डॉ. राकेशगुप्त की साधारणीकरण सम्बन्धी मान्यताओं के आलोक में आत्मीयकरण
‘‘आस्वाद रूप में रस, हृदय संवादी अर्थ से उत्पन्न होता है और वह शरीर में इस प्रकार व्याप्त हो जाता है-जैसे सूखे काठ में अग्नि।’’[1]
भक्तविद् और बहुत से, व्यंजनों से युक्त भात खाते हुए उसका आस्वादन करते हैं वैसे ही बुधजन भावों और अभिनयों से सम्बधी स्थायी भावों का मन से आस्वाद लेते हैं और ये ही आस्वाद्यमान स्थायी भाव नाट्यरस के नाम से जाने जाते हैं।[2]
‘‘रस आस्वाद्य हैं और अपनी आस्वाद्यता के कारण ‘रस’ नाम से जाने जाते हैं।’’[3]
स्थायी भाव के साथ विभावादि के संयोग से जो रस निष्पत्ति होती है, वह रंगपीठ पर स्थित आश्रय के हृदय में होती है। सहृदय तो उससे देखकर हर्षादि को प्राप्त होते हैं।[4]
आचार्य प्राग्भरत एवं आचार्य भरतमुनि के उक्त रस-सम्बन्धी विवेचन के आधार पर ‘रसों का मनौवैज्ञानिक अध्ययन’ करते हुए आचार्य डॉ. राकेशगुप्त ने यह निष्कर्ष निकाला कि- “भले ही रस हृदय संवादी अर्थ से उत्पन्न होता है और शरीर में इस प्रकार व्याप्त हो जाता है जैसे सूखे काठ में अग्नि। लेकिन स्थायी भाव और विभावादि के संयोग से जो रसनिष्पत्ति होती है, वह रंगपीठ पर स्थित आश्रयों के हृदय में ही होती है। सहृदय तो उसको देखकर हर्षादि को प्राप्त होते हैं। उनके अनुसार भरत मुनि का भी यही मतव्य था। वर्ना मुनि मंच पर व्यक्त भावों का ज्यों का त्यों अनुभव करते और सहृदय के प्रति रत्यादि से भिन्न हर्षादि को प्राप्त होने की बात न कहते।
डॉ. राकेशगुप्त ने भरत की परम्परा से अपने को जोड़ते हुए इन तथ्यों पर ज्यादा बल दिया कि काव्य के संदर्भ में रस आस्वादन का ही पर्याय है।[5] और मनःरमण भी वही है, जो आस्वाद है। इस प्रकार उन्होंने मनःरमण, आस्वाद और रस, इन तीनों को एक ही माना है।[6]
उन्होंने आचार्य भरत की इस बात पर विशेष बल दिया कि ‘‘प्रेक्षक का एक विशेष गुण होता है, ‘ऊहापोह विशारद’।’’[7] डॉ. गुप्त ने कहा कि ऊहापोह कर सकने की क्षमता की आवश्यकता वहीं होगी, जहां अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी होगी, जो मिल रहा है, उसको ज्यों का त्यों स्वीकार लेने में उफहापोह का क्या काम?
इसलिये उनकी यह स्पष्ट धारणा है कि काव्य का आस्वादन करने वाला सहृदय रसास्वादन के समय अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है, क्योंकि मनुष्य का मन कोई जड़ या निर्जीव वस्तु नहीं, जो किसी वस्तु को ज्यों का त्यों ग्रहण करता चला जाये, वास्तव में प्रतिक्रिया करना तो उसका स्वभाव होता है। सहृदय के इसी प्रतिक्रियात्मक स्वभाव को लेकर डॉ. राकेशगुप्त ने स्पष्ट घोषणा की कि काव्य की नाट्य-प्रस्तुति के प्रति सहृदय की अपनी प्रतिक्रिया ही रसात्मक होती है।[8] अर्थात् आश्रय या सहृदय के मन में रसबोध की स्थिति का आकलन उसकी रसात्मक प्रतिक्रिया के अन्तर्गत ही देखा-परखा या अनुभव किया जा सकता है।
