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6 Mar 2023 · 27 min read

डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी का

डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी का
विश्व हिंदी शब्द कोश

( खण्ड-5 )

1- मिसिर हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

गहरा चिंतन हो सदा, जा घटना में डूब।
विश्लेषण करते रहो, जाना तनिक न ऊब।।
जाना तनिक न ऊब , मथो सारे तथ्यों को।
खोजो सह-संबन्ध, ज्ञानदायक सत्यों को।
कहें मिसिर कविराय, पढ़ो मत सिर्फ ककहरा।
ज्ञान-रत्न को ढूढ़, लगा कर गोता गहरा।।

2- हरिहरपुरी के रोले

त्यागो कुत्सित भाव, हृदय को निर्मल करना।
गमके शुद्ध विचार,धरा पर सहज विचरना।।

सब के प्रति अनुराग, बनाता मन को मानव।
जिस के मन में द्वेष, वही है सच में दानव।।

जिस के दिल में प्रेम, वही पूजा के लायक।
रहता सब के साथ,बना इक सुखद सहायक।।

संकट को स्वीकार, चलो तुम योधा बनकर।
पीछे कभी न देख, बनो साहसी युद्ध कर।।

नहीं किसी से माँग, छोड़ दे याचक बनना।
स्वाभिमान के साथ, राह पर चलते रहना।।

स्वाभिमान का मान, बढ़ा कर जो चलता है।
वही अमिट पहचान,बना जिंदा रहता है।।

जिसे भोग से राग, वही रोगी बनता है।
माया से वैराग, सदा योगी रचता है।।

मन की लिप्सा त्याग, बनो जगती का नायक।
भावों का श्रृंगार,सदा गढ़ता अधिनायक।।

3- हरिहरपुरी के सोरठे

ज्ञान गंग में स्नान, नित्य जो करता रहता।
बन जाता विद्वान, एक दिन निश्चित मानो।।

कभी न कुटिल कुरंग, जगत में पूजा जाता।
करता सदा कुसंग,नारकीय दानव पतित।।

मटमैले की बात, कभी न होती शुभ सुखद ।
दिन को कहता रात, बुद्धिहीन मतिमन्द बहु।।

जिस के मन में घात, उसे मत मीत बनाओ।
करे सदा आघात, पापी निशिचर कुटिल अति।।

मूरख सहज कुतर्क, करता रहता रात-दिन।
देते बौद्धिक तर्क, सप्रमाण विद्वानगण ।।

मानवता से नेह, लगाते सज्जन साधू।
लगती सुंदर देह, चित्त निर्मल जिसका है।।

उस का मन है धाम,जिस में पावन सोच है।
मन पाता विश्राम, छल-प्रपंच से दूर हो।।

4- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

शोधन से है जागता, मन में पावन भाव।
मन-उर-आतम का सतत, बनता मधुर स्वभाव।।
बनता मधुर स्वभाव, सभी परिवर्तित दिखते।
पकड़े सुंदर राह, सभी प्रिय मानव बनते।।
कहें मिसिर कविराय, चलो प्रति पल सौ योजन।
छूना अमित अनंत, करो यदि अपना शोधन।।

5- मिसिर हरिहरपुरी के दोहे

क्रूर हृदय को जान लो, भूत-प्रेत का गेह।
यहाँ कभी रहता नहीं, शीतलता का मेह।।

संस्कार की हीनता, में नीचों का वास।
नीचों का होता सदा,नित नंगा उपहास।।

दया-धर्म को त्याग कर, मानव बनता नीच।
मार रहा दुर्गंध है, जैसे दूषित कीच।।

ईर्ष्या -नद में डूब कर, बनता पतित पिशाच।
सदा टूटता सहज ही ,जैसे टूटत काँच।।

क्रोधी को पापी समझ, करता हिंसक काम।
सूकर बन कर घूमता, रचता गन्दा ग्राम।।

भैंसा जैसा मुँह लिये, अहंकार में चूर।
मस्तक काला रंग से, रंगा हुआ भरपूर।।

कमजोरों को मार कर, होता बहुत निहाल।
पैसा पाने के लिए, चलता गन्दी चाल।।

6- मिसिर रामबली की कुण्डलिया

कोरोना भयभीत कर, मार रहा है जान।
सहमे -सहमे लोग हैं, अब आयें भगवान।
अब आयें भगवान, नहीं है कोई चारा।
ठहर गया अस्तित्व, मनुज दिखता बेचारा।म
कहें मिसिर कविराय, ईश हैं तो क्यों रोना।
प्रभु से हो भयभीत, जलेगा अब कोरोना।।

7- यह महा समर है

यह महा समर है
कठिन डगर है
चुभते काँटे
पग में छाले
रोती आंखें
व्याकुल तन-मन
सूखा उपवन
झरने रोते
जंगल खोते
सड़कें सूनी
वायु है भूनी
सतत उदासी
सब आभासी
दुश्चिंता का सिंधु घुमड़ता
सब कुछ असमंजस -सा लगता
एकाकीपन सता रहा है
घोर निशाचर जता रहा है
हर एकाकी लड़ कर जीते।
दिखें सभी कोरोना पीते।

8- तुम हो सकते कभी न भावुक
(चौपाई)

कभी न हो सकते तुम भावुक।
तेरे मन पर धन का चाबुक।।
धन के पीछे जो भी भागा।
वही निशा में प्रति क्षण जागा।।

जो जीवन को अर्थ समझता।
वह पृथ्वी पर व्यर्थ टहलता।।
जिस के उर में भाव नहीं है।
पत्थर दिल से बना वही है।।

बहुत हिसाबी बहुत कठोरा।
माँग रहा है लिये कटोरा।।
साहचर्य का सदा विरोधक ।
स्वारथ का है असली शोधक।।

भाव नहीं तो प्यार कहाँ है?
जग में सच्चा यार कहाँ है??
मतलब से संबन्ध बनाता।
पूरा होने पर हट जाता।।

पत्थर दिल है भौतिकवादी।
करत संपदा से है शादी।।
अहंकार ही उसका जीवन।
दंभ-दर्प से भरा हुआ मन।

धन में ही वह रस पाता है।
जीवन नीरस बन जाता है।।
जिसने धन को ही स्वीकारा।
बना जगत में वही नकारा ।।

जिसके जेहन में भावुकता।
भरी हुई उसमें नैतिकता ।।
सच्चाई का परम पुजारी।
रचता वह दुनिया अति प्यारी।।

9- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

रोना नहीं कदापि है, हँस कर संकट काट।
हँस कर जीना सीख कर,दुख की खाईं पाट।।
दुख की खाईं पाट, स्मरण मत करना दुख का।
दुख को जाना भूल, सहज लक्षण है सुख का।।
कहें मिसिर कविराय, दुखी जीवन क्या ढोना।
दुख को भी सुख जान, कभी दुख में मत रोना।।

10- मिसिर बाबा की कुण्डलिया

नायक बनने के लिये, कुंठाओं को त्याग।
सब के प्रति सद्भावना,में आजीवन जाग।
में आजीवन जाग, हॄदय से निर्मल बनना।
देना दुख में साथ, हृदय से स्वागत करना।।
कहें मिसिर कविराय, बनो सब का सुखदायक।
सादा स्वच्छ विचार, बनाता सब को नायक।।

11- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

तरसो मत हर्षो सदा , कम हो अथवा ढेर।
प्रेमाकुल हो नृत्य कर,बन कर प्रेम-कुबेर।।
बन कर प्रेम -कुबेर, प्रेम-धन सबको बाँटो।
यह अमृत सिद्धांत, इसी से जीवन काटो।।
कहें मिसिर कविराय,प्रेम-वारिद बन बरसो।
सब पर प्रेम उड़ेल, प्रेम बिन कभी न तरसो ।।

