डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी का
डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी का
विश्व हिंदी शब्द कोश
(खण्ड- 4)
1- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
सोचो बुद्धि विवेक से, मन पर कसो लगाम।
पावन चिंतन ही बने, इस जीवन का धाम।।
इस जीवन का धाम, बने अति सुंदर मोहक।
मन पाये विश्राम, बने जग का संबोधक।।
कहें मिसिर बलिराम, किसी को मत तुम नोंचो।
अच्छाई की राह, जरा सा दिल से सोचो।।
मिसिर जी की कुण्डलिया
भेजो शुभ सन्देश यह, रहें सभी खुशहाल।
थोड़े से ही जान लें, अपना सुंदर हाल।।
अपना सुंदर हाल, बनाओ शुभ चिंतन से।
नष्ट करो दुर्भाव, सजाओ सब को मन से।।
कहें मिसिर कविराय, देना सहज में ले जो।
अपना पावन भाव, जगत में खुश हो भेजो।।
2- रूठ न जाना कभी मीत से
रूठ न जाना कभी मीत से।
सहज हृदय से मिलते रहना।।
भला- बुरा मत कहना वन्दे।
निर्छल मन से सब कुछ कहना।।
मीत बड़ा होता है सब से।
सदा मीत की इज्जत करना।।
क्रोध न करना कभी मीत पर।
प्रेम पुष्प का अर्पण करना।।
दिल में रखना सदा मीत को।
रसमय बातें करते रहना।।
अंकों में भर लो मीतवा को।
डाल हाथ में हाथ मचलना।।
छोड़ न देना कभी मीत को।
प्रेम पताका ले कर चलना।।
मुँह में मुँह को डाल थिरकना।
मुस्काते अरु हँसते रहना।।
रूठ न जाना साथ निभाना।
उर-पुष्पक पर सतत विचरना।।
3- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया
सहसा काम करो नहीं, चिंतन कर गंभीर।
स्थिर सतत प्रयास कर, बनो बहादुर धीर।।
बनो बहादुर धीर, सोच कर चलते रहना।
रखना उन्नत ख्याल, समझ कर सब कुछ करना।।
कहें मिसिर कविराय,श्रम कर बौद्धिक जन सा।
होता मनुज निराश, काम जब करता सहसा।।
डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया
प्रियता में है रस भरा, कर मधुमय संवाद।
निर्विवाद हो जगत में, चल बन कर आजाद।।
चल बन कर आजाद,प्रेम से सब से बोलो।
बरसे रसमय मेह, हृदय-मन मुख को खोलो।।
कहें मिसिर बलिराम, रहे मन-उर में शुचिता।
मादक मधुर सुबोल,बहाये जग में प्रियता।।
4- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
कोमल चित श्री राम का, अति उदार विस्तार।
हृदय समुद्र समान है, बुद्धि गगन के पार।।
बुद्धि गगनके पार, राम सब के प्रति ध्यानी।
भक्त हृदय में वास, भावना सहज सुहानी।।
कहें मिसिर बलिराम, राम अति भावुक निर्मल।
करुणा रस भरपूर, शांत सज्जन मृदु कोमल।।
हरिहरपुरी की कुण्डलिया
योधा सहज कृपालु श्री, प्रिय रघुवर भगवान।
बढ़ते अत्याचार पर, सजग राम श्रीमान।।
सजग राम श्रीमान, बने जननायक आते।
पापी के संहार, हेतु संगठन बनाते।।
कहें मिसिर कविराय, राम शांत शिव बोधा।
हरने धरती भार, सदा आते बन योधा।।
5- कहीं नहीं मुझ को जाना है
मन मस्त हुआ मन मौन हुआ।
कहीं नहीं मुझ को जाना है।।
आत्मतोष का अनुभव होता।
खुद को छोड़ नहीं जाना है।।
मातृभूमि पर अलख जग रहा।
वतन छोड़ कर क्या जाना है।।
थोड़ा भी लगता ज्यादा है।
शेष नहीं कुछ जो पाना है।।
है आनंद बहुत जीवन में।
दो रोटी केवल खाना है।।
मातृधाम अति प्रिय देवालय।
अंतिम यहीं अन्न-दाना है।।
हरिहरपुर रामेश्वर काशी।
इस के आगे क्या जाना है।।
मन में अति उत्साह भरा है।
अब उमंग में खो जाना है।।
पंचक्रोश हो रहा अहर्निश ।
परमेश्वर का हो जाना है।।
रामेश्वर प्रिय धाम पास में।
ग्राम बसेरा को जाना है।।
नहीं चाहिये सोना-चाँदी।
केवल अमरित जल पाना है।।
एक अकेला बन फकीर नित।
मुझ को खुद में चल जाना है।।
6- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया
जितना तुम से हो सके, उतना कर तुम काम।
घबड़ाकर कुछ मत करो, क्रमशः पहुँचो धाम।।
क्रमशः पहुँचो धाम, करो अभ्यास निरन्तर।
करते रहो प्रयास, धीरता से कर सुंदर।।
कहें मिसिर कविराय, चलो केवल तुम उतना।
करते रहना कर्म, सदा हो सकता जितना।।
हरिहरपुरी की कुण्डलिया
बाधा आने पर कभी, मत विचलन स्वीकार।
स्थायी बाधा है नहीं, यह गिरती सरकार।।
यह गिरती सरकार, इसे ऐसे ही जानो।
आती-जाती नित्य, इसे ऐसे ही मानो।।
कहें मिसिर कविराय,स्वयं को जिसने साधा।
देती नहीं उखाड़, उसे कोई भी बाधा।।
7- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