इन्हीं बातों को आधार बनाकर डॉ. राकेशगुप्त ने काव्य या नाट्य-प्रस्तुति के प्रति सहृदय की आस्वाद प्रक्रिया को लेकर नितांत मौलिक और वैज्ञानिक सूझबूझ से युक्त ‘प्रतिक्रियाओं’ का जिक्र किया। ये प्रतिक्रियाएं सहृदयगत रस-स्थिति को समझने में बहुत ही सहायक सिद्ध हुईं। उन्होंने कहा कि काव्य या नाटक के आस्वादन के समय पाठक, श्रोता या दर्शक रसानुभूति के समय संवेदनात्मक, प्रतिवेदनात्मक, स्मृत्यात्मक, औत्सुक्यात्मक, विचारोत्तेजक और आलोचनात्मक प्रतिक्रियाएं करता है।
डॉ. गुप्त का कहना कि-‘‘ जब भरतमुनि भी इस बात से आगाह थे कि भिन्न-भिन्न रुचियों के लोग भिन्न-भिन्न प्रकारों के दृश्यों से तुष्ट होते हैं, तरुणजन काम से तुष्ट होते हैं, विरागी मोक्ष से, शूर वीभत्स से और वीर रौद्र से’[9] तो ऐसी स्थिति में सहृदय किसी पात्र के साथ तादात्म्य स्थापित कैसे कर सकता है? वह पात्रों के द्वारा अभिव्यक्त रति आदि को ज्यों की त्यों अनुभूत कभी नहीं करता-या तो उनकी रति से सुख का अनुभव करता है या फिर कभी रति का अनुभव करता है तो तभी जब उसे स्वयं अपने रति-प्रसंगों का ध्यान आ जाता है। ऐसी स्थिति में उसका आलम्बन, आश्रय के आलम्बन से भिन्न होता है, अतः उसे तादात्म्य नहीं कहा जा सकता है।’’[10]
डॉ. राकेशगुप्त रसानुभूति के सम्बन्ध में भरतमुनि के नितांत वस्तुनिष्ठ रससूत्रा को उनके परवर्ती काल में रसाचार्यों द्वारा सहृदयनिष्ठ बना दिये जाने की घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहते हैं कि- ‘‘भरतमुनि का तात्पर्य यह था कि विभाव, अनुभाव, संचारीभाव के साथ स्थायीभाव के संयोग से जो रसनिष्पत्ति होती है, वह रंगमंच पर होती है। आगे चलकर हुआ यह कि जो रससूत्र रंगपीठ पर या काव्य में रस-तत्त्वों या उनके निर्यामक तत्त्वों का निरुपण करने वाला था, उससे सहृदयगत रस की व्याख्या का काम लिया जाने लगा। जब यह देखा गया कि यह कार्य उसके द्वारा ठीक से नहीं हो पा रहा है, तो साधरणीकरण का उस पर पुल बांधा गया। होना यह चाहिए था कि रस-सूत्र को उपर्युक्त प्रकार से काव्यानुकूल बनाकर रस-निकष के रूप में प्रचलित किया जाता और सहृदयगत रस का विवेचन स्वतंत्र रूप से किया जाता कि काव्य या नाट्य में वे कौन से तत्त्व है, जो उसे रसनीय बनाते हैं? इस बात का विवेचन, इस बात के विवेचन से बिल्कुल भिन्न है कि सहृदय के हृदय में उस रसनीय काव्य नाट्य प्रस्तुति के द्वारा किस प्रकार का रस संचार हो रहा है और उसका स्वरूप क्या होता है।’’[11]
डॉ. राकेशगुप्त ने काव्यानुभूति के अवसर पर साधारणीकरण के सिद्धान्त को खारिज करते हुए कहा कि-‘‘ब्रह्मानंद क्या है… रस और ब्रह्मानंद की समकक्षता की स्थापना कुछ जमती नहीं।[12] उन्होंने कहा कि भट्टलोल्लट का यह मानना कि सहृदय, नट में रामादि का आरोप इसी प्रकार कर लेता है जैसे रज्जु को देखकर सर्प का भ्रम होता है, यह बात जंची नहीं। रज्जु में सर्प की प्रतीति होने से जो भय की अनुभूति होती है वह वास्तविक है, काल्पनिक नहीं।’’[13]
डॉ. गुप्त ने शंकुक के रसानुमितिवाद का भी खण्डन किया और कहा कि शंकुक के मत का परीक्षण करने के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिसे ‘चित्रतुरंगन्याय’ कहा गया है, वह कोरी कल्पना है। किसी व्यक्ति के सामने यदि घोड़े का चित्र रखा जाये तो वह व्यक्ति-यदि अविवेकी ही है और घोड़े के चित्र को उसने पहली बार नहीं देखा तो उसे घोड़े का चित्र ही समझेगा, अश्व नहीं…ज्ञान का यह कौन-सा भेद, तरीका या शैली है जिसमें दर्शक, अभिनेता को मूल पात्र समझ लेता है।[14]