12- मिसिर कविराय की कुण्डलिया

जीतो सारे विश्व को,एक जगह पर बैठ।
मन में स्नेहिल भाव रख , उर में सब के पैठ।।
सब के उर में पैठ, करो सब का नित स्वागत।
सब को परिजन मान, हृदय से सोवत जागत।।
कहें मिसिर कविराय,सभी का मित्र बनो तो।
चल कर मनहर चाल,जगत के दिल को जीतो।।

13- सवैया

हँस कर चलना सब के दुअरे,सब का सम -मान करो नित रे।
सब को भजना सियराम कहो, रखना सब को अपने हिय रे।।
मद भाव कभी न रहे उर में,सब का बनना अतिशय प्रिय रे।
सब की सुनना गुनना मन में , बसना रहना सब के नियरे।।

चल प्रेम करो रघुनायक से, उन से हर बात किया करना।
हटना मत पीछ सतत रहना , अपना दुख-शोक सदा कहना।।
नित राम रसायन पान करो,मनमस्त हुए चलते रहना।
रज चरण लिये सिर पर अपने,श्री राम राम कहते चलना।।

14- हरिहरपुरी विरचित सवैया

चलते रहना सब के हित में,शुभ सोच रखो अपने उर में।
सब से कर बात सदा सुखदा, सब से मिलना अपने पुर में।।
सहयोग करें सब आपस में,सुर को अब ला कर दो सुर में।
सब प्रीति करें सब ध्यान धरें,सब गीत बनें हर नूपुर में।।

सब को अपने मन में रख लो,सब को प्रिय बोल सुनात रहे।
हर मानव में अनुराग रहे, हर मानव साधु समान बहे।।
हर मानव की रसना मधु हो,हर मानव शोभित बात कहे।
हर मानव पीर हरे सब की, हर मानव मानववाद गहे।।

15- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

जो जो मिले मिला करो,अभिवादन को बाँट।
अभिनंदन के पंथ पर, चल कर जीवन काट।।
चल कर जीवन काट, हृदय से गले लगाना।
छोड़ दंभ अभिमान, मिलन के गीत सुनाना।।
कहें मिसिर कविराय, स्वयं को सब में खोजो।
अपने में भी ढूढ़, जहाँ मिलते हैं जो जो।।

16- मिसिर हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

देकर जाता भूल जो, वह दाता-भगवान।
कभी जताता है नहीं,वह अपना अहसान।।
वह अपना अहसान, कभी भी नहिं है कहता।
करता है सत्कर्म, सदा दीपक बन जलता।।
कहें मिसिर कविराय, नीच कब देता लेकर।
जग में वह धनवान, भूल जाता जो देकर।।

17- हरिहरपुर के मिसिर की
कुण्डलिया

करना अगर विकास है, पित्त मार कर कर्म।
कर्मों में अधिकार को, समझो सच्चा धर्म।।
समझो सच्चा धर्म, कर्म का सेवन करना।
यह जीवन का सार,कर्म का मर्म समझना।।
कहें मिसिर कविराय, कर्म में निष्ठा रखना।
चलो कर्म की राह, स्वयं को विकसित करना।।

18- मिसिर महराज की कुण्डलिया

अपने बल पर हो खड़ा, कर न किसी लकी आस।
बनो स्वावलम्बी बढ़ो, चूम अनत आकाश।।
चूम अनत आकाश, सफलता तेरे कर में।
मंजिल अति नजदीक,सुशोभित खुद के घर में।।
कहें मिसिर कविराय, न देख किसी के सपने।
पहुँचोगे गन्तव्य,सिर्फ तुम दम पर अपने।।

19- मिसिर कविराय की
कुण्डलिया

मानुष हो कर जो नहीं, करता है
उपकार।
ऐसे अधम पिशाच को,बार- बार धिक्कार।।
बार-बार धिक्कार, समझ उसको अपकारी।
नहिं कदापि वह जीव,हुआ करता हितकारी।।
कहें मिसिर कविराय,मनुज रूपी वनमानुष।
रखता तुच्छ विचार, नहीं है उत्तम मानुष।।

20- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

पाता वह सम्मान है, जो देता सम्मान।
जो करता अपमान है, वह पाता अपमान।।
वह पाता अपमान, अस्ति को है खो देता ।
होता है उपहास, नहीं है कुछ कर लेता।।
कहें मिसिर कविराय, खुला है सब का खाता।
जमा राशि है कर्म, व्याज जिस का वह पाता।।

21- मिसिर हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

जीवन संकटकाल का, सबसे सरल उपाय।
श्री प्रभु में ही मन रमे, वे ही सतत सहाय।।
वे ही सतत सहाय, रखो दो गज की दूरी।
कोरोना की चाल, नहीं होगी तब पूरी।।
कहें मिसिर कविराय, दूर रखना अपना तन।
चलो भीड़ से भाग, बचाओ अपना जीवन।।

22- सुंदर शब्दावली (चौपाई)

सुंदर उत्तम भावुक मोहक।
दिव्य दिवाकर दान सुयोजक।।
मान बड़प्पन प्रेम सुधा रस।
पुण्य प्रताप साधु शुभ शिव यश।।

सभ्य सुसज्जन सन्त शिवालय।
भव्य धाम रघु प्रिय रामालय।।
नित्य नरोत्तम नारद नामी।
नियमित शुभमति नित निष्कामी।।

सुभग सुभाग शांत समदर्शी।
महामना महान प्रियदर्शी।
त्याग तपस्या तपसी सत्यम।
विद्या विनय उदार शील सम।।

रस रसखान सरस मधुनिष्ठा।
सत्कर्मी ज्ञानी कृतिनिष्ठा।।
दया दमन अरु दान महोत्सव।
सत्यव्रती आतम-पुरुषोत्सव।।

मादक स्वर विराट सुध- बुध- मन।
पावन सावनमय अति शुचि तन।।
हृदय विशाल स्वर्गमय शोभित।
आत्म द्वार पर पालित-पोषित।।

प्रभुमय इस जगती को जानो।
प्रभु को अंतस में पहचानो।।
मधुर बोल-भाषा अपनाओ।
सुंदर शब्दावली बनाओ।।

यह है अत्युत्तम परियोजन।
सभी करें अपना संशोधन।।
काम बढ़ाते चलते रहना।
सब बातें सुन मानव बनना।।

23- चरित्रहीनता

चरित्रहीनता अभिशाप है
चरित्र का शाप है
सामाजिक पाप है
दुष्कर्मों का जाप है ।

जो चरित्र की रक्षा नहीं कर सका
वह मर चुका।

चरित्र में आत्मबल होता है
यह प्रबल होता है।
यह न टूटता है
न झुकता है।
यह चट्टान है
पवित्र स्थान है।
यह दहाड़ता है
चरित्रहीन को ललकारता है।
यह तेज है
ओज है
महत्तम है
सर्वोत्तम है।

चरित्रहीन आभाहीन है
दीन-हीन है।
अबल है
निर्बल है।
चरित्रहीन के चेहरे पर
कालिख होती है
जो काला इतिहास लिखती है।
चरित्रहीनता की कालिमा
कभी धुलती नहीं है
बह कर कभी निकलती नहीं है।

चरित्र पावन मन है
गमकता वतन है।
चरित्र पवित्र है
इत्र है।
चरित्र सफेद पोश है
दिव्य जोश है
यह यौवन है
आनंद वन है ।
यह अजर अमर है
मोहक घर है।
यह गर्व है
जीवन का शुभ पर्व है।
यह आत्मसम्मान है
महान है।
यह निडर है
सुघर है।
यह हृदय है
सर्वोदय है।
यह नायक है
प्रेम के लायक है।
यह विशुद्ध है
महात्मा बुद्ध है।
चरित्र की रक्षा करो
गन्दी प्रवृत्ति की उपेक्षा करो।