जागो उठ कर बढ़ चलो, चूम गगन का छोर ।
पकड़ाओ इस विश्व को, सतत प्रेम की डोर।।
सतत प्रेम की डोर, बने सब का आलंवन।
बहे सुगन्ध बयार, प्रीति का उर में स्पंदन।।
कहें मिसिर बलिराम, घृणा से हरदम भागो।
मानवता का मंत्र, जाप करते नित जागो।।
मिश्रा कविराय की कुण्डलिया
रहना है तो स्वच्छ कर, अपने मन का पाप।
मानव के कल्याण का, करते रहना जाप।।
करते रहना जाप, जगत में मंगलमयता।।
करो मानसिक पुण्य, जगे मानव में समता।।
कहें मिसिर कविराय, सदा पावन बन चलना।
बन कर शुभ वरदान, विश्व में जीते रहना।।
8- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया
ताना मारो मत कभी, यह अति दूषित कर्म।
ताना-बाना प्रेम का, अति पवित्र है धर्म।।
अति पवित्र है धर्म, सभी को बुनता चलता।
सहज स्नेह की राह, दिखाता सबको रहता।।
कहें मिसिर कविराय, पहन मानव का बाना।
गहना मानववाद, कभी मत मारो ताना।।
मिसिर कविराय की कुण्डलिया
पाना हो तो खोजना, सिर्फ राम का नाम।
छिपा नाम में सर्व गुण, प्रेम करुण धन धाम।।
प्रेम करुण धन धाम, सभी उपहार सुमंगल।
पाता मन विश्राम, भागते सकल अमंगल।।
कहें मिसिर कविराय, राम को जिस ने जाना।
पाया धन अनमोल, नहीं कुछ बाकी पाना।।
9- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया
छाया बनकर जो चले, वह है दिव्य महान।
सुख देने को धर्म वह, समझत सभ्य सुजान।।
समझत सभ्य सुजान, जगत को अपना परिजन।
रखता सब का ख्याल, मधुर भावों में बहता सज्जन।।
कहें मिसिर कविराय, वही जगती को भाया।
सारे बन्धन तोड़, बना जो सब की छाया।।
हरिहरपुरी की कुण्डलिया
समझो खुद को मत बड़ा,रहना सीखो छोट।
मानव के सम्मान पर, कभी न मारो चोट।।
कभी न मारो चोट, करो सबको सम्मानित।
लघु में सेवा भाव, दिखे मोहक मधुमासित।।
कहें मिसिर बलिराम, स्वयं को छोटा बूझो।
व्यापक सारा लोक, बड़ा जिस को तुम समझो।।
10- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया
आये घर पर मनुज का,मत करना अपमान।
अतिथि देव का भाव रख, कर उस का सम्मान।।
कर उस का सम्मान, समझ उस को नारायण।
कर उसका सत्कार, प्रीति का सत पारायण।।
कहें मिसिर कविराय, अतिथि को गीत सुनायें।
कर मीठा संवाद, मनुज जो घर पर आये।।
हरिहरपुरी की कुण्डलिया
स्वागत अरु सत्कार का, आये सुखद बहार।
सहज परस्पर मिलन से, बने दिव्य संसार।।
बने दिव्य संसार, सभी भावुक हो जायें।
करें सभी सम्मान, परस्पर प्रीति निभायें।।
कहें मिसिर कविराय, दिखें सब खुद में जागत।
सदा रहें तैयार, करें आगत का स्वागत।।
11- मिसिर कविराय हरिहरपुरी की कुण्डलिया
पानी उस का राखिये, जो है पानीदार।
पानी उसे न दीजिये, जो बेपानीदार।।
जो बेपानीदार, नहीं इज्जत से नाता।
मरा हुआ इंसान, स्वयं सम्मान गँवाता।।
कहें मिसिर कविराय, जहाँ रहता अभिमानी।
सूख गया जल स्रोत, नहीं दिखता है पानी।।
मिसिर महराज की कुण्डलिया
पानी को इज्जत समझ, कर इस का सम्मान।
जो पानी को जानता, वही बड़ा धनवान।।
वही बड़ा धनवान, जगत में इज्जत पाता।
देता सबको मान, सभी से हाथ मिलाता।।
कहें मिसिर महराज,सीख बनना प्रिय ज्ञानी।
सब को देना स्नेह, राख मानव का पानी।।
12- साजन (दोहे)
साजन मोहक शब्द प्रिय, परम मनोहरभाव।
दिव्य भाव में रम रही, परमेश्वर की छाँव।।
साजन प्रियतम नाम है, अनुपम अतुल महान।
साजन में रहते सदा, प्रेम रूप भगवान।।
साजन में रस है भरा, साजन रसिक मिजाज।
देते सजनी को सतत, अति मीठी आवाज।।
साजन प्रिय कर्तव्य है, यह सजनी का गेह।
साजन करते हैं सदा, प्रिय सजनी से स्नेह।।
साजन अमृत कलश हैं, पीती सजनी नित्य।
साजन-सजनी मिलन मधु, सहज भावमय स्तुत्य।।
साजन में सजनी सदा, करती क्रीड़ा-काम।
सतत परस्पर मिल उभय,रचते स्वागत धाम।।
साजन मनहर मद पदक, सजनी का श्रृंगार।
होते एकाकार जब, दिखते ब्रह्माकार।।
13- लगता जैसे पाया सब कुछ
(चौपाई)
लगता जैसे पाया सब कुछ।
बचा नहीं है पाने को कुछ।।
कृपा ईश की जब होती है।
मनोकामना तब सोती है।।
चरम आत्मतोष जब होता।
सकल वृत्तियाँ तब मन खोता।।
मन में शेष नहीं कुछ बचता।
मन रनिवास ईश का बनता।।
ईश संग मन विचरण करता।
कदम मिलाकर चलता रहता।।
सदा ईश से बातें करता।
अपना दुःख-सुख कहता चलता।।