भटट्नायक के ‘भुक्तिवाद’ का खण्डन करते हुए डॉ. गुप्त लिखते हैं कि-‘‘भटट्नायक ने दर्शक को ही रसास्वादक माना है और भावकत्व की कल्पना द्वारा भट्टलोल्लट और शंकुक की व्याख्या में आये ताटस्थ्य दोष के निराकरण करने का प्रयत्न किया हैं किन्तु रसास्वादन की समस्या का समाधान फिर भी नहीं हो सका क्योंकि, साधारणीकरण होने के बाद भी दर्शक और पात्रों का अलग अस्तित्व रहता है। दर्शक शकुन्तला को सुन्दर रमणी और दुष्यन्त की धीरोदात्त नायक समझ सकता है, पर अपने व्यक्तित्व का अंश नहीं।[15]
कुल मिलाकर डॉ. गुप्त ने साधारणीकरण सिद्धान्त को व्यर्थ प्रमाणित करते हुए कहा कि-‘साधारणीकरण पात्रों के व्यक्तिगत वैशिष्ट्य का ह्रास करके, उनकी मानसिक दशाओं और बाह्य अभिव्यक्त्यिों को ‘स्व’ की भावभूमि से ऊपर उठाकर सार्वलौकिक बना देता है। उस समय युग, स्थान, सम्बन्ध और सामाजिक स्थिति की विशिष्टता भी समाप्त हो जाती है। मानसिक स्थितियों और साथ ही उनको प्रकट करने के लिये किया गया अभिनय, दर्शक के द्वारा साधारणीकृत रूप से समझा जाता है।[16] किन्तु व्यावहारिक रूप से यह बात असिद्ध हो जाती है। दर्शक पात्र को साधारणरूप में नहीं देखता, अपितु उसकी सामाजिक स्थिति, वातावरण व्यक्तिगत स्वभाव के आधार पर विशेष रूप में ही देखता है।’’[17]
डॉ. राकेशगुप्त के उक्त सहृदयगत रसविवेचन के आलोक में अगर हम यह मान लें कि-
1. स्थायी भाव और विभावादि के संयोग से जो रस-निष्पत्ति होती है, वह रंगपीठ पर स्थित पात्रों या आश्रयों के हृदय में ही होती है। सहृदय तो उसे देखकर हर्षादि को ही प्राप्त होते हैं, तब यहां एक सवाल खड़ा होता है कि सहृदय हर्षादि को ही क्यों और कैसे प्राप्त होते हैं?
2. अगर रसानुभूति के समय सहृदयों में तादात्म्य जैसी कोई स्थिति नहीं होती और न दर्शक, पाठक, श्रोता, काव्य-सामग्री या नाटक को साधारण रूप में देखता है, क्योंकि साधारणीकरण होने के बाद भी दर्शक और पात्रों का अलग-अलग अस्तित्व बना रहता है। दर्शक शकुन्तला को सुन्दर रमणी और दुष्यन्त को धीरोदात्त नायक समझ सकता है, अपने व्यक्तित्व का अंश नहीं, तब क्या सहृदयगत रसानुभूति के बारे में सिर्फ इतना कहकर चुप बैठ लिया जाय कि ‘रस आस्वादन का ही पर्याय है और मनः रमण वही है जो आस्वाद्य है, इस प्रकार मनःरमण आस्वाद और रस तीनों एक ही है।’[18] हमें इससे आगे क्या इन तथ्यों पर विचार नहीं करना चाहिए कि रस अगर आस्वादन का पर्याय है, तो वर्ग-संघर्ष को साहित्य का प्राण मानने वाला मार्क्सवादी पाठक बिहारी के साहित्य से आस्वादन क्यों नहीं ले पाता?[19] इस आधार पर क्या बिहारी के काव्य को रस-विहीन, आस्वादनहीन और मनःरमणविहीन मान लिया जाए?
3. भिन्न-भिन्न रुचियों के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के दृश्यों से ही क्यों तुष्ट होते हैं? अपनी रुचि से विपरीत काव्य-सामग्री के प्रति तादात्म्य साधारणीकरण जैसे सिद्धान्त इस प्रकार असफल सिद्ध होते हैं, तो क्या डॉ. राकेशगुप्त का आस्वादन सिद्धान्त भी असफल प्रमाणित नहीं हो जाता?