24- लेखन

मेरे पास कुछ नहीं है
सिर्फ लेखन
यही मेरा जीवन है
निजी वतन है
वतन पर रहता हूँ
लेखन करता हूँ
यही पीता हूँ
यही देता हूँ
कोई ले या न ले
साथ में चले या न चले
मैं फर्ज निभाता हूँ
हरि गुण गाता हूँ
स्वान्तः सुख की खोज है
लेखन ही भोज है
पैदल चलता हूँ
हिलता-मिलता हूँ
चार चक्का नहीं चाहिये
सिर्फ स्वाभिमान चाहिये
नैतिकता चाहिये
सर्व मानवता चाहिये
करुणा और दया चाहिये
शील और हया चाहिये
सच्ची प्रीति चाहिये
पावन नीति चाहिये
सन्त चाहिये
प्यारा बसन्त चाहिये
प्यार की लालिमा चाहिये
ज्ञान और भक्ति की ज्योतिमा चाहिये
प्रिय अधरों का रसपान चाहिये
मुक्तक लेखन की शान चाहिये
देव तुल्य मेहमान चाहिये
स्वर्गिक जहान चाहिये
रस छंद अलंकार चाहिये
कविता का उपहार चाहिये
लेखन मेरे रक्त में है
यह मेरे अभिव्यक्त में है
मैं लेखन का कारण हूँ
सुंदर समाज का उच्चारण हूँ
सभ्यता का वरण हूँ
उत्कर्ष का प्रथम चरण हूँ
मैं स्वयं को लिखता हूँ
खुद को पढ़ता हूँ
अपने को गढ़ता हूँ
अंतस में बहता हूँ
लेखनी को प्रणाम करता हूँ
जगती को सलाम करता हूँ
सब का अभ्युदय हो
लेखन की जय हो।

25- क्या यह संभव है?

पाप करो अरु सुख की आशा,
क्या यह संभव हो सकता है?
झूठा जालसाज अति कपटी,
महा पुरुष क्या हो सकता है?
हिंसक क्रूर नीच कुलद्रोही,
क्या कुलीन वह हो सकता है?
माँ का बेटा छीन लिया जो,
क्या पावन वह हो सकता है?
पर-निंदा ही जिस के मन में,
सिद्ध सन्त क्या हो सकता है?
जिस के भीतर विष का थैला,
क्या वह अमृत हो सकता है?
शिक्षक की जो करता निंदा,
क्या वह शिक्षक हो सकता है?

26- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

पावन मन कैसे बने , इस पर सोच विचार।
विकृति बाहर फेंकते, करते रह उपचार।।
करते रह उपचार, दया सब के प्रति रखना।
सब के मन को सींच, कलश अमृत ले चलना।।
कहें मिसिर कविराय, बरसना बन मधु सावन।
उठे प्रेम का ज्वार, बने मन शीतल पावन।।

27- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

जागो उठ कर युद्ध कर, दुर्योधन को मार।
धर्म स्थापना जल्द कर, हे अर्जुन अवतार।।
हे अर्जुन अवतार, बनो तुम जन का नायक।
हर मानव दे साथ, धर्म का बना सहायक।।
कहें मिसिर कविराय, चलो मोह-मदिर त्यागो ।
आओ अर्जुन पास,छोड़ सोना अब जागो।।

28- मिसिर हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

आगे आ बढ़ते रहो, हर संकट को टाल।
एक-एक को टालना, मन में बिना मलाल।।
मन में बिना मलाल, प्रेम से बातें सुनना ।
करना उचित विचार, गौर से सब कुछ गुनना।।
कहें मिसिर कविराय, सदा निर्मल मन जागे।
हर संकट को काट, चलो नित आगे आगे।

29- नीम (दोहे)

नीम देवता का सदा, बोलो जय जयकार।
हैं तरुवर के रूप में, शीतल छायादार।।

गर्मी में अतिशय सुखद, इसकी मीठी छाँव।
कृमि नाशक के रूप में, धोता सबके घाव।।

कई तरह के रोग का, करता यह उपचार।
औषधि परम महान यह, करो नित्य सत्कार।।

गाँवों की शोभा बना, लाता सुखद बहार।
देता अमृत भोग यह, जब भी चलत बयार।।

तरुवर नीचे बैठ कर , जपो राम का नाम।
जीवन के आनंद का, यह नैसर्गिक धाम।।

यदि दरवाजे पर खड़ा, पावन तरुवर नीम।
वहाँ भूल कर भी कभी, आता नहीं हकीम।।

अंग-अंग में नीम के, दवा-दुआ है नेक।
एक नीम में हैं छिपे, गुणसंपन्न अनेक।।

लोक मानता है इसे, दिव्य शीतला धाम।
माता के दरबार में, पाते जन विश्राम।।

30- मिसिर की कुण्डलिया

छोड़ो चिंता मनन कर, मंथन बारंबार।
मंथन से नवरत्न का , करना आविष्कार।।
करना आविष्कार, छिपा है इस में जीवन।
कर अपना विस्तार, स्वस्थ हो अपना तन-मन।।
कहें मिसिर कविराय, ग्रन्थि दूषित को तोड़ो।
रखना शुद्ध विचार, गंदगी सारी छोड़ो।।

31- हरिहरपुरी के रोले

उर प्रेरक को देख, वही हैं राह दिखाते।
महा शक्ति के पुंज,शक्ति सम्पन्न बनाते।।

प्रेरक की सुन बात, चलाचल राह पकड़कर।
चल प्रेरक के साथ, बनो इक मानव सुंदर।।

प्रेरक दिव्य महान , बनाता सुंदर राही।
देता है सद्ज्ञान, मिटाता काली स्याही।।

उत्तम प्रेरक जान, जो बतलाता धर्म पथ।
भर कर शुभ शिव बुद्धि, दे देता है ज्ञान रथ।।

महा पुरुष का साथ, सदा ही पकड़े रहना।
दिव्य आचरण देख, उसी को धारण करना।।

किस्मत को मत कोस, कर्म भूमि को नमन कर।
करना प्रियतर काम, सब के हित का ध्यान धर।।

जग को करो प्रणाम,देख ईश को जगतमय।
कण-कण इन का गेह,हर कणिका शिव ब्रह्ममय।।

32- मिसिर हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

आशा दीप जलाय के, करते रहो प्रकाश ।
अंधकार में जो पड़े, उन को हो अहसास
उन को हो अहसास, होंय वे भी आलोकित।
चलते जायें राह, बिना होये अवरोधित।।
कहें मिसिर कविराय, जगत से मिटे निराशा।
चरैवेति का पाठ, पढ़ाये सब को आशा।।

33- दुर्मिल सवैया

जपते रहना रघुनायक को , भजते चलना मन से रमना।
जगना उन में रखना हिय में सजना उन से उर की कहना।
रहना उन से सहना उन से चलना उन से सब को गहना।
बहना उन में अनुराग लिये अति प्रीति किये दृढ़ता रखना।

34- दुर्मिल सवैया

ममता सब के प्रति हो उगती, धरती पर हो हरियाल सदा।
सब में सहयोग स्वभाव जगे,सब प्रीति करें मन की सुखदा।
अनुराग तड़ाग बहे उर में, सब रीति निभाय करें शुभदा।
अनुशासन हो सब में मम का,सरिता शुचितामय होय वदा।।

35- दुर्मिल सवैया

मनमोहन से मिलना हम को,उन की हर बात गुनें मन से।
उन के उपदेश महान सदा, सुनने चलना हम को तन से।
रसधार स्वभाव भरा उर में, अधरों पर प्रेम बहे सन से।
मधुराग चले मुरली स्वर से,ध्वनि आवत है मधु कानन से।

