तजुर्बा आता है ठोकरें खाने से
बात कहाँ बनती है सफ़ेद बाल जाने आने से
तजुर्बा आता है ठोकरें खाने से…
किसी को यार ने छोड़ा, किसी को प्यार ने छोड़ा
कोई गधा ही बना रहा कोई बन गया घोड़ा
समझ आ गया कुछ नहीँ रखा किसी से दिल लगाने में
तजुर्बा आता है ठोकरें खाने से…
मैं रंग-रोगन करके अपनी झुर्रियां छुपाता रहा
लेकिन अंदर ही अंदर कोई मेरा नूर मुझसे चुराता रहा।
मैं बाहर से बहुत कुछ छुपा रहा था
लेकिन मैं अंदर से खोखला हुआ जा रहा था।
इस दौरान कोई ज़िन्दगी में आ रहा था कोई जा रहा था।
मैं जवानी हूँ या बुढ़ापा, समझ नहीँ आ रहा था।
जवानी का पता लगता है सीना ताने पे
बुढ़ापे का पता लगता है साँस फूल जाने पे
तजुर्बा आता है ठोकरें खाने से…
मैं वक़्त से आगे जा रहा था,
मैं चाँद को धब्बेदार बता रहा था।
अपनी फ़ितरत को अपना हुनर बना रहा था
दरअसल मैं सूरज पे घर बना रहा था
मैं अपनी हस्ती पे इतरा रहा था,
दरअसल मैं इंसान से कुछ और ही बनना चाह रहा था।
जेठ के दिनों में पूर्णिमा की रात हुई अक़्ल मेरी आ गयी ठिकाने पे
तजुर्बा आता है ठोकरें खाने से…
कोई कम नहीँ है यहाँ सब हुनरबाज़ हैं
अदाकारी वो कर रहे हैं तेरे किस्से हैँ तेरी बात हैँ
कोई भी कमी नहीँ छोड़ेगा किरदार निभाने में
तजुर्बा आता है ठोकरें खाने से…
किसी से वफ़ा की उम्मीद मत करो ।
फ़ालतू में मत किसी के लिए आँहें भरो
कहे “सुधीरा” कोई भी कमी नहीँ रखेगा ज़ुल्म सितम ढाने में
तजुर्बा आता है ठोकरें खाने से…