‘ढाई आखर’ की भूल-भुलैया
दैहिक प्रेम करना जरूर, परंतु रखना साक्षीभाव।
बेहोशी में यदि किया इसे, निश्चित डूबेगी नाव।।1
प्रेयसी का प्रेम अमर है, मत रखना सुनो यह भूल।
आया है तो यह जाऐगा, उठती-गिरती यह धूल।।2
स्थायी नहीं है बाहरी प्रेम, एक समय इसको मिट जाना।
अजर-अमर इसे मानकर, मत मूढ़ जग में कहलाना।।3
विपरीतलिंगी का लगाव सब, सुख क्षणिक अहसास।
अज्ञानी हैं जो इसमें ढूंढते, शाश्वत् आनंद प्रयास।।4
निंदनीय नहीं है बाहरी प्रेम, परंतु एक समय इसका अंत।
इस तथ्य को जानकर, साधना शुरू आनंद अनंत।।5
क्षणिक प्रेम शुरूआत है, इससे आगे जाना है।
परमपिता से अद्वैत हो, खुद जानना और जनवाना है।।6
नर हो चाहे कोई नारी हो, सुंदरता भरे दिव्यांग।
लेकिन तृप्ति पूरी न हो, बढ़ती जाती है मांग।।7
परस्पर विपरीत को भोगना, सुख क्षणिक की उपलब्धि।
शाश्वत तृप्ति तो मिले तभी, योग साधना से लगे समाधि।।8
एक-दूसरे में डूबकर, आनंदातिरेक से भर जाना।
लेकिन वापिस आना हो, मर्दाना हो चाहे जनाना।।9
अ्रग स्पर्श को करने से, रोम-रोम में सिहरन दौड़।
लेकिन यह सब छिन जाएगा, दिए जाओगे प्रकृति निचोड़।।10
प्रेयसी को जी भर देखना, अंग-अंग में खो जाना।
लेकिन इस सबका अंत है, बस क्षणभर मन बहलाना।।11
प्रेयसी सौंदर्य को निहारकर, हो जाना सुनो मदमस्त।
लेकिन जो सूरज उदय हुआ, उसको हो जाना है अस्त।।12
समीप बैठकर बातें करना, निहारना होकर मौन।
महासुख की हो न अनुभूति, धरा पर ऐसा है कौन।।13
घंटों-घंटों बातें करना, आँखों में आँखें डालकर।
लेकिन यह सब क्षणिक है, रखना कदम संभालकर।।14
दैहिक प्रेम से आगे बढ़े, तो प्रेम करना है सार्थक।
लेकिन यदि देह पर ही रहे, मानो जीवन गया निरर्थक।।15
देह प्रेम पर रूकना नहीं, इससे जाना है आगे।
जिन्होंने यह किया नहीं, सदैव रहेंगे वे अभागे।।16
प्रेयसी जब सुख देती इतना, कितना मिलेगा परमपिता से।
तनाव, तनाव, हताशा से मुक्ति, मिले मुक्ति चिंता से।।17
दर्शन, स्पर्श, संग बैठना; चुंबन संग अंग सहलाव।
इससे आगे भी जाना हो, सिद्ध होंगे बस ख्याली-पुलाव।।18
पलभर करो या जीवनभर, मिलनी है अंत मंे निराशा।
क्षणिक से शाश्वत् की ओर, बचती यही एक आशा।।19
सांसारिक प्रेम की सीख यह, देना है इसका विस्तार।
परमपिता परमेश्वर से, असीमित करना है प्यार।।20
जो सांसारिक पर टिके रहते, उनका दुखदायी हो अंत।
गृहस्थी, संन्यासी, स्वामी हों; सुधारक आचार्य, संत।।21
प्रेयसी से प्रेम खूब हो, बस एक ही रखना है परहेज।
साक्षीभाव सदैव साथ में हो; उद्यान, उपवन या सेज।।22
एक सीमा के बाद दैहिक प्रेम, सिद्ध होकर रहेगा धोखा।
रोना-धोना फिर होगा शुरू, इसका ही शोर जग चोखा।।23
प्रेम में धोखे से बचना यदि, इस तथ्य को लो जान।
क्षणिक शाश्वत् में बदले नहीं, कुछ दिन का यह मेहमान।।24
सदा हेतु जो प्रेम के दावे करे, झूठा है वह धोखेबाज।
झगड़ालू प्रवृत्ति हावी हो, एक दिन बिगड़ेगा अंदाज।।25
सामाजिक रूप से सच यह, प्रेम संग सामाजिक समझौता।
सबको परस्पर रखना ख्याल, काटना उसे ही जो बोता।।26
प्रेम परस्पर खूब करो, इसमें नहीं कोई मनाही।
परंतु प्रतिपल ख्याल यह, यहां वस्तु नहीं मिलती चाही।।27
किसी के प्रति भी प्रेम जगे, जानो स्वयं को भाग्यशाली।
होश, जागरण, विवेक रखो; यह दुनिया है देखी-भाली।।28
सांसारिक प्रेम में जान लो, एक दिन मिलेगा विश्वासघात।
समाज मर्यादा से करो इसे; प्रेयसी, मित्र, पिता या मात।।29
प्रभु से नेह ही अखंड है; शाश्वत, नित्य, परमानंद।
अद्वैत की अकथनीय अनुभूति, बचे मुस्कराना मंद-मंद।।30
==आचार्य शीलक राम==