36- दुर्मिल सवैया

डटना हटना न कभी मन से, दृढ़ भाव रखो चलते रहना।
हर काम करो प्रिय भाव रखो, समझो सब काम सदा सुगना।
मत छोट गनो हर काम भला, सब का कर सेवन शांत बना।
रहना करते खुद काम सदा, मनभावन काम किया करना।

37- हरिहरपुरी कृत दुर्मिल सवैया

टलना मत चाबुक दे मन को, कहना जिस को उस को गहना।
मन भाग रहे यदि तो पकड़ो, जकड़ो बुधि से सहसा बहना।
रहना मतवाल बने चलना, वह काम करो जिस को कहना।
मत दूर भगो डटना सटना,कहना वह बात जिसे करना।।

38- हरिहरपुरी कृत दुर्मिल सवैया

मत छोड़ किसी प्रिय मानुष को, भल मानव को हिय में रखना।
शिव गायन पाठ किया करना, हर गाँव सदा रमते रहना।
मत क्रोध न लोभ रहे मन में, अपने हित का न दिखे सपना।
अपना सपना मनभावन हो,मधु मूरत हो जिमि राम जना।

39- दुर्मिल सवैया

सधते रहना कृतिकार बनो, रचते चलना गहना बनना।
शुभ भाव भरो उजियार करो, अँधियार मिटे रविवार मना।
निज कारज जान रचो जग को, कर दो उसको अति शीतमना ।
बन राम रहीम कबीर सुधी, तुलसी रसखान सुजान घना।

40- दुर्मिल सवैया

करना मत दूषित बात कभी,अति साफ सफा हर बात कहो।
अति पावन भाव रहे मन में, सब के प्रति राग बहाय रहो।
मत द्वेष करो जलना न कभी, अति मोहक पंथ बनाय बहो।
सब के प्रति नेह किया करना,चलते रहना हर बात गहो।

41- हरिहरपुरी कृत दुर्मिल सवैया

हर कष्ट कहो रघुनायक से, सुनते दिल से रहते हरते।
करुणाकर दीन दयाल प्रभू, सब पीर मिटाय चला करते।
सब समिलते बिन भेद किये, सब के दुख को सहते रहते।
प्रिय मीत सभी उनके हिय में,सब में शिव भाव सदा भरते।

42- दुर्मिल सवैया

प्रभु राम सदा सहयोग करें, अपना मनमोहन रूप धरें।
हर मानव का हित ध्यान धरें, सब दीनन में निज प्राण भरें।
चल दें मिलने दुख याद रखें, कृपया सब का अवसाद हरें।
सब के तन में प्रभु बैठ सदा,सब को सुख धाम बहाल करें।

43- हरिहरपुरी कृत दुर्मिल सवैया

जब प्रेम कहे तब राम कहो, हर वक्त जपो रघुनायक को।
जपते चलना भजते रहना, प्रभु दीन दयाल सहायक को।
मतिमंद बनो दुख-दीन रहो, कर जोड़ प्रणाम विनायक को।
मत भूल कभी नित याद करो,दुख-क्लेश निवारक नायक को।

44- डॉ०रामबली मिश्र का दुर्मिल
सवैया

सब की सहना कहना कुछ ना, भय-क्रोध दफा करते रहना।
बहरा बन चाल चलो सुगना, ललना सब का बन के दिखना।
मत ग्लानि रखो मन में सजना, दिन-रात दिखे प्रभु का वदना।
चल खोजन को प्रभु के चरणा,शरणागत हेतु बढे नयना।

45- हरिहरपुरी का दुर्मिल सवैया

लिखना कहना रघुनाथ कथा, यह पावन गंग सुधा जल है।
इस में रस धार अमी सरिसा, शिव प्यार अपार सदा चल है।
अचलाचल सिंधु महान महा, मधु ज्ञान भरा प्रिय निर्मल है ।
रसना कहती रहती सब से, अजपाजप जाप स्वयं बल है।

46- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

गीता की मूरत सहज, परम दिव्य शालीन।
भरा हुआ है प्रेम रस, अमृत अमर कुलीन।।
अमृत अमर कुलीन, वंश है पावन जग में।
जो करता प्रिय कर्म, जगत है उसके पग में।।
कहें मिसिर कविराय, कृत्य है जहाँ पुनीता।
मिलता है सद्ज्ञान, भक्तिमय सारी गीता।।

47- हरिहरपुरी कृत सवैया

ममता सजती रहती वसुधा, अति प्यार सिखावत है जग को।
सब की बन शान चले मग में, उपदेश सदा करती सब को।
सब में सद्भाव भरा करती, बन शीतल नीर छुए पग को।
रसयुक्त यही रजनी सजनी, सब चूम चलें इस के रग को।

48- डॉ० रामबली मिश्र कृत सवैया

तरना भव सागर से करना, हर सुंदर काम रहे मन में।
शुभ मानव भाव पिलाय चलो, अति व्यापक रूप रहे तन में।
शिव वाण चले मनमोहन का, मधुरी रसना अनुशासन में।
मत होय कठोर कभी जियरा, मन बैठ रहे शिव आसन में।

49- दुर्मिल सवैया

कविता लिखना मधु भाव लिये, भरना उस में रस धार प्रिये।
लिखना अपने दिल की बतिया,पतिया रतिया मनहार हिये।
सखियाँ सब गीत कहें मन से,मिल जायँ वहीं प्रभु राम सिये।
शिव सावन पावन हो शुभदा,बरसे बदरा मधुमास लिये।

50- हरिहरपुरी कृत सवैया

मधु कानन में रसराज छिपे, बजती बसुरी कहती चलती।
सब नेह करें सब राज रजें, सब में तब प्रीति बहा करती।
सब सत्व बनें सब सत्य रचें, रसना अमि हास बनी चरती।
सब त्याग करें प्रियवाद पढ़ें,सखि की अनुरक्ति तभी बढ़ती।

51- डॉ०रामबली मिश्र कृत
सवैया

सबसे कहना बस बात यही,हर काम तजें सब राम भजें।
चलना बस राम सुपंथ धरे, प्रभु नीति लगे सुखदा सहजे।
सब राम सुसंस्कृति धारण से, बन राम चलें अति दिव्य सजे।
सब की रसना पर राम छपें, सब राम कहें नित राज रजें।

52- हरिहरपुरी का सवैया

मनमीत सदा बस साथ रहे,हर बात प्रिया मनमोहक हो।
लग जाय नहीं कुछ और मिले, बस मोहन मीत सुसोचक हो।
उर में बस प्रीति रहे बहती,इक मूरत में द्वय पोषक हों।
मनमीत मिले हिय में खिलते, शुभ रूप धरे मधु घोलक हो।

53- डॉ०रामबली मिश्र का
सवैया

करना मत बात कभी उससे, जिसके मन में नित चोर घुसा।
समझे अति उत्तम बात कहाँ, जिसके दिल में अरि द्वेष फँसा।
नहिं मानत है उपदेश कभी, जिसके उर में अति मोह धँसा।
कबहूँ नहिं जागत है मनवा,जब कंठ पिशाच दुधार बसा।

54- हरिहरपुरी कृत सवैया

मन डोल रहा कुछ बोल रहा,अपने उर में कुछ घोल रहा।
कुछ तोल रहा कुछ मोल रहा,कुछ माप रहा कुछ खोल रहा।
कुछ चाह रहा कहना खुद से, खुद में बजता इक ढोल रहा।
अपनी सुनता अपनी करता, अपने मन का मन छोल रहा।

55- हरिहरपुरी कृत सवैया

कहना कुछ ना रहना छिप के, बचना सबसे चलना चुपके।
नित भाव प्रदर्शन से डरना, मत जंग चढ़ो रहना बचके।
कुछ बोल नहीं नित मौन रहो, शुभ काम करो हट के डट के।
प्रिय काम सदा शुभदा यशदा,हर काम करो हित में सबके।

