फिर बिना एक दुसरे से कुछ कहे हम अपनी अपनी दिशा में बढ़ चले थे, भारी और बोझिल कदमों से.

उससे मिलने की खुसी थी तो उसकी हालत देखकर दुःख था.एक तनाव था.उससे मुलाकात की अपूर्णता का जो मुझ पर छाई थी.मुझे तो यही पता था कि वह खुशहाल शादी शुदा जिंदगी गुजार रही है.उसकी अरेंज मैरिज थी.चंद वर्षों में यह मुकाम कैसे आ गया कि वह सब कुछ छोड़ कर स्थायी रूप से यहाँ कानपुर रहने चली आई.वह क्या कारण रहे होगे? जिनकी वजह वह, वह नहीं है जो कभी हुआ करती थी.
क्या उसका डिवोर्स हो गया है?या फिर गौतम नहीं रहे है?मेरा ध्यान बरबस उसकी स्थिति की ओर आकर्षित हो गया था.मुझे उसकी परिस्थिति काफी भयावह जान पड़ी.क्योकि उसके भावहीन और निष्प्रभ चेहरे से कुछ भी ज्ञात नहीं हो पा रहा था.वह एक निर्जीव छाया मात्र लगी थी.
हम केवल अनुमान लगा सकते थे. किसी के साथ क्या हुआ होगा ? परन्तु अनुमान सदैव पूर्व धारणा पर आधारित होते है और स्थितिया भिन्न भी हो सकती है.इसलिए किसी के विषय में सोचना हमें सही निष्कर्षो की ओर नहीं ले जाता है.बल्कि अनुमान के विपरीत कभी कभी काफी उल्ट भी होता है.जाहिर है अनुमान के सहारे वास्तविक स्थिति पर नहीं पंहुचा जा सकता है.मैंने आग्रह किया था के कुछ देर रुककर उससे खुलकर बात हो सके.परन्तु निःसंदेह उसे जल्दी रही होगी वरना सिरी कभी उसके साथ सुख दुःख शेयर करने में परहेज नहीं करती.
मै उसके घर चलकर किसी विषय में बातचीत नहीं करना चाहता था. उसके विषय में तो बिलकुल नहीं. संभवतः वह घर में उतना खुलकर बोल भी नहीं सकती थी.अपने विषय में तो बिलकुल भी नहीं.वे खामोश और तटस्थ नहीं रह सकते थे और उनका हस्तक्षेप सही निष्कर्ष तक पहुचने में दुष्कर होता.
वैसे भी उसके विवाह के बाद उसके घर बिना अपनी पत्नी के साथ जाने का अनुभव बड़ा अपमानजनक रहा था और वह भी सिरी की उपस्थिति में.मेरे मन मस्तिष्क उस वाकया की छाप अभी तक वैसे ही अंकित थी.
सिरी आई हुए थी और उसने मिलने को बुलाया था.वह पहले की तरह पहुँच गया. मैंने घर पहुँच कर धीरे धीरे दव्राजा खटखटाया.मैंने सिरी को आवाज भी दी.भीतर से कुछ अस्पष्ट आवाजे भी सुनाई दीं.परन्तु फिर शांत हो गया.मैंने प्रक्रिया फिर दोहराई.कुछ देर बाद ऐसा लगा कोई चला किवाड़ खोलने के लिए.आने की आहट सुनकर मेरा तनाव ढीला पड़ा.
“कहिये..?” उसका छोटा भाई वरुण था.उसके स्वर में झुंझलाहट थी.वह पूरा दरवाजा छेके खड़ा था जैसे कि मै कोई अजनबी होऊ और जबरदस्ती घुसने की कोशिश करूँगा.उसी के पीछे उसकी पत्नी साइड में खड़ी थी,व्यंग्यात्मक भाव भंगिमा के साथ.
“सृष्टि..है..?..उसने…” वाक्य अधूरा सहमा ठिठका खड़ा रह गया था.उन दोनों की मुखमुद्रा स्वागत के सर्वथा विपरीत थी.
हम काफी दिन बाद मिलने वाले थे. कदाचित दो तीन साल बाद.इस बीच मेरा विवाह हो गया था और वरुण का भी.सिरी मेरी शादी में नहीं आ पाई थी और वरुण की शादी मै बुलाया ही नहीं गया था.हम अपने में काफी व्यस्त भी हो गए थे.परन्तु कभी कभार कानपुर आने पर यदि हम दोनों है,वह मिलने को बुला लिया करती थी.सौरभ तो विरक्त हो चुका था और विशाखा विकास से सम्पर्क नहीं रहा था.
“देखिये.! उससे आप अकेले नहीं मिल सकते.अब तो आप की शादी हो गयी है.अगर मिलना है तो अपनी पत्नी सहित आईये.” उसकी आवाज में तेजी और तुर्शी थी.
“लेकिन..” मै हकला गया था.मुझे यह बड़ा अजीब सा लगा था.यह व्यवहार काफी चुभ रहा था.
“लेकिन…वेकिन कुछ नहीं…जाईये…” और हठात उसने दरवाजा पटक कर बंद कर लिया.मै कुछ देर स्तब्ध खड़ा रह गया. संज्ञाशुन्य.मुझे विश्वास था कि सिरी और मम्मी-पापा होंगे?फिर उन्होंने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया?क्या वे इस योग्य नहीं रहे है? किन्तु सिरी ने तो खुद उसे बुलाया था.
मै अपमानित महसूस कर रहा था.अपनी न मिल पाने की खिसियाहट तारी थी.एक जिद उठ रही थी कि मिलना है.अपनी खिसियाहट मिटाने हेतु मै उसी दिन शाम को चारू को लेकर सिरी के घर पहुँच गया.हांलाकि वह जाने के लिए काफी आनाकानी कर रही थी.उसका कहना था, “अपने दोस्त के घर मिलने जा रहे हो मेरी क्या जरुरत है”. किसी तरह से उसे चलने के लिए मनाया था.वह अनमनी सी चल दी थी.