जीवन का हर प्रश्न पूछता।
समुचित उत्तर सदा ढूढ़ता।।
ईश्वर का ही एक सहारा।
मन में प्रियतम ईश्वर सारा।।
आत्मतोष के लिये काम कर।
आत्मतोष बिन मानव बेघर।।
आत्मतोष को जो भी पाया।
जीते जी वह मुक्त कहाया।।
मुक्ति पंथ पर चलते रहना।
क्रियाशील बन खुद को रचना।
परहितवाद सदा हो नायक।
योग पंथ में बने सहायक।।
संतुष्टः सततं योगी बन।
बनो हितैषी मानव सज्जन।।
बनो समर्पण का जननायक।
जीना सीखो बनकर लायक।।
14- हरिहरपुरी के दोहे
होता जब मतभेद है, संबंधों के तार।
धीरे-धीरे टूट कर, करते क्रमशः वार।।
मतभेदों को भूल कर, जो रखता संबन्ध।
जीवन में रस घोल कर, लिखता सुखद निबंध।।
मतभेदों को याद कर, जो करता है काम।
करता क्रमशः रात-दिन, अपना काम तमाम।।
भेदभाव से मुक्त नर, पाता है सुख चैन।
भेदभाव ही मारता, मानव को दिन-रैन।।
मतभेदों से मुक्त हो, बन जाओ शिव धाम।
निर्मल मन से सतत जप, हरि मानव का नाम।।
जोड़ो अपने आप को, मतभेदों को भूल।
यही राह सबसे सुगम, जिस पर विछे हैं फूल।।
मतभेदों में है छिपा, अति घातक हथियार।
मतभेदों के पार जा, कर अपना उद्धार।।
15- हरिहरपुरी के दोहे
एक दूसरे का करे, यदि मानव सम्मान।
समझो आया स्वर्ग है, देने को प्रति दान।।
एक दूसरे के लिये, जीना सीखो मीत।
लगातार बनते रहो, अतिशय प्यारा गीत।।
सदा बहाओ प्रेम रस, कभी न टूटे धार।
टूटे दिल को जोड़ कर, लाओ दिव्य बहार।।
सतत परस्पर प्रीति का, हो वैश्विक उदघोष।
उच्च कोटि की भावना, को निश्चित तुम पोष।।
एक दूसरे के लिये, जीये मानव जाति।
सुंदर मोहक भाव से, बैठे अगली पाँति।।
निर्विरोध जो जी रहा, वही मनीषी सन्त।
शांति पाठ कर छू रहा, अंतिम गगन अनंत।।
जो चखता है प्रेम रस, वही जानता मर्म।
बना प्रेम का रसिक वह, करत सतत सत्कर्म।।
16- मिसिर महराज की कुण्डलिया
जोड़ा जिसने प्यार का , सबसे मोहक तार।
करता सारे विश्व से, दिव्य मधुर इजहार।।
दिव्य मधुर इजहार, बनाता उत्तम मानव।
विनययुक्त सन्देश,भगाता जग से दानव।।
कहें मिसिर महराज, पतित को जिसने तोड़ा।
हुआ उसी का गान, जगत को जिसने जोड़ा।।
मिसिर कविराय की कुण्डलिया
रचना कर सद्भाव का, उठती रहे तरंग।
प्रेम रंग की लहर बन, रचे विश्व का अंग।।
रचे विश्व का अंग, बने हर मन अनुरागी।
चलें सभी इक चाल,जगत बन जाये त्यागी।।
कहें मिसिर कविराय,विश्व को मोहक करना।
मधुमयता में लीन, मनुज को केवल रचना।।
17- डॉ० रामबली मिश्र कविराय की कुण्डलिया
घायल तुम इंसान को, कभी न करना मीत।
सदा प्रीति की रीति से, बन जा स्वजन पुनीत।।
बन जा स्वजन पुनीत, सभी में प्रभु दर्शन कर।
सब को आतम जान, चलो सब का बन दिलवर।।
कहें मिसिर कविराय, कभी मत बनना कायल।
बनो हंस का बुद्ध, सहारा दो जो घायल।।
मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
चलना जिस को आ गया, वही पुष्ट बलवान।
सब से करता मित्रता।,देता सब को मान।।
देता सब को मान, नहीं कुछ अनुचित कहता।
नहीं दर्प की बात, कभी वह करता रहता।
कहें मिसिर कसिराय, सभी को समझो अपना।
सब के मन को मोह, सीख जीवन में चलना।।
18- मिसिर जी की कुण्डलिया
सोना खोना एक है, अब तो सोना छोड़।
सदा जागरण की तरफ, अपने मन को मोड़।।
अपने मन को मोड़, जागते रहना नियमित।
चेतन मन का भाव , अनवरत रहे संयमित।।
कहें मिसिर कविराय,रहे मन का हर कोना।
उन्नत सजग प्रवीण, मिले तब सब को सोना।।
मिसिर महराज की कुण्डलिया
जागत सोवत हर समय,सोचो अच्छी बात।
शिव भावों की राह में, कभी न होती रात।।
कभी न होती रात, सदा दिनकर दिखता है।
शुभ्र दिवस का ज्ञान, सुखद जीवन रचता है।।
कहें मिसिर महराज, चलो प्रति पल तुम गावत।
अच्छाई की राह, पकड़ कर चलना जागत।।
19- मिसिर बाबा की कुण्डलिया
धरती को है चूमता, ऊपर से आकाश।
यह समाज की रीति हो, मिले बड़ों से आस।।
मिले बड़ों से आस, बने समरस मानवता।
कटे द्वेष का भाव, जगे सब में पावनता।।
कहें मिसिर कविराय, जहाँ शुभ वृत्ति पनपती।
हरी-भरी खुशहाल, वहीं पर दिखती धरती।।
मिसिर बलिराम महराज की कुण्डलिया
धरती देती जिंदगी, धरती से ही प्राण।
धरती माता पर कभी, नहीं चलाओ वाण।।
नहीं चलाओ वाण, सदा रखवाली करना।
पूजन करना नित्य, हृदय में स्थायी रखना।।