56- डॉ०रामबली मिश्र का
सवैया

सबके मन में खुशियाँ भर दो, सबका दिल जीत लिया करना।
सबके मन की फरियाद सुनो,सबका दुख- कष्ट सदा हरना।
सबके प्रति प्रेम उमंग जगे, सबका हित साधक हो चलना।
सद्धर्म करो भगवान बनो, शिवमर्म स्वयं बनते रहना।

57- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

समता की क्षमता करो,विकसित बनो महान।
समता पावन भाव का,सदा करो यशगान।।
सदा करो यशगान, लोक में मानव फूले।
उन्नति करे समाज,हृदय हर्षित हो झूले।।
कहें मिसिर कविराय, जगे सब में मानवता।
हो मानव में प्रेम, भरे सब में नित समता।।

58- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

माँगो केवल एक फल,यह अति दुर्लभ भाव।
मन को माँगो यदि मिले,यह अत्युत्तम गाँव।।
यह अत्युत्तम गाँव, प्रीति में सना हुआ है।
यह अति मोहन रूप, मधुर सा बना हुआ है।।
कहें मिसिर कविराय, बस स्वेच्छा में जागो।
कोई यदि कुछ देय, प्रेम से मन को माँगो।।

59- मिसिर हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

देना है यदि हृदय से, दो मुझको प्रिय चीज।
बहुत बड़ी वह चीज है,पावन मन का बीज।।
पावन मन का बीज, वृक्ष बनकर उगता है।
देता शीतल छाँव, पवन सा हो चलता है।।
कहें मिसिर कविराय,दान मन का ही लेना।
एवज में बस एक, ज्ञान आगे रख देना।।

60- हरिहरपुरी का सवैया

मिलना प्रिय से करना दिल से, हर बात कहा करते रहना।
भर अंक सदा रमते रहना, मुँह में मुँह डाल बहा करना।
सब पीर हरो हर क्लेश कटे, उसके मन को पढ़ना लिखना।
मन में अति प्यार भरा करना, प्रिय के दिल से जुड़ते चलना।
मत वाद करो प्रतिवाद नहीं, शुभ भाव बने मन से बहना।
चल हाथ मिलाय निहाल हुए,उसके प्रति स्नेहिल हो दिखना।
मिल एक बने चलना फिरना, मधु सावन मास सुधा बनना।
अति आतुर भाव बहे मन में , उर आँगन रास सदा रचना।

61- हरिहरपुरी का सवैया

जब भाव दिखे अनमोल लगे, करते रहना अदला-बदला।
जब मानव दीख पड़े सुथरा,तब सोच नहीं अगला-पिछला।
जब कर्म लगे अति पावन सा, तब स्नेह जगे सबमें सजला।
मन में जब मोहक मूरत हो, उसको कह दो मनुजा पहला।

62- पावन संकल्प (दोहे)

सबके प्रति संवेदना, का हो दृढ़ संकल्प।
देना सीखो मनुज को, मानवीय अभिकल्प।।

संकल्पों में प्रेम हो, करुणा दया अपार।
सुंदर मानव मूल्य से, बने दिव्य संसार।।

पावन भावों में दिखे,सदा भगीरथ गंग।
संकल्पों की नींव पर, खड़ा रहे नित अंग।।

मानवता की नींव को, करते रह मजबूत।
स्वयं चलो आगे बढ़ो, अपने ही बलबूत

करते रहना अनवरत, अपने मन को शुद्ध।
जग में खुद को पेश कर, बनकर गौतम बुद्ध।।

दृढ़ता से ही काम कर,दो विचलन को डार।
वही सफल नाविक करे, जो नैया को पार।।

63- दुर्मिल सवैया

जब प्रेम पले मत छेड़ उसे, बढ़ते उस का नित ध्यान करो।
हर रोज मिलो सब ख्याल रखो,मुरझाय नहीं यह बात धरो ।
अति स्नेह करो बहु प्यार करो,उसको करते रहना सुघरो।
जब प्रेम जवान दिखे तुम को, उसको जग में रखना सगरो।

64- हरिहरपुरी विरचित
दुर्मिल सवैया

रहना मन में बसना उर में, कहती रहना हर बात सखी।
मनभावन हो प्रिय पावन तू,सद्भावन को नयना निरखी।
तुझको सब में सब को तुझ में, तव रूप निखार प्रभा सुमुखी।
मम संग रहो सजनी बन जा, धरती जगती सब होय सुखी।

65- दुर्मिल सवैया

अति स्नेह करो हिय संग रहो, कुछ हाथ धरो चल साथ चलो।
कुछ रंग दिखे कुछ भाव जगे, कुछ रास रचो मन माहि पलो।
चल दे अविलंब न देर करो, उठ प्रेम तड़ाग नहाय हिलो।
कुछ खेल करो कुछ मेल करो,कुछ पास रहो कुछ दूर टलो।

66- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

प्रीतम के निज गाँव का, करना है अब खोज।
जीवन का यह ध्येय है, रहे दिव्य मन ओज।।
रहे दिव्य मन ओज,ढूढ़ना बहुत जरूरी।
पाना है वह देश,भले हो ज्यादा दूरी।।
कहें मिसिर बलिराम, लोक वह पावन अनुपम।
करते रहो प्रयास,मिलेगा निश्चित प्रीतम।।

67- मेरी पावन शिव काशी

जिसे बुलाती वह आता है,रहने को हो कर वासी ;
जिस पर शिव की कृपादृष्टि हो, वह बनता है प्रत्याशी;
जन्म-जन्म के सत्कर्मों का,पुण्योदय जब होता है;
सदा बुलाती महामना को,मेरी पावन शिव काशी।

सरल-सहज ही बन सकता है, अद्भुत काशी का वासी;
सुंदर रम्य सुरम्य लोक यह, इस पर मोहित संन्यासी;
टिकता वही धरा पावन पर,शिवशंकर की चाहत जो;
छल-प्रपंच से दूर खड़ा जो,उसको मिलती शिव काशी।

68- मेरी पावन शिव काशी

धर्मपरायण मन में रमता, रहता तत्व सहज न्यासी;
सच्चाई की राह पकड़कर, बनता मानव अविनाशी;
जिसके मन में द्वेष नहीं है, वह शंकर बन जाता है;
जिसका मन शिव का अनुयायी, उसे बुलाती शिव काशी।

जो गरीब का सच्चा सेवक, उसकी इच्छाएँ प्यासी;
नित्य चाहतीं बन जाने को, मानवता की प्रिय दासी;
तड़प रहा हो जो देने को, हर दुखिया को अपनापन;
स्वागत करती उस मानव का, मेरी पावन शिव काशी।

69- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

आये सुखद बसंत ऋतु, हर डाली में फूल।
मत निराश होना कभी, हो आशा अनुकूल।।
हो आशा अनुकूल,सभी की किस्मत जागे।
घोर निराशावाद,हृदय से निकले भागे।।
कहें मिसिर कविराय,सभी में मधुरिम छाये।
प्रकृति बहाती रंग,निकट वह सबके आये।

70- मेरी पावन शिव काशी

जो भी आया यहाँ घूमने, खिंचा बना अन्तेवासी।
जो भी आया इसे देखने,बना यहाँ का अभिलाषी;
इस मिट्टी में कस्तूरी की, मोहक गंध महकती है;
तीन लोक में अद्वितीय है ,मेरी पावन शिव काशी।

जो करता है घोर तपस्या, वह बनता काशीवासी;
जिसकी किस्मत अत्युत्तम है, उसे भेजते अविनाशी;
जो निर्मल गंगा जल जैसा, सद्विवेकमय प्राणी है;
धन्यवाद देती है उसको, मेरी पावन शिव काशी।

