” ढलती उम्र “
ये अजीब सी उम्र है
बिन बुलाये ही आ जाती है
शान से अपना हक जता कर
अपने बारे में बतलाती है ,
इस ढ़लती उम्र में भी
मन पहले जैसा ही मचलता है
शरीर खुद ही गिरता
और खुद से ही संभलता है ,
ये मुएं घुटने हैं जो
बार – बार यही कहते हैं
अब और नही बस और नही
कह – कह कर दुखते हैं ,
मन का क्या करें
ललचाता ही रहता है
अब तो जन्मदिन पर भी
केक भी थोड़ा सा मिलता है ,
बार – बार चश्मे का
पावर बदल जाता है
आँखों की तो छोड़ो
मन से भी धुंधला नजर आता है ,
सबके बीच बैठूँ
अपनी कहूँ उनको भी सूनुँ
वक्त कहाँ है उनके पास
अकेले बैठ कर अपनी ही गुनुँ ,
हम अपने विचारों से
आधुनिक हुआ करते हैं
आप तो रहने दिजिये
दिन भर यही सुना करते हैं ,
ना बचपने से कहो बैठने को
ना बूढ़ापे से कहो उठने को
अब तो इच्छा करती है
सदा – सदा के लिए लेटने को ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 24/09/2020 )