कहें मिसिर बलिराम, कभी मत रखना परती।
करो जरूरत पूर, सदा सिंचित कर धरती।।
हरिहरपुरी की कुण्डलिया
धरती से आकाश तक, कर अपना विस्तार।
धरती से लेता मनुज, अपना निज आकार।।
अपना निज आकार, ग्रहण करता हर मानव।
क्षमता के अनुरूप,स्वयं बनता है शानव।।
कहें मिसिर कविराय, मनुज में क्षमता रहती।
जो करता विस्तार, उसी पर मोहित धरती।।
20- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
आकर मानव जगत में, जाने को तैयार।
उल्टी गिनती रात-दिन, करती रहती वार।
करती रहती वार, यहाँ सब कुछ क्षण भंगुर।
छिपा हुआ है नाश, छिपाता जिसको अंकुर।।
कहें मिसिर कविराय, यहाँ बस आकर जाकर।।
मृत्यु लोक यह भूमि, लगा है जाकर आकर।।
मुसिर बाबा की कुण्डलिया
भेजा प्रभु ने इसलिये, जा कर अच्छा काम।
सब के प्रति सद्भाव का, ले कर चल पैगाम।।
ले कर चल पैगाम, सभी को सहज बनाओ।
अमृत रस का घोल, सभी को नित्य पिलाओ।।
कहें मिसिर कविराय,सभी को आ कुछ दे जा।
प्रभु का वचन सकार ,तुझे दिल से है भेजा।।
21- मिसिर महराज की कुण्डलिया
अपना केवल काम कर, बस अच्छा हो काम।
अपने शुभ सन्देश से, रच पावन शिव धाम।।
रच पावन शिव धाम, रहें सब उत्तम घर में।
दिव्य भाव का भान, रहे सब के भीतर में।।
कहें मिसिर कविराय, देख लो सुंदर सपना।
आये सब के काम, काम हो सुंदर अपना।।
22- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
तारा बनना आँख का, सब के दिल को चूम।
करते जाओ कर्म प्रिय, शिव बन कर नित घूम।।
शिव बन कर नित घूम,करो नित जग का वंदन।
श्रद्धा अरु विश्वास, करे सब का अभिनंदन।।
कहें मिसिर कविराय,स्वयं को जिसने गारा।।
वहीं दिव्य इंसान, चमकता बनकर तारा।।
मिसिर बाबा की कुण्डलिया
पाया जिसने प्रेम धन, पाया वह हर चीज।
नहीं प्रेम से कुछ अधिक, प्रेम तत्व है बीज।।
प्रेम तत्व है बीज, अंकुरित जब यह होता।
बनता वृक्ष विशाल,जगत छाया में सोता।।
कहें मिसिर कविराय, प्रेम को जो भी गाया।
रचा अमर इतिहास, जगत में सब कुछ पाया।।
23- मिसिर बाबा की कुण्डलिया
सोचा जो पाया नहीं,पाया अपना भाग।
लिखे भाग में अंततः, रख सच में अनुराग।।
रख सच में अनुराग, लिखा है जो किस्मत में।
क्रिया-कर्म-सम्मान, छिपे हैं निज अस्मत में।।
कहें मिसिर महराज,धरो मत मुँह पर खोंचा।
करते जाना काम, वही जो तुम ने सोचा।।
मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
ममता के निज भाव का,करते जा विस्तार ।
सब के प्रति ममता बढ़े, इस पर होय विचार।।
इस पर होय विचार,बने सुंदर पैमाना।
ममता का संगीत,सुनाकर दिल बहलाना।।
कहें मिसिर कविराय, त्याग दो सारी भ्रमता।
मानवता अनमोल,जिलाये सब में ममता।।
24- रोता मन है (चौपाई)
कंपित तन है रोता मन है।
सूना सारा जग उपवन है।।
कैसे मन को मैं समझाऊँ?
कैसे सब को राह दिखाऊँ??
मन व्याकुल बेचैन बहुत है।
व्यथा-कथा दिन-रैन बहुत है।।
आँसू रोक नहीं मैं पाता।
आँसू संग बहा चल जाता।।
ऐ आँसू!तुम क्यों आते हो?
क्यों न स्वयं में बुझ जाते हो??
कौन बुलाता तुझे पास में?
नहीं पिघलना किसी आस में।।
क्यों मुझ से नफरत करते हो?
मुझे रुलाते क्यों रहते हो??
छोड़ पिंड अब घर में रहना।
अपनी बातें खुद से कहना।।
मुझको जीने का वर देना।
मेरे मन का दुःख हर लेना।।
क्या इसीलिये तुम बह जाते हो?
कर के काम निकल जाते हो??
आँसू!तुम नित बहते रहना।
करुणा रस तुम बनकर चलना।।
तुम अतिशय प्रिय दुःखहर्त्ता हो।
दया स्वयं कर्त्ता-धर्त्ता हो।।
25- आँखों में है घोर निराशा
(चौपाई)
आँखों में है घोर निराशा।
चाह रहा हूँ अब अवकाशा।।
जीना लगता नहीं गवारा।
घुट-घुट कर जीता बेचारा।।
जीवन रेखा मिटती लगती।
प्राण वायु कंपित हो बहती।।
श्वांसों में अति व्यथा भरी है।
चित्तवृत्तियाँ हुई मरी हैं।।
चंचलता काफूर हो गयी।
प्रखर बुद्धि अब दूर हो गयी।।
कोहरा विछा हुआ राहों पर।
निशा काल दिखता चाहों पर।।
अब मृतप्राय सभी सपने हैं।
दिखते नहीं यहाँ अपने हैं।।
बेगानों की फौज खड़ी है।
सुखियारों को मौज पड़ी है।।
चिदाकाश में सन्नाटा है।
सुख अब मार रहा चाटा है।।
दिल में दुःख की अवनि जल रही।
दग्ध भावना सतत बह रही।।
मन आहत अति दीन-दुःखी है।
जल बिन मछली रहत सुखी है??
कैसे समझाऊँ मैं मन को?