सिरी के घर का माहौल काफी बदल गया था.पापा का देहांत हो गया था.मम्मी असक्त और असहाय लगी.अपने पुर्ववत शासकीय व्यक्तित्व के विपरीत शासित होने के बोझ तले, निर्बल आधार के अनुरूप मौन ओढ़े निरुपाय थीं.सिरी आतंकित और सहमी थी.वरुण गौरान्वित था ऐसा लगता था वह बहुत दिनों से ऐसा ही करने की सोच रखा था जो आज सार्थक हुआ था.हांलाकि उसे भी ताज्जुब हुआ था,जब मै अपनी पत्नी के साथ आया था..उसकी पत्नी अपनी असफलता छिपाने हेतु पैर पटकते उसे दूसरे कमरे में चली गयी थी. उम्मीद के विपरीत सिरी को आक्षेपित का मौका निकल गया था.
वातावरण और व्यवहार काफी औपचारिक हो गया था.वार्तालाप में खुलेपन का अभाव था,जिसका मै अभ्यस्त था. ऐसा लगा कि अजनबियों के बीच फस गया हूँ.सिरी बीमार लगी.जबकि वह थी नहीं.चारू अजीब और अटपटी सी परिस्थिति में घिर गयी थी.मेरा मन वहां से निकलने को अधीर हो रहा था और ऐसा ही चारु का लगा.हम दोनों जल्दी ही सिरी के घर से विदा हो आये थे, नहीं वरुण के घर से.
उसके ख्यालों में खोया मै कब अपने घर आ गया था पता ही न चला.
चारू ने हुलसकर स्वागत किया उसे अपने घर जाने की जल्दी काफी उछाह मार रही थी.उसने मेरे चेहरे पर छाई निस्तब्धता और नीरसता को मार्क नहीं किया,वरना वह बड़ी जल्दी भांप जाती है और फिर पीछे पड़ जाती है, कारण जानने की,और जान कर ही दम लेती है.
उस दिन के बाद मैंने आज तक उसके घर कदम नहीं रखा था.बल्कि यो कहना ज्यादा उचित है कि हम दोनों का सम्बन्ध समाप्त प्राय: हो गए थे.वर्षो बाद आज अचानक मुलाकात ने और वह भी इस रूप ने काफी व्यथित और असमंजस में डाल दिया था.मै अनिर्णय की स्थिति में था कि यदि वह अपने घर बुलाती है तो जाऊँगा कि नहीं? पता नही मै कभी यह जान पाउँगा कि नहीं उसके आमंत्रण के सामने मै अपने को क्यों बेबस पाता हूँ?
ऍम.बी.ए. में हम पांच का ग्रुप था.सृष्टि,विशाखा,सौरभ,विकास और मै.ज्यादातर हम साथ रहते, मिलते, दिखते और पढ़ते थे.एक बात और सृष्टि और शौरभ का विशाखा और विकास का आपस में अफेयर्स था.मै नितांत अकेला था परन्तु सबके लपेटे में था.सभी अपनी नितांत निजी बातें मुझसे शेयर कर लिया करते थे.सबका कॉमन फ्रेंड था परन्तु लवर किसी का नहीं.
सृष्टि,सिरी का घर मेरे घर से आधा किलोमीटर की दूरी पर था.एक बार वह घर आई थी और मुझे मांग कर अपने घर ले गयी थी सामूहिक अध्ययन के करने के के कारण. अपने घर वालों की सहमति से.तब से उसके घर जाना यदा कदा हो जाता था.कभी सिरी के बुलाने से कभी अपने मन से परन्तु उसके घर वालों ने कभी भी मेरे आने पर नाखुशी जाहिर नहीं की थी.वह भी कभी कभार आ जाती थी परन्तु बहुत सीमित समय हेतु.
यूनिवर्सिटी कैंटीन में हम अक्सर मिल जाते थे या लाइब्रेरी में.जहाँ भी हो हम अक्सर हम पांच हो जाने की अकुलाहट से घिरे रहते थे. गाहे-बघाहे अपने उद्धेश्य में सफल रहते थे.फिर धूम धड़ाका हंसी मजाक और एक दुसरे की खिचाई में मशगूल हो जाते थे,जब पांचो एक साथ जमते थे.वे जोड़े में रहते थे और क्लास भी बंक कर दिया करते थे.मुझे याद है मै किसी का क्लास मिस नहीं करता था.खाली पीरियड में अकेला बिचरता था,कभी कैंटीन में कभी लाइब्रेरी में.ज्यादातर लाइब्रेरी में.जो भी अकेला पड़ जाता वह मुझे इन दो जगहों में तलाश कर लिया करता था.
उस दिन भी ऐसा था.यूनिवर्सिटी कैंटीन में सिरी और शौरभ बैठे थे.मै उन्हें दरकिनार करते हुए लाइब्रेरी की तरफ जा रहा था. सिरी ने लाइब्रेरी में जाते हुए देख लिया.सिरी ने शौरभ को कोंचा और मुझे बुलाने को इशारा किया.उसने दूर से हेल्लो कहा कुछ अतिरिक्त तेज आवाज से.मैंने हवा में हाथ हिलाया और आगे बढ़ चला परन्तु उनके पास जाना ही पड़ा.
“अरे..! सिरी तुम यहाँ हो? मैंने सोचा था लाइब्रेरी में..” मैंने अनजान बनने की कोशिश की.
“क्यों? तुम्हारी तरह लेखक बनना है क्या ?” शौरभ ने कुछ कुछ मजाक उड़ाने वाले ढंग से कहा.