71- हरिहरपुरी का दुर्मिल सवैया

शुभ भाव जहाँ रहता दिखता,इक गाँव सुहावन गंग तटे ।
मन में तब प्रेम नदी बहती, लहरें उठतीं मझधार सटे।
मलयागिरि चंदन की खुशबू , महके गमके दिन-रात कटे।
यह साजन का प्रिय गाँव सुधा,हर तामस वृत्ति प्रभाव छँटे।

72- हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

जनता से मिलते रहो, सुनना उसकी बात।
बात-बात में मत करो, जनता पर आघात।।
जनता पर आघात, होत है बहुत अपावन।
पापों का यह ढेर, नहीं बनता मधु सावन।।
कहें मिसिर कविराय,बहे धरती पर समता।
मन में हो आह्लाद, रहे खुश सारी जनता।

73- हरिहरपुर के मिसिर की कुण्डलिया

प्यारा तेरा नाम है, अनुपम तेरा भाव।
दिव्य मनोहर रूप है, शीतल तेरी छाँव।।
शीतल तेरी छाँव, बहत पुरुवाई जमकर।
अंग-अंग में जोश, रहत फड़कत मन सुंदर।।
कहें मिसिर कविराय, तुम्हीं नयनों के तारा।
बन जाओ अब मीत, हृदय से लगना प्यारा।।

74- हरिहरपुरी का सवैया

प्रिय नाम जपा करते रहना, प्रभु रूप सदा सुघरा निखरा।
शुभ काम सदा करते रहते, हरि मध्य धरा रहते विखरा।
सबको प्रभु देत सहाय बने, अति स्वच्छ बने बुध सा सुथरा।
दुख-शोक हरें हर काम करें, विपदा करते चिथरा -चिथरा।

75- पर्यावरण दिवस पर सवैया

सबसे कह दो इक बात यही,सब वृक्ष लगाय हरें दुखना।
हर रोज लगे इक पेड़ सदा,सबका मन शीतल हो सुखना।
सब वायु सुधा नित पान करें,सब स्वस्थ रहें शुभदा सदना।
वसुधा अति निर्मल प्राण भरे,सबका मन मंगल हो शुभना।

76- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

हार्दिक मानवता खिले, सजें पुष्प बहु रंग।
सुरभित मधुरिम फूलमय ,लगे विश्व नौ रंग।।
लगे विश्व नौ रंग, रंग की दुनिया न्यारी।
लगे सुहावन दिव्य,भंगिमा अतिशय प्यारी।।
कहें मिसिर कविराय, गीत गाओ नित वैदिक।
धन्य होय संसार, सुने वचनामृत हार्दिक।।

77- मेरी पावन शिव काशी

वरुणा नदिया उत्तर दिशि में, अस्सी नद दक्षिण वासी;
दास-दासियाँ शिव चरणों की, जन्म-जन्म की हैं प्यासीं;
मस्ताना अंदाज निराला ,औघड़ नित मिल जाते हैं ;
वरुणा-अस्सी के संगम पर,मेरी पावन शिव काशी।

78- मेरी पावन शिव काशी

शिव भावों में रंगे हुये हैं, पावन काशी के वासी;
मूल निवासी या बाहर के, सब काशी के मृदु भाषी;
हर कंकड़ शंकर समान है,काशी की श्रद्धा है यह;
गगन लोक से नीर क्षितिज तक, मेरी पावन शिव काशी।

भावों में ही जी सकता है,हर कोई काशी वासी;
भावों को ही पा लेने को,काशी की जनता प्यासी;
भावों की जगती के रस का,केंद्र यहाँ की वसुधा है;
भाव सिंधु के महाकाश में, मेरी पावन शिव काशी।

79- मेरी पावन शिव काशी

अभिलाषित सारी दुनिया है, बनने को काशी वासी;
काशी को सम्मानित करते,धार्मिकता के अभिलाषी;
जगती का सिरमौर बनी है, काशी की सारी धरती;
आत्मा-जीव मिलन का संगम, मेरी पावन शिव काशी।

मन में जब अभिलाषा उठती, बनने को काशी वासी;
मन में जब प्रत्याशा खिलती, मानव बनता प्रत्याशी;
मन के मोहक भाव सिंधु में, जब मानव हो डूब रहा;
सहज भाव से उसे बुलाती, मेरी पावन शिव काशी।

सकल लोक का नायक बनकर, जीते हैं काशी वासी;
नहीं किसी की चिंता करते, अपने पर ही विश्वासी;
नहीं प्रपंचों से मतलब है,मस्ती में सब झूम रहे;
महिमामण्डित सबको करती, मेरी पावन शिव काशी।

जो निराश मानव आता है,कल्पवास करने काशी;
वह मुमुक्ष बन रह जाता है,शिवशंकर का अभिलाषी;
मुक्त भाव से विचरण करता, गंग स्नान करता प्रति दिन;
बनी हुई है मोक्ष धाम यह, मेरी पावन शिव काशी।

नृत्य मयूरी जब करती है,बनने को काशी वासी;
भक्ति मोरिनी सहज ठुमुकती,जब काशी की अभिलाषी;
स्नेहिल भावों की छाया जब,मधु मिश्रित रस बरसाती;
वहीं खड़ी है बड़े प्रेम से, मेरी पावन शिव काशी।

80- आल्हा शैली मात्रा 16/15

काशी के वासी संन्यासी, उनकी महिमा अपरंपार।
बड़े भाग्य से हुए निवासी,आये काशी बने सितार।
सत्कर्मों का फल वे पाये, रचा प्रेम से है करतार।
मोक्ष हेतु काशी में घूमे, मानवता से सच्चा प्यार।
कर में धर्म ध्वजा लहराते,अपने मन पर किये प्रहार।
सच्चाई की राह दिखाकर, बने सभी के खेवनहार।
सहज संयमित जीवन शैली, पहने उपदेशों का हार।
सुख-दुख से वे ऊपर उठकर,समझे काशी को ही सार।
मन के मैलेपन को धोकर, हुए स्वयं पर सहज सवार।
विश्व एकता की बातों का, किये निरन्तर दिव्य प्रचार।
काशी के सब सन्त शिरोमणि, हैं जीवन के मूलाधार।

81- हरिहरपुरी के रोले

कर सबका सम्मान, यही है सहज तरीका।
बढ़ती जग में ख्याति, लगत मानव अति नीका।।

होता है गुणगान,सरल होता जो मानव।
जिसके दूषित कृत्य, वही बनता है दानव।।

छोड़ो सदा कुसंग, दुष्ट को मत अपनाओ।
कर सज्जन से प्रेम, संत बन राह दिखाओ।।

वृद्ध ईश समतुल्य, वृद्ध की सेवा करना।
पाओ अमृत भोग, स्वयं अमृत बन रहना।।

गुरु होते आदर्श, बनाते जग को ज्ञानी।
देकर सच्चा ज्ञान, सिखाते बनना ध्यानी।।

बन सच्चा इंसान,राजनीति को छोड़ कर।
खुद का करो सुधार,आत्म का करो स्वयंवर।।

82- हरिहरपुरी के सोरठे

सबसे बुरा कुसंग, सत्संगति धारण करो।
सदा रहे मन चंग, हो यह पावन अति सहज।।

सदा बदलता रंग,नहीं पावन हो सकता।
जो करता सत्संग,वह बड़ भागी मनुज है।।

जिसमें श्रद्धा भाव,वही ज्ञान पाता सहज।
गन्दा जहाँ स्वभाव, वह भोगी दानव दनुज।।

परहित जिसके कर्म, वही पुरुष सुंदर मना।
कर्म उसी का धर्म, जो संवेदनशील है।।

जो करता है त्याग,वही राम के तुल्य है।
सच्चाई से भाग, जाता दानव पतित है।।

पावन शुद्ध विचार, बुलाता स्वर्ग धरा पर।
बहती है रसधार, जहाँ मंगली कामना।।

बन जा सुंदर भाव, रचो इक पावन जगती।
उत्तम भाव अभाव,कभी नहीं कल्याणमय।।

83- खोज लो देवत्व (सजल)