जल जाने दो तन-उपवन को।।
26- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
सजता जो है मूल्य से, वही रूप की खान।
परम अलौकिक मूल्य धर, बनता मनुज महान।।
बनता मनुज महान, सत्य शिव सुंदर बनकर।
चरैवेति का पाठ ,सिखाता दिखता सुंदर।।
कहें मिसिर कविराय, बना वंशी जो बजता।
राधे- कृष्ण स्वरूप, धरे वह जग में सजता।।
मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
जगता उत्तम भाव बन, जो मानव वह दिव्य।
अपने बढ़िया कृत्य से, करता मोहक नृत्य।।
करता मोहक नृत्य,जगत दर्शक बन झूमत।
अति भावुक संवाद, सुनत जग पग को चूमत।।
कहें मिसिर कविराय, नाचती जिस पर जनता।
वही बड़ा युवराज, जगत में बनता जगता।
27- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
बनना इक इंसान शिव, हो मन में कल्याण।
संशोधित कर स्वयं को, बसे सभी में प्राण।।
बसे सभी में प्राण, जगत को दे दो जीवन।
सब को करो प्रसन्न , प्रफुल्लित अपना तन-मन।।
कहें मिसिर कविराय, स्वयं को खोजन चलना।
जग वंदन का भाव,विखेरत खुद ही बनना।।
मिसिर बाबा की कुण्डलिया
मादक प्रियतम शव्द का ,मत करना अपमान।
अति मनमोहक भाव पर, करते चल अभिमान।।
करते चल अभिमान, गर्व से जीते रहना।
प्रियतम बनना सीख, इसी पथ पर नित चलना।।
कहें मिसिर बलिराम, बनो प्रिय सुंदर साधक।
भावों का भण्डार, बने मधु मोहक मादक।।
28- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
बनना सीखो प्रीति रस, सभी करें रसपान।
डूबें गहरे सिंधु में, करें अनवरत स्नान।।
करें अनवरत स्नान, पाप सारा धुल जाये।
मिटे सकल अवसाद, शक्ति काया में आये।।
कहें मिसिर कविराय, सुखद बयार बन बहना।
अति मोहक मुस्कान, विश्व चेहरे की बनना।।
मिसिर जी की कुण्डलिया
माता की जयकार हो, माता का सत्कार।
माँ चरणों में लिप्त हो, चल माँ के अनुसार।।
चल माँ के अनुसार, मात की बातें मानो।
माँ दुर्गा नवरात, पूज कर माँ को जानो।।
कहें मिसिर कविराय, मनुज जो कुछ भी पाता।
अतिशय दिव्य प्रसाद, जिसे देती है माता।।
29- मिसिर बाबा की कुण्डलिया
माता रानी की कृपा, बरसे चारोंओर।
लेंगे हम आनन्द सब,पकड़ कृपा की डोर।।
पकड़ कृपा की डोर, चलेंगे हम आजीवन।
खिल जायेंगे पुष्प, सकल घर आँगन कानन।।
कहें मिसिर कविराय, मात ही सिद्धि प्रदाता।
माँ दुर्गा को चूम,वही अति मोहक माता।।
30- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
साधन सबसे मान हो,नित पुनीत उपयोग।
उत्तम साधन से चले, शुचि अर्जन उपभोग।
शुचि अर्जन उपभोग, करे जीवन को सुंदर।
हो जीवन आधार , बने प्रश्नों का उत्तर।।
कहें मिसिर कविराय, करो सब का आराधन।
गह अति पावन पंथ, बने जो मोहक साधन।।
31- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
माधव तेरे रूप पर, अति मोहित संसार।
सारे जग को चाहिये, सिर्फ तुम्हारा प्यार।।
सिर्फ तुम्हारा प्यार, सदा महके तन-मन में।
गमके मधु मुस्कान, सहज मादक जन-जन में।।
कहें मिसिर कविराय, परम प्रिय यदुकुल यादव।
स्वयं लिये अवतार, जगत में आये माधव।।
32- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया
सादर अभिनंदन करो, करना सहज प्रणाम।
नतमस्तक हो जगत को, समझ राम का धाम।।
समझ राम का धाम, लगाओ मन से चक्कर।
मन की कुण्ठा मार, जमी जो मन के अंदर।।
कहें मिसिर बलिराम, बरस बनकर मधु वादर।
छोड़ अनादर भाव,मिलो दुनिया से सादर ।।
33- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
चाहत के अनुकूल ही, पूरी होती चाह।
सुंदर पावन भाव मेँ, अति मोहक है राह।
अति मोहक है राह, सभी पहुँचत शिव सागर
पुरुखों का उद्धार,किया करते हैँ चलकर।।
कहें मिसिर कविराय, सदा दो सबको राहत।
हो सब का शुभ कर्म, सभी में हो सुख चाहत।।
34- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
सत्या देवी की करो, पूजन-अर्चन दिव्य।
पापनाशिनी माँ सदा ,रहें हृदय में नित्य।।
रहें हृदय में नित्य , धाम हो उर का आँगन।
मलयागिरि की वायु,शीत प्रिय मंद सुहावन।।
कहें मिसिर कविराय, छोड़ यह जगत अनित्या ।
करो सत्य से प्यार, नमन कर केवल सत्या।।
35- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
जाना है सब त्याग कर, खाली केवल हाथ।
मृत्यु लोक मायापुरी, में हर जीव अनाथ।।
में हर जीव अनाथ, साथ जो प्रभु
के रहता।
जग में वहीं सनाथ, ईश को जो भी जपता ।।
कहें मिसिर कविरराय, छोड़ माया का ताना।
छोड़ो मिथ्या जाल, ईश को जपते जाना।।
36- मिसिर महराज की कुण्डलिया
शोषण करना पाप है, शोषण अत्याचार।
अनाचार व्यभिचार में, शोषण की तलवार।।
शोषण की तलवार, काटती बनी अमानुष।
पीती श्रम का खून, बहकती बनकर मानुष।।
कहें मिसिर कविराय, करो मानव का पोषण।
श्रमिकों का सम्मान, बढ़े हर ले सब शोषण।।
37- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
जाकर आता कौन है,बहुतों को अज्ञात।
पर हिन्दू विश्वास को , सारा सब कुछ ज्ञात।।
सारा सब कुछ ज्ञात, प्राणि आता जाता है।
कर्मों का परिणाम, स्वयं रहता पाता है।।
कहें मिसिर कविराय, कर्म फल सुख-दुःख सागर।
फल पाने के हेतु, लौटता प्राणी जाकर।।
38- मिसिर जी की कुण्डलिया
जाना है सत्कर्म ले, सीधे प्रभु के द्वार।
सत्कर्मों में है छिपा, प्रभु का हार्दिक प्यार।।
प्रभु का हार्दिक प्यार, सदा पाता सत्कर्मी।
दण्डित होता पाप,अपावन नीच अधर्मी।।
कहें मिसिर कविराय,धर्म का ध्वज फहराना।
सत्कर्मों की नाव, चलाते हरदम जाना।।
39- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
प्यासा जो श्री राम का, वही सिद्धि का पात्र।