“ऐ..! मुझे नहीं पता था.कभी बताया ही नहीं.उसने मेरी तरफ देखा अपलक.मानो मै अजनबी हूँ और वह मुझे पहली बार देख रही हो.
इसी बीच विशाखा और विकास आ गए थे.उन्हें भी ताज्जुब हुआ था.वे भी कुर्सी खींच कर बैठ गए..ग्रुप का कोरम पूरा हो गया था.
“मुझे भी कहाँ बताया था.वह तो एक बार इसके हाथ में एक मैगज़ीन थी उसे लेकर उलटने पलटने लगा तो एक कहानी में इसका नाम छपा देख कर मैंने जिद करके पूछा तो यह राज उगल दिया.” शौरभ ने पूरी सफाई पेश की.
“और ये तुम सदैव कुरता पैजामा क्यों पहने रहते हो? गरीब हो? अफोर्ड नहीं कर सकते?” विशाखा ने टोका.
“भइये,कम्युनिष्ट है.इस लिए यह भेष धरा है.” विकास ने इतनी जोर से कम्युनिष्ट कहा कि आस पास बैठे सभी उसकी तरफ देखने लगे.
“नहीं…ही..” सभी एक साथ चीखे.जैसे कम्युनिष्ट होना अपराध हो.
“यह कैसे कह सकते हो?” सिरी ने शंका जाहिर की.
‘मैंने इसे एक बार एल्गिन मिल के फाटक के सामने मजदूरों की हड़ताल के समर्थन में भाषण करते देखा था.”
“यार,लेखू तो बड़ा धीर, गंभीर और चुप्पा किस्म का इन्सान है.यह बोल तो पाता नहीं भाषण क्या देता होगा?” विशाखा ने मेरा बचाव किया.
“घर वालों को पता है कि यह क्या गुल खिला रहा है?” शौरभ ने ताना मारा.
“शायद क्या,निश्चय ही नहीं मालूम होगा? मै बताउंगी.” सिरी ने हामी भरी.
मै कुछ कहना चाहता था लेकिन चुप रह जाता हूँ.क्योकि मुझे मालूम है कि मै जो कहूँगा वह इन लोगो के लिए बेहद नीरस, उंबाहू और निरर्थक होगा.परन्तु मेरे चेहरें में पता नहीं ऐसा क्या था कि सिरी ने घर में यह बात बताने का इरादा स्थगित कर दिया था.
“लेखू ,तू कही अपना अफेयर्स क्यों नहीं चला लेता.? ये सब चोचले ख़त्म हो जायेगे. विकास ने कुछ इस ढंग से कहा कि सब हँस पड़े. और मै झेप गया था.
‘इसमें आशिक,प्रेमी वाला रुझान तो है नहीं ,अफेयर क्या खाक चलायेगा?” विशाखा ने मुस्कराते हुए कहा.
“लेखू में भाईपने का अहसास ज्यादा है.” सिरी ने अपनी तरफ से यह कमेंट और पास कर दिया.
एक बार हंसी का और दौर चला.फिर थम गया,जब शौरभ ने मुझसे मुखातिब होकर कहा,
“इस विषय में आपकी क्या राय है ,श्रीमान लेखराज साहेब?
“जब कहने के लिए कुछ महत्वपूर्ण न हो, तब तक कुछ कहना आवश्यक नहीं है.” मैंने यह कुछ हिचकते हुए कहा.मै खामखाह हंसा मेरे साथ सब हँस पड़े.

यह त्योहार के बाद के दिन थे.चारू और उसके घर वाले अपने पास बुला रहे थे.चारू अपने घर में थी.अक्सर मै अपनी ससुराल में कम ही रुकता हूँ.मेरे वहां रहने से चारू मुझसे बंध सी जाती.मगर मै चाहता हूँ कि वह अपने घर कम से कम कुछ दिनों तो वह वैसा रह सके जैसा वह विवाह पूर्व रहा करती थी.किन्तु ऐसा कहाँ हो पाता है?वह वहां रहकर भी मेरे विषय में चिंतित रहा करती है.” कैसे हो ? ठीक हो न?.बोर तो नहीं हो रहे हो? यहाँ आ जाओं ?” मेरा आश्वासन उसे नाकाफी लगता है, ‘अरे,अपने घर में हूँ’..हाँलाकि इतने सालों बाद घर वैसा नहीं रहता है जैसा उसे छोड़कर गए थे..’दोस्त यार हैं.’ यद्दपि अब अधिकांश मेरे ही तरह बाहर है.जिनसे मिलना संभव नहीं हो पाता है..त्यौहार आदि में भी.कभी आते है तो शीघ्र वापस हो जाते है..अब सिरी से भी कहाँ पिछले पांच-छै वर्ष मिल पाया था…उस दिन मिले भी तो जैसे एक झलक, इतने बदले स्वरूप में और बेतुके ढंग से.
शाम हो आई थी और चारू अभी तक नहीं आई थी.उसने आज सुबह ही फ़ोन करके कहा था कि आज अगर नहीं आ पाए तो मै शाम को अपने आप आ जाउंगी.आखिर अकेले मन कैसे लग रहा है तुम्हारा? मै तो यहाँ बोर हो गयी हूँ. अकेले में मन घूम कर फिर सिरी पर अटक जाता.ऐसे में घर से बाहर जाने का मन भी नहीं कर रहा था.
मै छत पर निकल आया.हलकी सी ठंडी हवा चल रही थी.छत की मुंडेर के एक कोने में खड़े होकर मै नीचे झांकता हूँ.अँधेरा धीरे धीरे बढ़ता है.ऐसा लगता है कि अँधेरे की भंवर नीचे से उपर की ओर आ रही है.वह भंवर उसे लील जाएँगी.सहसा अँधेरे की भंवर से सृष्टि और शौरभ की आकृतियों ने उसे अपने तरफ खीचना शुरू कर दिया.बांया हाथ सिरी ने कस कर पकड़ रखा था और दांया हाथ दोस्त की गिरफ्त में था.दोनों अपनी तरफ जोर आजमाईस कर रहे थे जैसे कि रस्सी खींच प्रतियोगिता चल रही हो.मै उन दिनों में चला गया था.