खोज लो देवत्व अपने आप में।
मत करो विश्वास अपने पाप में।।

ढूंढना ही धर्म है हर मनुज का।
मत बिताओ जिंदगी संताप में।।

खोजने से क्या नहीं मिलता भला?
शीत के भी भाव दिखते ताप में।।

मत बुराई कर किसी का कर भला।
दो समय बस सत्यता के जाप में।।

हैं जगत में देवता दानव दनुज।
खर्च कर ऊर्जा स्वयं के नाप में।।

बढ़ चलो संसार के शिव पंथ पर।
सीख रहना आतमा के चाप में।।

मनुज हो हैवान बनना मत कभी।
खोज लो देवत्व को परिताप में।।

84- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

जीवन को आसान कर, कामवासना त्याग।
परहित कर्मों के लिये, मन में हो अनुराग।।
मन में हो अनुराग, काम को नित्य भगाओ।
सेवा भाव प्रवृत्ति, हृदय में सहज जगाओ।।
कहें मिसिर कविराय,रहे निर्मल चेतन मन।
मानव का कल्याण, करे सारा यह जीवन।।

85- मेरी पावन शिव काशी

तत्व परम कल्याणजनक ही, बना हुआ काशी वासी;
सबके मन को मंत्रमुग्ध ,कर देते शंकर अविनाशी;
तरस रहे हैं सब छूने को, काशी की पावन माटी;
शिव-शिवता से सराबोर है, मेरी पावन शिव काशी।

सुर-लय-ताल-गीत-संगीता, से सज्जित काशी वासी;
संगीतों के मधुरालय में, सहज थिरकते रनिवासी;
ढोल-मजीरा की स्वरलहरी,चूमा करती कण-कण को;
गीत-प्रेम का महाकुंभ है, मेरी पावन शिव काशी।

86- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

लेखक बन लेखन करो, रचो स्वस्थ संसार।
खोट ढूढ़ अमृत भरो, धरो सत्य आधार।।
धरो सत्य आधार, शिलान्यास हो सुंदर।
शिल्प विधान महान, दिखे अति मोहक मनहर।।
कहें मिसिर कविराय, बनो दुनिया का खेवक।
धरती पर उजियार,बुलाओ बनकर लेखक।।

सींचो वृक्षों को सदा,कर इनका सम्मान।
उत्तम पर्यावरण पर, हो मानव का ध्यान।।
हो मानव का ध्यान, प्रकृति से निकले खुशबू।
हरियाली चहुँओर, निकाले बाहर बदबू।।
कहें मिसिर कविराय, सभी के मन को खींचो।
सतत लगाओ वृक्ष, निरन्तर जल से सींचो।।

87- दुर्मिल सवैया

दिल दे मन से हर बात करे,समझो उसको धरमी नरमी।
मरमी सब जानत है मन की, कुछ नाहिं छिपावत है धरमी।
अति प्रीति करे सब देन कहे, दिल खोल दिखावत है मरमी।
प्रिय रूप सजा मन मस्त रहे, हर भाव प्रणम्य सदा गरमी।

88- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया

कोमल पुष्प मसल नहीं, इससे बनता हार।
जिसे पहनकर विष्णु भी, मानत हैं उपकार।।
मानत हैं उपकार, भक्त की करते रक्षा।
देते हैं वरदान, ज्ञान प्रेम और दीक्षा।।
कहें मिसिर कविराय,फूल होता है निर्मल।
देवों का श्रृंगार, बहुत नाजुक प्रिय कोमल।।

89- हरिहरपुरी के दोहे

प्रेम भाव मानव महा, मूरत परम विशिष्ट।
कोमल चित्त कृपाल नित, अतिशय पावन शिष्ट।।

प्रेम सकल ब्रह्माण्ड का, नायक दिव्य महान।
इस नायक के रूप में, केवल हैं भगवान।।

प्रेमशास्त्र का नित करो, मन-दिल से अभ्यास।
इसे समझने के लिये, करते रहो प्रयास।।

प्रेम वही पर पनपता,जहाँ सत्य-सम्मान।
विषय-भोग यह है नहीं, यह है मूल्य महान।।

यह संस्कृति अति पावनी, यह कृति सात्विक भान।
इसको लेकर संग में, गाते कान्हा गान।।

यह अति शीतल छाँव मधु, मंद-मंद मुस्कान।
राधा का परिधान यह, श्री कृष्णा का ध्यान।।

लिये अंक में राधिका, कान्हा करते नृत्य।
पूजनीय यह प्रेम है, राधे-कान्हा स्तुत्य।।

मंगलकारी प्रेम है,करत अमंगल नाश।
जगती के कल्याण में, करता यही निवास।।

सहज प्रेम के देश में, आदि शक्ति का वास।
यही सृष्टि की आतमा, यह है सबकी श्वांस।।

जहाँ प्रेम का संचरण, वहाँ देव का धाम।
जय जय बोलो प्रेम की, जपो प्रेम का नाम।।

ईश्वर का संदेश यह, सबका सबसे प्रेम।
एक दूसरे का वहन, होये योग-क्षेम।।

90- कुण्डलिया

पैसा-पद-सम्मान ही, सब नेता की चाह।
सदा लाभ के द्वार पर,अंतिम इनकी राह।।
अंतिम इनकी राह, सदा ये तिकड़म करते।
स्वारथ में आकंठ, डूब कर मरते रहते।।
कहें मिसिर कविराय, नहीं ये ऐसा-वैसा।
भूख लगी है तेज, चाहिये इनको पैसा।।

91- मिसिर की कुण्डलिया

तुझको इतना मानता, मत करना इंकार।
ठुकरा देना याचना, कभी नहीं सरकार।।
कभी नहीं सरकार, बैठ मेरे सिरहाने।
प्रेम सिंधु में डूब, चलें हम आज नहाने।।
कहें मिसिर कविराय,दान में मिला है मुझको।
उद्यत है यह वीर, बहुत देने को तुझको।।

92- हरिहरपुरी का दुर्मिल सवैया

कहता चलता रघुनायक से, प्रभु ज्ञान सदा हमको अब दो।
अपने हिय में मुझको रखना, अपना अनुशासन मानस दो।
दिल में अनुराग तड़ाग बहे,अब प्रीति परस्पर का वर दो।
मन में बस आप बसें मन से, मुझमें शिव भाव सदा भर दो।

93- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

प्यारे-प्यारे गीत से,कर सबका सत्कार।
हृदय चीर दिखला सभी, को अपना मधु प्यार।।
को अपना मधु प्यार,करो सब पर न्योछावर।
जग में मनसा घूम, बने मोहक यायावर।।
कहें मिसिर कविराय,बनो आँखों के तारे।
अपने उर में खींच, सभी को बनकर प्यारे।

94- कोरोना को हम जीतेंगे
(चौपाई)

कोरोना को हम जीतेंगे।
कोरोना को हम पीटेंगे।।
नहीं दरिंदा कुछ कर सकता।
अपने मूँह मिया मिट्ठू बनता।।

इसकी ऐसी-तैसी करना।
इसका चेहरा खूब कुचलना।।
इसे चीन पहुंचाना होगा।
बिल में इसे घुसाना होगा।।

आपस में बस दूरी रखना।
मजबूरी में निकट न रहना।।
मास्क लगाकर चलते जाना।
दो गज दूरी को अपनाना।।

यही अस्त्र है यहीं शस्त्र है।
यह सैनिक का असल वस्त्र है।।
दूर रहो आपस में प्यारे।
रहना सीखो न्यारे-न्यारे।।

95- गलत काम से डरते रहना
(मधुशाला के परिप्रेक्ष्य में)