राम विमुख प्राणी सदा, मलिन मलेच्छ अपात्र।।
मलिन मलेच्छ अपात्र, जगत में सदा अछूते।
पाता है अपमान, स्वयं में सदा कपूते।।
कहें मिसिर कविराय, रखो दिल में अभिलाषा।
बढ़ो राम की ओर, रहे मन नियमित प्यासा।।
40- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
माँगन मरण समान है, माँगो कभी न भीख।
दाता बनकर जिंदगी, को जीना ही सीख।।
को जीना ही सीख, जगत में नाम कमाओ।
कर जीवन को धन्य, और को राह दिखाओ।।
कहें मिसिर कविराय,बनो दानी प्रिय पावन।
स्वाभिमान का पाठ, यही बस छोड़ो माँगन।।
41- मिसिर जी की कुण्डलिया
हाला पी कर प्रेम का, रचना दिव्य समाज।
हर मानव में प्रेम हो, हर मानव का राज।
हर मानव का राज, सभी का आसन ऊँचा।
रहे परस्पर नेह , दिखे मत कोई नीचा।।
कहें मिसिर कविराय, चलो ले कंचन प्याला।
आजीवन रह मस्त, सदा पी कर मधु हाला।।
42- डॉ०रामबली मिश्र कविराय की कुण्डलिया
नाना निधि अरु भोग सब, दिखते जग में व्यर्थ।
मालुम होय अगर नहीं,प्रिय जीवन का अर्थ।।
प्रिय जीवन का अर्थ, निहित है पावन मन में।
सुंदर सुखद विचार,विपुल धन भीतर तन में।।
कहें मिसिर कविराय, पहन सुंदर सा बाना।
छोड़ो भोग विलास,रतन नैसर्गिक नाना।।
43- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
चलता जो शिव पंथ पर, जाता काशी धाम।
शिव शंकर कहता सतत, बनकर सीताराम।।
बनकर सीताराम, चला करता जिमि त्यागी
सत्य प्रेम भरपूर, हृदय से जन अनुरागी।।
कहें मिसिर कविराय, योग जिस में है पलता।
बनकर सिद्ध सुजान, वही धरती पर चलता।।
44- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
आदर अरु सत्कार का, नियमित करना जाप।
जीवन के शुभ मंत्र से,काटो सारे पाप।।
काटो सारे पाप, मनुज का धर्म निभाओ।
करो विसंगति दूर, सुगति मानव में लाओ।।
कहें मिसिर कसिराय, कभी मत बनना कायर।
सीने में हो स्नेह, प्रेम करुणा अरु आदर।।
45- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
डरना सदा कुकृत्य से, खुद को सदा सुधार।
रखना अपने हृदय में, पावन मधुर विचार।।
पावन मधुर विचार, मारता कलुषित भावन।
भरने को तैयार, हृदय में नित सद्भावन।।
कहें मिसिर कविराय, हृदय में शुभ मति भरना।
करो सदा प्रिय कर्म, नीच कर्मों से डरना।।
46- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
भरना दुःख के घाव को, भूलो सकल विरोध।
कुंठाओं को मारने , पर करते रह शोध।।
पर करते रह शोध, बने निर्मल मन पावन।
कुण्ठा का हो लोप, दिखे सब दृश्य सुहावन।।
कहें मिसिर कविराय, दुःखी का संग पकड़ना।
सच्चा सेवा-भाव, सभी के दिल में भरना।।
47- रामबली मिसिर की कुण्डलिया
ऐसी प्रेरक शक्ति को, करना नित्य प्रणाम।
मंजिल तक ले जाय जो, बिना रुके अविराम।।
बिना रुके अविराम, चला करता है प्रेरक।
अपनी सारी शक्ति, झोंक देता है औचक।।
कहें मिसिर कविराय,प्रेरणा उर में कैसी?
जो दिखलाये लक्ष्य, संगिनी मन की ऐसी।।
48 – हरिहरपुर के मिसिर की कुण्डलिया
शुभदा बन चलना सदा,शुभ फल देना सीख।
मधु भावों का पवन बन, बहते चल प्रिय दीख।।
बहते चल प्रिय दीख, सभी को करना शीतल।
निर्मलता का पुष्प, खिले सबके अंतस्थल।।
कहें मिसिर कविराय,वृत्ति हो उत्तम सुखदा।
रहे भावना शुद्ध, परम प्रिय अतिशय शुभदा।।
49- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
आता है शुभ पंथ से, लेता पकड़ कुपंथ।
रामचरित पढ़ता नहीं, रचने लगत कुग्रन्थ।।
रचने लगत कुग्रन्थ,गलत राही बन चलता।
छोड़ रतन अनमोल, कोयला प्रति क्षण बिनता।।
कहें मिसिर कविराय,मनुज मायापुर जाता।
गिरता-पड़ता नित्य, समझ में नहिं कुछ आता।।
50- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
लूटो सद्गुण को सहज, भरते जाओ जेब।
स्पर्श करे मत जिंदगी, को कदापि फौरेब।।
को कदापि फौरेब,सदा बनना गुण ग्राहक।
दुर्गुण को दुत्कार,बने शुभ गुण मन वाहक।।
कहें मिसिर कविराय, कभी मत चमड़ा कूटो।
शीतल चंदन अर्क, सहज जीवन में लूटो।।
51- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
काटो मूल प्रवृत्ति को,बढ़ो शिखर की ओर।
ऊर्ध्व चाल चलते रहो, पकड़ ज्ञान की डोर।।
पकड़ ज्ञान की डोर, महारथ हासिल करना।
महापुरुष का भाव,स्वयं में भरते रहना।।
कहें मिसिर कविराय, कंस को नियमित डाटो।
धर शंकर का वेश, तंत्र गन्दा को काटो।।
52-. मिसिर कविराय की कुण्डलिया
बोलो इतने प्रेम से, टपके अमृत बूँद।
सुनकर मधुरिम वचन को,करे नृत्य सब कूद।।
करे नृत्य सब कूद, मस्त हो जीवन सारा।
हिय में बसे पहाड़, स्नेह का अतिशय प्यारा।।
कहें मिसिर कविराय, सरस मधुमय रस घोलो।
दंभ-दर्प को त्याग,राम बन सब से बोलो।।
53- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
जागा जो अद्वैत बन, कण-कण में भगवान।
पाया उसने सब जगह, एक ईश का ज्ञान।
एक ईश का ज्ञान, दृष्टि को निर्मल करता।
सब के प्रति प्रभु भाव, हृदय में सब के भरता।।
कहें मिसिर कविराय, बनो कदापि मत कागा।
जग में वह विख्यात, बना कोयल जो जागा।।
54- कोरोना (चौपाई)
कोरोना अब हुआ डरावन।
गाँव-शहर में जलता सावन।।
भष्मासुर बन फैल रहा है।
रक्तबीज बन खेल रहा है।।
चारोंतरफ नंग नर्तन है।
जनसंख्या का परिवर्तन है।।
दिखती संकट में मानवता।
बहुत भयानक है दानवता।।
चढ़ता जाता कोरोना है।
मन का अब रोना-धोना है।।
कोरोना नित मार रहा है।
मानव को ललकार रहा है।।
सकते में है मनुज दीखता।
चेहरे पर है मास्क विदकता।।
विगड़ गयी चेहरे की शोभा।
है मटमैली मुख की आभा।।
दीन-हीन मानव लगता है।
भयाक्रान्त हो कर चलता है ।
कितना दूर रहेगा मानव?