यह उन दिनों का वाकया था जब सृष्टि की शादी गौतम से तय हो गयी थी.सिरी ने सबसे पहले मुझे कैंपस लॉन में बुलाया था यह बताने के लिए. शायद उसके मन के किसी कोने में यह जरुर रहा होगा कि मै शौरभ के भीतर उठने वाले संभावित ज्वालामुखी को शांत कर पाउँगा.
मैंने कॉल करके शौर को बुलाया.उस यह देख कर काफी ताज्जुब हुआ कि सिरी उससे मिलने के लिए लेखू माध्यम का उपयोग कर रही है.मैंने उसे सिरी की सगाई के विषय में बहुत ही अहिस्ता से बतलाया था.सुनते ही वह बमक पड़ा,
“वाह.. भाई.. वाह..! है न अजीब बात ? प्रेम हमारे बीच है और मेरे जीवन मरण की जानकारी लेखक के माध्यम से.विचित्र किन्तु सत्य.” उसने जानबूझकर मुझे लेखू की जगह लेखक शब्द का प्रयोग किया था.लेखक और लेखू में काफी बड़ा फासला था.सिरी ने चौककर उसकी तरफ देखा और कहा,
“इसमे विचित्र क्या है?शौर,लेखू दोस्त के साथ हि साथ हमारा पडोसी भी है.फिर कौन दो चार दिन हो गएँ है? अभी अभी तो बताया है.फिर तुमसे छुपाया तो नही जा रहा है.” फिर,उसने धीरे से अपने को मोड़ लिया.
“ जब सगाई कर ली तब सूचना देने का क्या तुक है?शादी कर लेने के बाद बताती.इतनी जल्दी बताने की क्या जरुरत थी.?”
सिरी ने कोई जवाब नहीं दिया.शायद उसके पास जवाब था भी नहीं.उसने शौर की तरफ से दृष्टि के साथ ही साथ अपना सिर भी मोड़ लिया था.कुछ पल के लिए ख़ामोशी पूरी तरह पसर गयी थी.मगर अंदर सभी उद्देलित थें.
“यह तुम कैसे कर सकती हो?प्यार हमसे और शादी किसी और से?अविश्वनीय है यह.मै तो यह कल्पना भी नहीं कर सकता था.जो तुमने कर डाला है.” शौर फट पड़ा था.
“जरुरी नहीं है कि जिससे प्यार हो उसी से शादी भी हो.” सिरी ने हलके से प्रतिवाद किया.
‘प्यार की अंतिम परिणित विवाह ही है, तभी प्यार की सफ़लता है.”
“प्यार तो किसी से भी हो सकता है परन्तु विवाह के लिए बहुत कुछ सोचना समझना पड़ता है.”
“क्यों..क्यों..आखिर क्यों..?”
“प्यार दिल से किया जाता है और विवाह दिमाग से.” यह कहते हुए उसकी आँखे भींग गयी थीं.
“शादी मुझसे करने में क्या दिक्कत है?क्या कमी है मुझमे?’
सौरभ क्रोधाविष्ट था.उसकी आवाज में अनावश्यक तेजी आ गयी थी.आवाज लॉन से बाहर निकलने लगी थी.लॉन से दूर बजरी पर गुजरते हुए स्टूडेंट उसकी तरफ देखने लगे थे.सृष्टि की आंखे पूरी तरह भर आई थी. अपनी आँखे छिपाने के लिए दूर कही यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग की ओर निहारने लगी थी.जैसे वह वहां से दूर दूर चली गयी हो.मै प्यार के वाद-विवाद प्रतियोगिता का दर्शक,श्रोता,निर्णयकर्ता और दोनों तरफ का वकील दम साधे जो बोलता था उसकी तरफ अपको केन्द्रित कर लेता था और अपने आप उसी तरफ सिर घूम जाता था.
“मुझे उत्तर चाहिए.” शौरभ उसके मौन से आजिज आ गया था.
“कोई कमी नहीं,अपितु सबसे सुयोग्य.परन्तु मुझे यह समझ नहीं आया कि मै कैसे तुम्हारे विषय में अपने पिता से बात करती ?”
“जैसे औरों से करती हो?”
“नहीं नहीं..नहीं कर पाऊँगी.इसलिए सगाई भी अनुच्छुकता के वावजूद होकर कर ली और अब शादी के लिए भी मना नहीं कर पाऊँगी.?”
“ मै बात करूँ?”
“नहीं..एकदम नही..कभी नहीं.” शौर हतप्रभ उसे देखता रह गया.
“उनके लिए शादी से पहले प्यार नहीं, वासना होती है..उनके लिए यह अकल्पनीय अविश्वनीय है.. उनकी बेटी…शादी से पहले….छि.. छि..वह मर जायेंगे..और मै भी.. पापा को इतना दुःख नहीं दे सकती.”
“लेखू की हेल्प ले सकते है?”
मेरा नाम आते ही मै चिंहुक उठा.आश्चर्य चकित सा मै डर से घिर गया.इस तरह के कामों में अपने को सदैव अनर्प्रयुक्त पाता हूँ.मै कहना चाहता था कि मुझे तो माफ़ करियेगा.मगर मेरे भीतर कही से पत्थर सी जड़ता उभर आई थी.सिरी भययुक्त आँखों से मुझे देख रही थी कि कही मै राजी तो नहीं हो रहा हूँ.मेरे दिल में एक आकुलता भर गयी थी, कही मै लपेटे में न आ जाऊ.मैंने सोच लिया था कि आज के बाद मै कुछ दिनों के लिए शहर छोड़ दूंगा जब तक सारा मामला निपट न जायेंगा.