गलत काम से डरनेवाला, पीता निर्भय बन हाला;
नहीं धड़कता दिल उसका है, बना विचरता मतवाला;
आत्मतुष्ट हो जीवन जीता, सबको गले लगाता है;
संयम से रहने की शिक्षा,देता बनकर मधुशाला।

सत्कर्मों से प्रेम जिसे है, वही विश्व का शिव प्याला;
सबके प्रति जो अनुरागी है ,वही बड़ा पीनेवाला;
स्नेह और सम्मान बाँटने,वाला जन सहयोगी है;
सबके दिल में मार हिलोरे,घुमड़ रही है मधुशाला।

96- राम नाम की हाला पी कर
मात्रा भार 16/14

राम नाम की हाला पी कर,बनकर चलना मस्ताना;
जपते रहना रामसिया को,दिखना जैसे दीवाना.,
राम नाम की चादर ओढ़े, एक रूपता ले आओ.,
बन जाओ बस रामनाममय ,मन में जागे शिव ध्याना।

97- नया घर(कुण्डलिया)

छोड़ा घर वह इसलिये, देखा सुंदर गेह।
सुंदर घर में लग रहा, था अति हितकर स्नेह।।
था अति हितकर स्नेह, लाभ का स्वर्णिम मौका।
इसीलिए तो चाल, चली वह लेने छक्का।।
कहें मिसिर कविराय, मनुज जब खाता कोड़ा।
चला लाभ के गेह,स्वयं पहले को छोड़ा।।

98- बरसो रस (कुण्डलिया)

बरसो बस दिन-रात नित, गरजो मत घनघोर।
धीरे-धीरे रस पिला, रस भींगे चहुँओर।।
रस भींगे चहुँओर,प्रीति की रहे निशानी।
मीठी हो मुस्कान, अधर पर मधुरी वानी।।
कहें मिसिर कविराय, प्रेम से प्रति पल हरसो।
अति मोहक सुकुमार, बने आ उर में बरसो।।

99- सच्चिदानंद (दोहे)

सत-चित अरु आनंद से, बनते हैं भगवान।
सदा सच्चिदानंद पर, लगे हमारा ध्यान।।

जिसकी सत्ता है सदा, कायम अमर महान।
उसको ही तुम समझना, एक दिव्य भगवान।।

सुख का जो आधार है, हर प्राणी का मूल।
उसको ही नित जान लो, सदा महकता फूल।।

मन मानस अति सौम्य शुभ, निर्गुण-सगुण सुनाम।
यही सच्चिदानंद का, पावन उत्तम धाम।।

वह अनाम बहु नाम है, राम श्याम अविराम।
उसके पावन चरण में, देख स्वयं का धाम।।

परम सच्चिदानंद ही, अखिल लोक के नाथ।
प्राणि मात्र को चाहिये, सिर्फ ईश का साथ।।

जहाँ सच्चिदानंद हैं, वहीं अयोधया देश।
प्रिय काशी मथुरा वहीं,वहीं दिव्य सन्देश।।

देख सच्चिदानंद को ,अपने भीतर झाँक।
लौकिकता मिट जयेंगी, जल कर होगी राख।।

सत-शिव-सुंदर भाव ही, दिव्य सच्चिदानंद।
इन मूल्यों से बह रहा, सरस मधुर आनंद।।

आसानी से मान लो, ब्रह्म स्वयं आनंद।
आनंदक हर वस्तु में, रहते ब्रह्मानंद।।

सहज आत्म के रूप में, सरल सच्चिदानंद।
ऐसा करना कर्म जो, दे आत्मिक आनंद।।

नहीं भाग्य में दैत्य के, कभी सच्चिदानंद।
दैत्यों को मिलता कहाँ, कभी दिव्य मकरंद।।

ब्रह्मानंदी जो नहीं, वह सूकर मन-देह।
दुर्गंधित वातावरण, गन्दा नाला गेह।।

परम सच्चिदानंद में, जो करता विश्वास।
उसी मनुज के देह-मन ,में ईश्वर का वास।।

जिसका निर्मल मन-हृदय, वही सच्चिदानंद।
हितसाधक परमारथी,पावत सहजानंद।।

देख भोग में योग को, और योग में भोग।
योग-भोग संवाद से, कट जाते भव रोग।।

देख सच्चिदानंद को, योग-भोग में नित्य।
यह आनंद प्रसाद मधु, मधुर धाम प्रिय स्तुत्य।।

मधुर हृदय मन निर्मला, पावन सहज विचार।
मनमोहक आनंद की, यह है सुखद बहार।।

जहाँ सच्चिदानंद हैं, वहीं सर्व प्रिय पर्व।
खोजो निज में बैठकर, करो आत्म पर गर्व।।

100- दुर्मिल सवैया

करना सबका अति मान सदा, अपमान कभी मत भूल करो।
सम-आदर भाव विभोर करो, सबके उर में मधु स्नेह भरो।
सबको अपने उर में रख लो, शिव शंकर हो अति मौन धरो।
प्रिय राग सुहाग रहे मन में, शुभ रात मने भव सिंधु तरो।

कुण्डलिया

चेतक सिंह प्रताप का, अति बलशाली वीर।
अकबर को ललकार कर, जग का बना सुधीर।।
जग का बना सुधीर, नहीं कोई टिक पाता।
हो जाता वह ध्वस्त, पास में जो भी जाता।।
कहें मिसिर कविराय,शेर राणा थे प्रेरक।
करता खूब कमाल, सहज ही योद्धा चेतक।।

हरिहरपुरी की कुण्डलिया

राणा सिंह प्रताप की, कितनी अद्भुत चाल।
बड़े-बड़े दुश्मन जमीं, पर गिर हुये हलाल।।
पर गिर हुये हलाल, पता कुछ नहीं चला था।
सड़ा कब्र में नीच, सैन्य बाहर निकला था।।
कहें मिसिर कविराय,शेर ने अरि को फाड़ा।
हिंदु विरोधी शक्ति,मार-काटा था राणा।।

मिसिर की कुण्डलिया

आत्मा परम अजर अमर, यह अकाट्य सन्देश।
आत्मा के सिद्धंत पर, चल बन राम नरेश।।
चल बन राम नरेश, आत्म को मौलिक जानो।
आत्मा असली नाम, नाम को खुद पहचानो।।
कहें मिसिर कविराय,पहन लो जोड़ा-जामा।
कर लो अपना नाम, बनो सामाजिक आत्मा।।

कुण्डलिया

चलना ऐसी चाल जो, दे दे पावन लक्ष्य।
सभ्य सुसंस्कृत मनुज बन, चाहे रहो अलक्ष्य।।
चाहे रहो अलक्ष्य, स्वार्थ की डोर न छूना।
जो भी तेरे संग,सीख उसको दे दूना।।
कहें मिसिर कविराय, सब्र कर जीते रहना।
लख आत्मिक सिद्धांत,समर्थक बनकर चलना।।

मिसिर की कुण्डलिया

वाचन हो शुभ भाव का, सत्कर्मों का जाप।
एक जगह पर बैठ कर, सारी पृथ्वी नाप।।
सारी पृथ्वी नाप, भ्रमण मत करना भ्रम में।
शिव-गणेश को देख,घूम थोड़े से श्रम में।।
कहें मिसिर कविराय, ग्रहण कर सुंदर आसन।
बनो बुद्धि का सिंधु,करो विवेक का वाचन।

मिसिर हरिहरपुरी की
कुण्डलिया

जपते रहना राम को, है शरीर का धर्म।
लौकिक कर्मों को सदा, समझ राम का कर्म।।
समझ राम का कर्म,राम को देखो सब में।
राम दिखें चहुँओर,क्षिति-जल-पावक-गगन में।।
कहें मिसिर कविराय, राममय बन जो चलते।
वही सहज अविराम, राम को कहते जपते ।।

Language: Hindi
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