पीछे पड़ा हुआ है दानव।।
जगह नहीं है अस्पताल में।
सकल देश आपातकाल में।।
ऑक्सीजन की नहीं व्यवस्था।
क्षीण-हीन दयनीय अवस्था।।
कैसे जान बचेगी प्यारे।
दूरी रखना हो कर न्यारे।।
अब विवेक से प्राण बचेगा।
जीव मात्र का त्राण रहेगा।।
55- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
त्यागो भय को हृदय से, बैठ कुंडली मार।
राम नाम के जाप से, कोरोना को जार।।
कोरोना को जार, दूर हो कर के रहना।
हो सुंदर संवाद, निडर हो कर नित चलना।।
कहें मिसिर कविराय, दूर से रक्षा माँगो।
कर काढ़ा का पान,भोग सारे अब त्यागो।।
56- जीवन (चौपाई)
जीवन बीत रहा है प्रति पल।
फिर भी शांत नहीं मन चंचल।।
भाग रहा मन जग के पीछे।
गिरता पड़ता ऊँचे-नीचे।।
मन संतोषी नहीं बनेगा।
सुख का अनुभव नहीं करेगा।।
सदा हाँफता भाग रहा है।
माया में ही जाग रहा है।।
पड़ा हुआ झूठे चक्कर में।
हरि वियोग भोग टक्कर में ।
क्षण भर के सुख का है चक्कर।
हतप्रभ रोगी बहुत भयंकर।।
सहज पंथ से नहिं है नाता।
ऊँचे-खाले गिरता जाता।।
मन को केवल भोग चाहिये।
कामवासना रोग चाहिये।।
57- कोरोना!क्या तुम शंकर हो?
(चौपाई)
कोरोना!क्या तुम शंकर हो?
तुम हो सकते नहिं ईश्वर हो।।
शंकर जी हैं भोले भाले।
सारी जगती के रखवाले।।
शंकर जी हैं अवढर दानी।
अतिशय भावुक महा सुजानी।।
प्रेमामृत रस सहज पिलाते।
सत्य साधना ज्ञान सिखाते।।
कोरोना!तुम दैत्य भयंकर।
तुम को मारेंगे शिवशंकर।।
कोरोना! तुम मत घबड़ाओ।
अब तुम जल्दी आगे आओ।।
शंकर जी तुम को मारेंगे।
मार-मार निश्चित काटेंगे।।
ले त्रिशूल अब वार करेंगे।
इस जगती का भार हरेंगे।।
58- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
खो कर कुछ मिलता बहुत, इस अनुभव को मान।
श्रम अरु सच्ची लगन से, मिलता सच्चा ज्ञान।।
मिलता सच्चा ज्ञान, अगर दिल में हो चाहत।
मन में रहे जुनून, सफलता निश्चित आवत।।
कहें मिसिर कविराय, नहीं कुछ मिलता सो कर।
होते हैं अरमान, पूर्ण जरा कुछ खो कर।।
59- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
पारस बन कंचन करो, हर मानव का देह।
स्वर्णमुखी जैसा दिखे, हर मानव का गेह।।
हर मानव का गेह,बने अति स्वर्गिक प्यारा।
सकल प्राणि में प्रेम, बने गंगा की धारा।।
कहें मिसिर कविराय, सभी को देना ढाढ़स।
सब को कर खुशहाल, स्वयं बन कर शिव पारस।।
60- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
साधक बन कर साधना, चढ़ उन्नत आकाश।
फैलाओ चहुँओर नित, अपना अमिट प्रकाश।।
अपना अमिट प्रकाश, करे जगती को उज्ज्वल।
आये सुखद बहार, दिखे हर मानव प्रज्वल।।
कहें मिसिर कविराय, बनो जग का आराधक।
गहना सहज सुपंथ, बने सारा जग साधक।।
61- सच्चा प्यार (वीर रस)
बड़े भाग से सच्चा प्यार,
पाता है जीवन में मानव।
जिस का फूट गया है भाग,
वह जीवन में सदा तड़पता।
मिला उसे है सच्चा प्यार,
जो सच्चा इंसान जगत में।
पकड़ो सच्चाई की राह,
सच्चा प्यार छिपा मंजिल में।
जिस के मन में नहीं विकार,
सत्य प्रेम का वह अधिकारी।
जो करता है सब का ख्याल,
सब का वह प्यारा बन जाता।
जो देता है दुःख में साथ,
असली प्यारा वही मीत है।
जो लिखता आँसू से गीत,
सच में प्यारा वही गीत है।
दुःख में सुख की करो तलाश,
सच्चा प्यार मिलेगा निश्चित।
बड़भागी है वह इंसान,
जिस में सच्चाई है नियमित।
यदि पाना है सच्चा प्यार,
सच्चाई की राह दिखाओ।
बन कर चलो मुसाफिर नेक,
सच्चा प्यार तले आ जाओ।
62- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
मेरे तेरे प्यार को, नजर नहीं लग जाय।
प्रेम समर्थक ईश ही, हरदम बनें सहाय।
हरदम बनें सहाय, प्यार को अमर बनायें।
करें प्यार को पुष्ट, प्यार प्रति क्षण बरसायें।।
कहें मिसिर कविराय,प्यार के देखो फेरे।