“कदाचित, नहीं.” उसका स्वर काफी हल्का और कमजोर सा था.सिरी का प्रतिरोध दम तोड़ता नज़र आ रहा था.मेरे नाम आने से उसमे एक असहाय सी कमजोरी महसूस होने लगी थी.वह बेबस नज़रों मुझे परख रही थी.
“बताईये..?” शौरभ का आग्रह बरक़रार था.
“पागल मत बनो.बात तो वही हुई न ? यह प्रस्ताव मै कहू, तुम कहो या लेखू क्या फर्क पड़ता है?अपमानित,लज्जित और लांछित तो मै ही होउंगी..और अंततः मना तो होनी ही है..हमारे घर के कठोर ताकियानुशी घेरे को तोड़ना असंभव है..फिर सगाई का कार्यक्रम संपन्न हो चुका है…अब भी बदलाव की आकांक्षा रखना मुर्खता के सिवाय कुछ भी नहीं है.” उसे यह बात कहते हुए कुछ भी असमंजस नहीं था.
“तुम क्यों कुछ नही बोलते ?घुघु-बसंत बने बैठे हो.” शौर मेरे से चिढ़कर बोला.मै चुपचाप उसकी ओर देखता रहा, और फिर सिरी की तरफ देखा.शौर ने मेरे इस प्रकरण से अलग थलग रहने पर मर्मान्तक प्रहार किया था. मैंने फिर सिरी की तरफ देखा.उसकी आँखों में एक भयानक सूखापन उतर आया था.मानो कह रही हो-नहीं..नहीं..तुम तो हरगिज नहीं.
“मुझे तो माफ़ करियेगा…” यह इतना निम्न स्वर था कि किसी के पल्ले नहीं पड़ा. मेरे समझ से परे था कि आगे क्या कहें.उन दोनों के चेहरे में ऐसी दीनता उतर आई थी कि मुझे विचित्र सी उलझन और घबराहट होने लगी.
उस दिन हम सभी देर से घर पहुंचे थे.रात जब मै सोने के लिए गया था तो नीद नहीं थी. ऐसा लगता था की एक भारी बोझ दिल में आ बैठा है.रात भर ऐसा सोचता रहा कि मै क्या कर सकता हूँ?..और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचता रहा कि मै इस प्रकरण को हल करने में नाकाफी हूँ.यह जानते हुए भी कि उन दोनों की दुनिया उजड़ी है और मेरी भूमिका सवांरने की उपयोगिता सवालों और संदिग्धता की श्रेणी में आ गयी है.
मुझे अच्छी तरह याद है उस दिन के बाद जब भी सौरभ या सृष्टि मिलते थे तो मै एक अजीब से भय से घिर जाता था.मुझे लगता कि कही शौर मुझे सिरी के घर जाने के लिए राजी न कर ले,जहाँ मेरी फजीहत होना लाजिमी थी.हाँलाकि वह अक्सर मुझे बड़ी अनुनय, विनय और नाराजगी से मनाने करर पुरजोर कोशिश करता रहता, परन्तु मै अपने बचने के कोई न कोई बहाने ईजाद कर ही लिया करता था.कमोवेश रोज ही वह मिलता और अपना सन्देश सृष्टि के घर तक पहूँचाने मेरी मदद की याचना करता और कहता उसका प्यार पाने मै उसकी मदद करूँ.परन्तु हर बार मै अपनी असमर्थता और नाकारापन व्यक्त करते हुए किनारा कर लिया करता था.मै अच्छी तरह जानता था कि सिरी के घर में अच्छी तरह घसीट लिया जाऊंगा कि मैंने उन्हें पहले से ही क्यों नहीं आगाह किया था. अतीत में गुजरे संबंधो में एक विस्तुत रिपोर्ट तलब की जाएँगी.और मेरा दायित्व फिक्स किया जायेगा.
सिरी से मिलने पर जब भी उसका मुरझाया चेहरा देखता तो अपने को कोसने लगता था. जैसे की अपराधी मै ही हूँ. यह संशय हर समय लिप्त ही रहता था कि कही सिरी मेरे मध्यस्थ रोल के लिए सहमत न हो जाएँ.वह गुमसुम रहती थी.अब वे दोनों एक साथ नहीं मिलते थे.सिरी का भी मै अकेलेपन का साथी था और शौर का भी.विकास और विशाखा वैसे ही एक जुट विचरण कर रहे थे.उन्होंने घोषित कर दिया था वे किसी भी दबाव में नहीं आएंगे और आपस में शादी करके ही रहेगे.उन्हें कोई जुदा नहीं कर सकता.उनके इस इरादे ने सिरी की हालत और नाजुक कर दी थी और वह बुरी तरह अलग पड़ गयी थी.हाँ,अलबत्ता हम पांच जरुर एक साथ हो जाया करते थे उसमे कोई व्यवधान नहीं आया था.
मोबाइल बज रहा था और मै अपने ख्वाबों ख्यालों में बेजार था.जब वह बज बज कर थकने ही वाला था कि मेरा ध्यान उस तरफ गया.मैंने बड़े अनमने और सुस्त ढंग से उसे देखा.सृष्टि का नाम चमक रहा था.गनीमत रही कि उसके बंद होने से पहले ही मै कॉल स्वीकार कर चुका था.
“कहाँ हो? अभी कानपुर में ही हो या दिल्ली लौट गए?” उसने दबे शब्दों में पूछा.
“नहीं अभी यही हूँ.एक दो दिन बाद जाना है.कहिये?” मेरे बेफिक्र अंदाज को उसने नोटिस किया.