अपनी विवेचनात्मक दृष्टि को हर प्रकार वैज्ञानिक रखते हुए डॉ. राकेशगुप्त ने सहृदय की काव्य-सामग्री के प्रति प्रतिक्रिया को तो रसात्मक माना और इसे भरतमुनि के ‘हर्षादि’ के निकट रख दिया, लेकिन यह समझाने का प्रयास नहीं किया कि अगर यह प्रतिक्रिया [अनुभाव] रसात्मक है, तो किसी न किसी रस से ही उत्पन्न हुई होगी?
रस कोई लम्बी और दीर्घकालिक प्रक्रियामात्र ही नहीं है। काव्य-सामग्री की एक पंक्ति भी सहृदय के हृदय से एक क्षण में इस प्रकार संवाद कर सकती है कि रस पूरे शरीर में ऐसे व्याप्त हो जाता है जैसे सूखे काठ में अग्नि। कभी-कभी पूरी काव्य-सामग्री का आस्वादन करने के उपरान्त भी सहृदय, रस के चरमोत्मकर्ष को नहीं छू पाता और कभी सहृदय की प्रतिक्रिया भले ही क्षणभर की हो, लेकिन वह क्षण रसोद्बोधन का चरमोत्मकर्ष होता है या हो सकता है। वस्तुतः काव्य-सामग्री या नाट्य के आस्वादन के समय रसबोध की दो स्थितियां बनती हैं-
1. सम्वेदनात्मक रसबोध
2. प्रतिवेदनात्मक रसबोध
सम्वेदनात्मक रसबोध के अन्तर्गत सहृदय काव्य या नाटक की सराहना करते हुए रससिक्त होता चला जाता है, जबकि प्रतिवेदनात्मक रसबोध के अन्तर्गत उसकी स्थिति ‘उहापोह विशारद’ हो जाती है। काव्य-सामग्री में वर्णित, मूल्यों, संस्कारों, घटनाक्रमों को ज्यों का त्यों ग्रहण न करते हुए आलोचनात्मक दृष्टि के साथ आस्वादन करता है।
डॉ. गुप्त का यह कहना कि मार्क्सवादी पाठक बिहारी के काव्य का आस्वादन नहीं कर सकता, उनके आस्वादन सिद्धान्त को तो कमजोर और अप्रामणिक सिद्ध करेगा ही, उनके प्रतिक्रिया सिद्धान्त के प्रतिवेदनात्मक स्वरूप पर भी प्रश्न टांक देगा। क्या केशव को काव्य का प्रेत और हृदयहीन कवि घोषित करने से पूर्व आचार्य शुक्ल ने केशव के काव्य का आस्वादन नहीं किया होगा? अगर आस्वादन किया था तो उनके भीतर सूखे काठ में अग्नि की तरह व्याप्त रस की स्थिति का आकलन उनके केशव के प्रति व्यक्त किये गये कथनों से नहीं किया जा सकता?
अस्तु! यह तो मानना ही पड़ेगा कि जिन छः रसात्मक प्रतिक्रियाओं का जिक्र डॉ. राकेशगुप्त रसों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर करते हैं, इन प्रतिक्रियाओं के माध्यम से सहृदयगत रस की समस्या काफी हद तक हल हो जाती है। लेकिन सहृदय के द्वारा व्यक्त की गयी अनुभावों के रूप में ये प्रतिक्रियाएं किस रसबोध के अन्तर्गत हैं, इसका उत्तर डॉ. गुप्त के पास नहीं है। वह तो मात्र इन प्रतिक्रियाओं को रसात्मक मानकर अपनी बात अधूरी छोड़ देते हैं।
डॉ. राकेशगुप्त के ‘प्रतिक्रिया सिद्धान्त’ के आलोक में यदि हम सहृदयगत रस का विवेचन करें, तो यह तथ्य तो उजाले की तरह साफ है कि काव्य या नाटक के आस्वादन के समय सहृदय को रसानुभूति हृदय संवादी अर्थ से होती है अर्थात् सहृदय रसानुभूति के समय पात्रों, घटनाक्रमों की प्रस्तुति के प्रति जिस प्रकार से विचारता है या काव्य-सामग्री या नाट्य-प्रस्तुति से जो अर्थ ग्रहण करता है, वह अर्थ ही उसके मन में भावोद्बोधन का कारण बनता है। चीजों को अर्थ प्रदान करने की यह प्रक्रिया स्वयं सहृदय की होती है, काव्य या नाटक के पात्रों की नहीं, क्योंकि रसानुभूति से पूर्व या रसानुभूति के समय सहृदय और काव्य या नाटक के पात्रों का व्यक्तित्व-अस्तित्व हर प्रकार पृथक ही बना रहता है। काव्य या नाटक के पात्रों और सहृदय के संस्कारों में मतैक्यता के साथ-साथ मतभिन्नता भी हर स्थिति में बनी रहती है।