“घर नहीं आये.?मै इंतजार कर रही थी.” उसकी आवाज में निराशा थी.
“अच्छा…!” उसने मेरे स्वर में छिपे व्यंग्य को पकड़ लिया था.
“अभी मिलने आ सकते हो ?” उसने बिना किसी प्रत्याशा से कहा.
“कहाँ..?” मैंने शंकित स्वर में जवाब दिया.
“ यही..मेरे स्कूल में.” मुझे हलकी सी खुसी हुई कि उसने अपने घर नहीं बुलाया था.यह बहुत छोटा फैसला था जिसमे अस्वीकार करने की संभावना नहीं थी.
स्कूल के गेट पर वह मेरा इंतज़ार कर रही थी.कुछ ज्यादा समय नहीं बीता होगा कि मै आ गया था.प्रतीक्षारत वह कुछ अनमनी सी दिखी जैसे कि उसने मुझे बुलाकर सही किया कि नहीं? आज स्कूल का हाफ डे था.कदाचित वह सोच रही होगी मुझे बुलाने,बताने का कोई औचित्य है भी या नहीं? वह शायद मान कर चल रही थी कि मुझे उसके विषय में सब कुछ पता है.जबकि मै पूरी तरह से उसकी बदली स्थिति को लेकर अनजान था.
“अब चलो भी.यही खड़े रहोगे?” उसने कुछ खीजकर कहा.उसे वहां खड़े रहना नागवार गुजर रहा था.
“कहाँ..?” मै उसके बोल से चकित था.
“यही कहीं,पास में किसी रेस्ट्रा अदि में जैसा तुम चाहते थे.” उसके स्वर में व्यंग्य की हलकी मात्त्रा विद्यमान थी.
मुझे कुछ अजीब सा लगा.मैंने कब ऐसा चाहा था? हाँ, उस दिन जरुर भीड़ वाली सड़क पर खड़े होकर अपने विषय में व्योरेवार चर्चा करना जरुर अटपटा लग रहा था.उसके घर न जाने की कसक अभी तक वह फील कर रही थी.
हम पास के रेस्ट्रा में बैठे थे.वह एकदम चलताऊ टाइप था.संभवता वहां कोई महिला पहले कभी न आई हो.मालिक और उसके दो कारिंदे हम पर निगाह रखे थे,कि हम कौन हैं? हम किसी और रेस्ट्रा को ढूढने का जोखिम नहीं ले सकते थे क्योकि सिरी को घर जाने की जल्दी आज भी थी.जैसा उसने कहा था.
हम चुपचाप बैठे थे.एक दुसरे के बोलने का इंतज़ार कर रहे थे.इधर उधर,सड़क रेस्त्रा,आदमी,मालिक और लड़के को देख रहे थे.वे हमारे आर्डर का इंतज़ार कर रहे थे.मैंने गर्म नाश्ते का आर्डर दिया जिसमे देर लगने की बहुत सम्भावना थी.बाद में चाय.सिरी ने चौककर मेरी ओर देखा परन्तु उसने कुछ नहीं कहा.
“मुझे बहुत ताज्जुब हुआ था उस दिन तुम्हे देखकर.एक बार तो मै तुम्हे पहचान भी नहीं पाया था.यह सब कैसे हो गया? क्या बात है?इतना विकट परिवर्तन?” आखिर मौन को भंग मुझे ही करना पड़ा.उसने अपने आहत अहम् को दरकिनार रखते हुए मेरी तरफ देखा.उन आँखों में पीड़ाजनक ख़ामोशी थी.वह जानती थी मै सब यही पूछने के लिए उत्सुक हूँ और मुझे बताकर ही शायद वह अपनी पीड़ा को कुछ राहत दे पायेगी या शायद कोई उपचार भी.
उसने बहुत धीरे मध्यम स्वर में बोलना शुरू किया.उसका सिर झुका हुआ था और स्वर काफी धीमा था कि बामुश्किल मुझे सुनाई पड़ा.परन्तु उसकी आवाज स्पष्ट और साफ थी,-
“-गौतम को कभी मुझसे प्यार नहीं हो पाया.और न वह मेंरे प्यार पे विश्वास करते थे.ऐसा लगता था की मै उनका प्यार नहीं हूँ.न ही मै उनकी पसंद में आती हूँ.जैसा मैंने इन छै सालों में महसूस किया था.मै सब कुछ भूल कर उनसे प्यार और उन्हें पसंद करने लगी थी. उनकी हर इच्छा को अपनी इच्छा बना लिया था.परन्तु उन्हें मेरे प्यार पर विश्वास नहीं था. पति प्रेमी के सारे अधिकार वह न जताना छोड़ते थे न लेना.उन्हें पत्नी या प्रेमिका के अधिकारों का कोई ख्याल नहीं था.वे सिर्फ लेना जानते थे देना कुछ नहीं.उन्होंने मेरे हिस्से का कुछ भी नहीं दिया…”
सिरी कुछ देर या कुछ पल रुकी .उसकी आंसू भरी पलकों ने ऊपर ताका.जैसे कुछ ढूढ रही हो.या कुछ कहने के लिए तलाश रही हो.मेरी दृष्टि उस पर जमी थी.उसका एक एक लमहा, एक एक शब्द,बहुत मुश्किल से निकल रहा था.वह बेचैन और ब्यथित थी और मुझे अपने में समाने की कोशिश कर रही थी.
”जानते हो,मै वहां दिनभर सारे परिवार की परिचारिका थी और रात में उसके लिए गणिका.मै एक ऐसी वस्तु थी जो बिना मोल के थी बल्कि अपने साथ भरपूर धन भी लायी तथी..उसे मेरी देह चाहिए थी मेरा मन नहीं.पांच साल के अंदर उसने मुझे दो बच्चो की माँ बना दिया…मै आदर्श पत्नी,बहु,भाभी का रोल निभाते निभाते ढल गयी.” उसने फिर एक ऊसांस भरी और ढलक आयें आसुओं का चुपके अपने छोटे से रुमाल से किनारे अलग कर दिया..
”अब उसका मुझसे जी भर गया था.या मै पुरानी हो गयी थीं.जो भी हो..उसका दिल कही और आ गया था.शायद उसकी कोई पुरानी प्रेमिका थी जो अभी तक कुंवारी बैठी थी,उसके इंतज़ार में.या उसकी शादी नहीं हो पाई होंगी.जो भी हो..ऐसा लगता था कि मिस्टर उसी से शादी करना चाहते थे परन्तु गैर जाति धर्म होने की वजह से यह नहीं हो पाया.फिर शायद वह ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी.इस कारण घर वालों के दबाव में,मेरे में ज्यादा काबिलियत और पैसा देखकर उसे छोड़कर मुझे अंगीकार कर लिया था.” एक क्षण के लिए उसने साँस ली और मेरी तरफ देखा कि मै सुन रहा हूँ कि नहीं? आश्वस्त हो जाने पर उसने कहा,‘’पहले बाहर संपर्क चलता रहा,वह प्रेमिका-प्रेयसी और मै पत्नी दोनों उसके पास थे…फिर एक दिन जब उसे घर में लाकर स्थापित कर दिया तो मेरी स्थिति अब सिर्फ परिचारिका की ही रह गयी थी.इस परिस्थिति में मेरा उसका घर छोड़कर आने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था.”
“यूँही सब सहन करती चली गयी.कोई प्रतिरोध नहीं किया.तुम तो ऐसी न थीं.कॉलेज के दिनों में काफी दबंग थी.
“क्यों नहीं? प्रतिरोध का दंड भी काफी भोगा है.नित्य मारपीट कभी एकल कभी सामूहिक..एक बार तो उसकी प्रेमिका कम पत्नी ने भी सहयोग किया.झेलते झेलते मर गयी थी..” वह एक असहाय सी कमजोरी महसूस करने लगी थी. उन दिनों को स्मिरित करना जो कि विस्मित ही न हुए हो कम यंत्रणादायक नहीं था.उसके चेहरे पर गौतम के प्रति घृणा के भाव बुरी तरह प्रस्फुटित हो गए.
“तुम्हे,शुरू से कोई सर्विस पकड़ लेनी चाहिए थी.तब शायद दूसरी स्थिति होती.” मैंने बीते हुए दिन का सुझाव दिया जिसकी उस समय कोई सार्थकता नहीं थी.” उसने मुझे अविश्वनीय नज़रों से देखा कि क्या मै संजीदा हूँ?उसे उन परिस्थितियों,जगहों,मनुष्यों, हालातों और स्मृतिओं से रूबरू होना पड़ रहा था जिन्हें वह याद नहीं करना चाहती थी.
मैंने शुरू में ही कहा था.परन्तु उसने कहा कि “तुम्हे नौकरी की क्या जरुरत? मुझे इतने अच्छी सैलरी मिलती है कि अपना परिवार क्या मै दो-एक परिवार और चला सकता हूँ…मैंने देखा भी था,छोटे भाई की पढाई लिखाई,बहन की शादी अदि और माँ- बाप के इलाज आदि सब कुछ उसी पर निर्भर था.उसका विरोध करने का दुष्साहस किसी में नहीं था.सब उस पर आश्रित थे.वह एकमात्र कामकाजी था.वह मुझे भी अपना परजीवी ही रहने देना चाहता था.” यह कहते हुए उसके में काफी कडुवाहट भर गयी.
उसके कम शब्दों में अपने बीते दिनों वर्णन किया था. जैसे कोई मर्मान्तक कविता अपने पूरे लय के साथ मुझमे व्याप्त हो गयी हो. मै पूरी तरह हिल गया. उस समय कोई सलाह देना, कुछ सहायता करना सब कुछ बेमानी लगा था.उसके स्वाभिमान को बेहद चोट पहुँचती.तब वह बिफर सकती थी.मै उससे डरता रहा हूँ.बहुत लम्बे अरसे बाद उस समय घर,शहर,यूनिवर्सिटी और उनसे जुडी तमाम भूली बिसरी स्मृतियां मानस पटल पर क्रोंध गयी थीं.
चाय और खाने पीने का कुछ आ गया था.वह अनुच्छुक थी परन्तु उसने कोई आपत्ति नहीं की.
“तुमने डिवोर्स ले लिया? खाते हुए मैंने यह प्रश्न अचानक उछाल दिया.उसकी आँखे चुपचाप उठी,वैसे ही चुपचाप झुक गयी,एक…”नहीं”….के साथ.
“मै उसके अवैध संबंधो को क़ानूनी जामा नहीं पहनने दूंगी.” उसने गुजरा भत्ता न लेने का मुख्य कारण स्पष्ट कर दिया…फिर एक लम्बी क़ानूनी लड़ाई के लिए धन की आवश्यकता होती है.जिसकी सामर्थ मेरे पास नहीं है न ही वरुण के पास…न मै चाहती हूँ.” इस अस्थायी नौकरी जो अभी कुछ ही दिनों पूर्व हासिल हुई है, इससे उसका खर्चा भी कहाँ निकल पाता होगा? वह अच्छी तरह जानती है कि वह वरुण पर निर्भर है.मेरे भीतर सहानुभूति की एक जबरदस्त लहर उठी थी जो उस पर गिर रही थी.
“मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइयेगा मुझे करके प्रसन्नता होगी.” मेरे मुह से अनायस ही यह रटा रटाया वाकय निकला और उसे भीतर तक भेदता चला गया.