वस्तुतः किसी भी काव्य-सामग्री के पठन-पाठन या नाट्य प्रस्तुति के समय सहृदयगत रसानुभूति, सहृदय के लिए आत्मीकरण की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत-
1. सहृदय के व्यक्तिगत स्वभावों, रुचियों, वृत्तियों, उसकी धारणाओं, अवधारणाओं, आस्थाओं, मानसिक स्थितियों, विभिन्न प्रकार के संस्कारों से युक्त आत्म अर्थात् रागात्मक चेतना से जब कोई काव्य या नाट्य प्रस्तुति संवाद करती है और सहृदय उसे जिस अर्थ में ग्रहण करता है, वह अर्थ ही सहृदय में भावोद्बोधन का कारण बनता है और उसे रसानुभूति तक ले जाता है। यह रसानुभूति सम्वेदनात्मक भी हो सकती है और प्रतिवेदनात्मक भी।
2.रसानुभूति के समय न तो सहृदय के व्यक्तिगत वैशिष्ट्य का ह्रास होता है और न वह ‘स्व’ की अनुभूति से उठकर सार्वलौकिक भूमि पर आकर ‘स्व’ और ‘पर’ के बन्धनों से मुक्त हो जाता है, बल्कि आत्मीयकरण की इस प्रक्रिया के अन्तर्गत ‘पर’ अर्थात् काव्य सामग्री और नाट्य प्रस्तुति में व्यक्त किये गये आलम्बनों और आश्रयों के विशिष्ट स्वभाव और संस्कारों से निर्मित रागात्मक चेतना का ‘स्व’ अर्थात् सहृदय की रागात्मक चेतना में विलय प्रारम्भ होता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि ‘पर’ का ‘स्व’ में आलोकित हो उठना या ‘पर’ का ‘स्व’ में विलय होना ही रसानुभूति का कारण बनता है। ‘पर’ की रागात्मक सत्ता को जब ‘स्व’ की रागात्मक सत्ता सहज ही ग्रहण अर्थात् आत्मसात् करती है, तो ‘स्व’ संवेदनात्मक रस-बोध से सिक्त होता है।‘पर’ को आत्मसात् करते हुए ‘स्व’, ‘वाह’ और ‘आह’ के रूप में अक्सर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता हुआ रस-सिक्त होता है। मान लो किसी शायर या कवि ने कोई दोहा या ‘शे’र’ पढ़ा तो यह दोहा या शे’र जब सहृदय की रागात्मक सत्ता में आलोकित होगा और सहृदय का मन जब उसे अर्थ प्रदान करेगा, तो यही अर्थ की समझ उसकी रागात्मक सत्ता द्वारा ग्रहण या आस्वाद की जाएगी। किसी सहृदय को दोहे या शे’र के आस्वादन के समय कवि द्वारा शे’र या दोहे को पढ़ने की कला रुचिकर या प्रिय लगेगी तो कोई सहृदय उसमें आलंकारिक प्रयोगों के प्रति मौलिकता के दर्शन कर गद्गद होगा। किसी सहृदय को उपमा या व्यंजना-शक्ति के अद्भुत प्रयोग भायेंगे तो किसी को कथन की मार्मिकता भीतर तक छूयेगी। कुल मिलाकर कवि या शायर के द्वारा पढ़े जा रहे शे’र या दोहे सहृदयों के मन द्वारा चाहे जिस प्रकार भी आस्वाद्य हों, इन सब प्रकारों का आस्वादन सहज ग्राह्य, सुखद, रुचिकर लगेगा और हर्षादि का बोध करायेगा। ‘स्व’ इन दोहों या शे’रों को आत्मसात् कर लेगा अर्थात् ‘पर’ की रागात्मक सत्ता का ‘स्व’ की रागात्मक सत्ता में सहज विलय हो जोयगा।