उसे मेरे कहे पर विचित्र सा संदेह होने लगा,क्या मै उसकी समस्या पर वास्तव में गंभीर हूँ?फिर मुझे लगा कि वह मुझे देख नहीं रही है सिर्फ उसकी ऑंखें मेरे चेहरे पर टिकी हुई है.वे आँखें मुझे टटोल रही थी. अंत में दबे शब्दों में इतना ही कहा,
”मै जानती हूँ कि तुम जरुर कुछ करते, यदि तुम कानपुर शहर में होते.इतनी दूर पराये शहर में रहकर क्या कर सकते हो?
एक लम्बा सन्नाटा हम दोनों के बीच आ गया था.दोनों अपनी अपनी दुनिया में खोये हुए थर..उसने एक लम्बी ऊसाँस भरी…”काश..! मैंने शौर की बात मान ली होती..?” मै चौकी चौकी निगाहों से उसे देखता हूँ.उसके दिलों दिमाग का वह हिस्सा अनावृत हो गया था जो कि वर्षो से ढका-छुपा पड़ा था.हम दोनों का ध्यान बरबस उस दिन की तरफ आकर्षित हो गया था जब शौर ने उसका हाथ माँगा था और उसने विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.
आज मै सोचता हूँ कि अगर मै उस समय एक प्रयास करता तो शायद परिस्थितियां अनुकूल भी हो सकती थी.तब शायद यह सब न होता? सृष्टि प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देख रही है. मुझे अक्सर हैरानी होती है कि मै निर्णय पहले ले लेता हूँ और सोचता बाद में हूँ.

वह अधमुंदी आखों से पानी के गिलास को घुमाते हुए कुछ अजीब ढंग से मुस्करा रही थी.वह मुस्कान मुझे काफी भयावह जान पड़ी.उसका चेहरा भावहीन और निष्प्रभ था.
“यह बहुत ही महत्वहीन और निरर्थक है कि शादी किस ढंग से हुए है,लव् मैरिज या अरेंज अंततः उसका निर्वहन किस ढंग से हुआ यह मायने रखता है.बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि शादी के बाद हम एक दुसरे को कितना समझ पाते है? कितना एक दुसरे पर विश्वास करते है? कितना एक दुसरे का ख्याल रखते हैं? हम कितना एक दुसरे को निभातें है? यही परिस्थितिया हैप्पी मैरिड लाइफ की आधारभूत संरचनाएं हैं.” मैंने धीरे धीरे अटकते हुए कहा. उसने मुझे एक नयी दृष्टि से देखा. जिसमे प्रसंसात्मक भाव उभर आये थे.
“हाँ,यह बात तो है….हमारे बाद विशाखा और विकास ने प्रेम विवाह किया था.किन्तु शादी के चंद महीनों के बाद ही उनमे कलह प्रारंभ हो गया था और अंतत: साल भीतर ही उनमे तलाक हो गया.अब अलग अलग रह रहे है.यार,लेखू बताओ.कौन स्त्री अपनी मर्जी से उस आदमी से विलग होगी जिसे उसने अतिशय प्रेम किया हो?” यह कहकर वह फिर मेरी प्रतिक्रिया हेतु ताकने लगी.
“निश्चय ही शादी दो अज्ञात ध्रुवों का मिलन है.उनमे पनपता सामजस्य और उभरता प्यार ही सफल वैवाहिक जीवन की कुंजी है.परस्पर प्रेम और विश्वास ही शादी के स्थायित्व की आधारशिला है.” मेरे इतना कहते ही वह हलके से मुस्करायी और बोली, “वास्तव में सच्चा या झुन्ठा प्रेम, विवाह के बाद ही पता चलता है.”
हम दोनों यह सोचकर विस्मित थे कि क्या हम यहाँ प्रेम विवाह के डिस्कशन के लिए इकठ्ठा हुए है?प्रेम और विवाह कि इतनी विस्तुत परिभाषा तो पहले हम लोग कतई नहीं जानते थे.हम यहाँ क्योकर मिले थे यह प्रश्न गौण हो गया था.
हम उठ गए थे फिर मिलने के लिए.परन्तु हम जानते थे कि अब कब मिलना हो पायेगा,यह समय के पर्त में छिपा है.मुझे कल ही निकलना था अपने कार्यस्थल दिल्ली के लिए.सिरी के अंतर्मन में संघर्ष था परन्तु चेहरे पर मुस्कराहट थी.शायद इस मुलाकात से उसे संतोष की अनुभूति हुई थी.उसकी आँखों की आत्मीयता सहसा घेर लेती है.
हम लोग सड़क के किनारे किनारे चलने लगे थे.
“हम साथ क्यों चल रहे है?’ उसके स्वर में भय से लिपटी वेचैनी थी.
“”साथ घर चलेगे तो क्या आपके लोग कुछ कहेंगे ?”
“नहीं,हम सदैव अलग अलग आते जाते रहे है.आज भी कुछ अलग नहीं होना चाहिए.”
जब घर पहुंचा काफी देर से चारू मेरा इंतज़ार कर रही थी.जब मै घर से निकला था तभी वह आ गयी थी.उसके पास आते ही उसने मुझे प्रश्नवाचक निगाहों से देखा.कहाँ थे,इतनी देर तक?उसे आये हुए काफी देर हो गयी थी.फिर उसने जिज्ञाषा भरी निगाहों मेरे चेहरे की तरफ देखा वहां कोई अतिरिक्त हर्ष,उमंग न पाकर एकाएक उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ.

-राजा सिंह
पता-एम.१२८५,सेक्टर-आई. एल.डी.ए.कॉलोनी,
कानपुर रोड,लखनऊ-२२६०१२
मोब-9415200724
इ-मेल..raja.singh1312@gmail.com

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