लेकिन जब ‘पर’ का ‘स्व’ में विलय इस प्रकार होता कि ‘स्व’ को वह सब रुचिकर नहीं लगता है, जिसका वह आस्वादन कर रहा होता है तो ‘पर’ का समस्त आलम्बन धर्म ‘स्व’ के मन में प्रतिवेदनात्मक रस-बोध को जन्म देता है। ‘स्व’ हर्षादि के स्थान पर आक्रोश, असंतोष, विरोध और विद्रोह आदि को प्राप्त होता है। हिन्दी का प्रबल समर्थक जब हिन्दी-विरोधी काव्य का आस्वादन करता है, तो उसकी प्रतिक्रियाएं उस काव्य-सामग्री को ‘बकवास’ हिन्दी-विरोधी’, ‘बेवकूफी-भरा कारनामा’ आदि घोषित करने में अनुभावित होती है। ठीक इसी तरह रामादि के प्रति सम्वेदनात्मक रस-बोध से सिक्त सहृदय की यह स्थिति, रावणादि के प्रति प्रतिवेदनात्मक रस रूप में देखी जा सकती है।
3.काव्य या नाटक प्रस्तुति के समय काव्य या नाटक के पात्रों के अस्तित्व से दर्शक या पाठक का अस्तित्व हर स्थिति में पृथक ही बना रहता है, अतः यह तो कदापि सम्भव नहीं है कि काव्य या नाटक के पात्र जो क्रियाएं कर रहे हैं, दर्शक या पाठक भी उन क्रियाओं के समान ही क्रियाएं करने लगें, जो नाटक या काव्य के मूल पात्रों की हैं। राम, रावण पर तीर छोड़ रहे होते हैं, दर्शक राम द्वारा छोड़े गये तीरों और रावण के घायल तन को देख रहा होता है। द्रौपदी के चीरहरण के समय दर्शक न तो पांडवों की तरह होता है न कौरवों की तरह, वह तो इन सबके अनुभावों का आस्वादन कर रहा होता है। मंच पर हास्य-अभिनेता ऊल-जुलूल हरकतें करता है और दर्शकों के मध्य ठहाका गूंज रहा होता है, जबकि हास्य अभिनेता ठहाके नहीं मार रहा होता।
कुल मिलाकर द्रष्टा, दृश्य की स्थिति में जब बिलकुल नहीं होता, तो यह किस प्रकार सम्भव है कि उसके मन में उन्हीं रसों की निष्पत्ति हो जाये, जो नाटक के पात्रों के मन में उद्बुद्ध हुए होते हैं।
दर्शक की रागात्मक चेतना में जब काव्य या नाटक की रागात्मक चेतना आलोकित होती है, तो दर्शक नाटक के पात्रों के आलम्बन धर्म को अपने आत्म के अनुरूप बनाता हुआ ग्रहण करता है। दर्शक की रसानुभुति उसके लिये आत्मीयकरण की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें वह सीता के हरण के समय के क्रन्दन को ‘हाय सीता पर अत्याचार हो रहा है, रावण बड़ा दुष्ट है, द्रौपदी के चीरहण को, ‘दुर्योधन तेरा नाश हो’, ‘देखो तो भीष्म कैसे चुप्पी साधे हुए बैठे हैं, ‘धिक्कार है ऐसे न्यायप्रयि भीष्म को’, आदि ऐसी ही वैचारिक ऊर्जाओं के साथ ग्रहण करता हुआ रससिक्त होता है।
वह हास्य अभिनेता की ऊलजलूल हरकतों पर ठहाके लगाता है। नृत्य करती नायिका की ओर खुश होकर सिक्के उछालता है और खलनायक के समाज-विरोधी अभिनय को देखकर उस पर जूता फेंकता है।
सन्दर्भ
1. नाट्यशास्त्र, 7/7
2. नाट्यशास्त्र, 6/33
3. नाट्यशास्त्र, 6/92
4. राकेशगुप्त का रस-विवेचन, पृ. 22/25
5. सा.स्ट. इन रस, पृ. 2
6. सा. स्ट. इन रस, पृ. 81
7. ना.शा.पृ. 93
8. सा.स्ट. इन रस, पृ. 23
9. नाट्यशास्त्र, 5/163
10. सा. स्ट. इन रस, पृ. 64
11. राकेशगुप्त का रस-विवेचन, पृ. 16
12. सा. स्ट. इन रस, पृ. 1
13. सा. स्ट. इन रस, पृ. 39
14. राकेशगुप्त का रस-विवेचन, पृ. 48
15. वही, पृ. 53
16. वही, पृ. 53
17. राकेशगुप्त का रस विवेचन, पृ.53
18. राकेशगुप्त का रस विवेचन, पृ. 48
19. राकेशगुप्त का रस विवेचन, पृ. 26
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001