चला करे नित प्यार, बीच में तेरे मेरे।।
63- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
मिलना सब से मित्रवत, कर सब की पहचान।
हो सकता है एक दिन, मिल जाये इंसान।।
मिल जाये इंसान, चाह है जिसकी उर में।
होय मनोरथ पूर, बसा जो अंतःपुर में।।
कहें मिसिर कविराय,सभी से जुड़ते रहना।
जिस में अपना रूप, उसी से खुद ही मिलना।।
64- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
आ जा आँखों में बसो, पुतली बन कर नाच।
जगती के हर दृश्य को, देख-देख कर वाच।।
देख-देख कर वाच, बताओ मुझ को जमकर।
मुझे अनाड़ी जान, सिखाओ निशि-दिन डटकर।।
कहें मिसिर कविराय, हृदय में आ कर छा जा।
मत विलंब कर मीत, शीघ्र दौड़कर चल आ ।।
65- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
आशा को ले संग में, कर जीवन की सैर।
आशा जिस की गोद में, वही मनाये खैर।।
वही मनाये खैर, रहे जीवित जगती में।
हरा-भरा बन वृक्ष, खिले सारी धरती में।।
कहें मिसिर कविराय, कभी मत पाल निराशा।
जीते रहना शेर, बनो मनमोहक आशा।।
66- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
गिरता जो उठता वही, गिरना -उठना काम।
गिरने से डरना नहीं, चलते रह अविराम।।
चलते रह अविराम, धीरता कायम रखना।
करते रहना काम, निरन्तर बढ़ते रहना।।
कहें मिसिर कविराय,सृष्टि में सब कुछ चलता।
हरा-हरा भी पात, कभी पतझड़ में गिरता।।
67- प्रभु जी से ही बात कर
मात्रा भार 13/16
प्रभु जी से ही बात कर,
प्रभु जी से ही पूछा करना।
प्रभु जी को पहचान कर,
प्रभु जी से ही मिलते रहना।
प्रभु जी सच्चे मीत हैं,
प्रभु जी से ही नेह लगाना।
प्रभु जी से ही प्रेम कर,
प्रभु जी को ही गेह बनाना।
प्रभु जी रखते ख्याल हैं,
प्रभु जी को ही जपते रहना।
प्रभु जी बहुत दयालु हैं,
सदा निवेदन उनसे करना।
प्रभु जी को छोड़ो नहीं,
पैर पकड़ कर लिपटे रहना।
प्रभु जी के ही संग रह,
हरदम साथी बनकर चलना।
प्रभु जी को दिल में रखो,
मन मंदिर में कीर्तन करना।
प्रभु जी से हर बात कह,
कुछ भी नहीं छिपाकर रखना।
प्रभु जी सब कुछ जानते,
प्रभु से दिल से जुड़ते रहना।
68- मत पूछो कुछ हाल (सोरठा)
मत पूछो कुछ हाल,जल रहा सारा जग है।
दिखते सब बेहाल, चुभा काँटा हर पग है।।
कोरोना उत्पात, मचाता दिखता अब है।
मानव अति भयभीत, खोजता पथ वह अब है।।
आयी आज विपत्ति, डराती हर मानव को।
ऐसी बहे बयार, तोड़ दे जो दानव को।।
पृथक हुआ इंसान, डराती फिर भी विपदा।
खूनी पंजा आज, फैलता बना आपदा।।
शुभ का नाम- निशान,आज मिटता दिखता है।
अशुभ काल का ज्वार, चढ़ाई अब करता है।।
कैसा यह दुर्योग, मनुज अब काँप रहा है।
चलना बाहर बंद, कोरोना काट रहा है।।
धूप जहर है आज, डराता बहुत कोरोना।
मानव बहुत उदास, हृदय में रोना-धोना।।
यह अति संकट काल, जेल सा लगता जग है।
अपने में सब कैद, बना कैदी हर पग है।।
कामधाम सब ठप्प, श्रमिक रोते हैं घर में।
पैसे नहिं हैं पास,दुःखी सब गाँव-शहर में।।
69- सत्कर्म (दोहे)
सपने में सत्कर्म में, सदा रहो लवलीन।
सदा जागरण काल हो, संरक्षित हो दीन।।
करता मानव का भला,जो वह प्रिय इंसान।
गन्दा मानव हो नहीं, सकता कभी सुजान।।
सुंदर कर्मों को सदा, मिलता है सम्मान।
जग की शोभा जो बना, उस की ही पहचान।।
जिसने त्यागा आप को, दिया विश्व को दान।
खुश होते उस मनुज से, आजीवन भगवान।।
शुभ कर्मों की लेखनी, से रचना संसार।
जग के प्रति अनुराग से ,जोड़ो सारे तार।।
शांतिदूत के स्वप्न से, रच सुगठित यह लोक।
दिख जाये संसार में,मानव दिव्य अशोक।।
सत्कर्मों की साधना, करना बारंबार।
सत्कर्मों के अन्न को, खाये यह संसार।।
सात्विकता की दौड़ में, सब से आगे भाग।
मोहक प्रतियोगी बनो, अहंकार को त्याग।।
अनुशासित जीवन रहे, संयम से हो काम।
मानव मन में चमकता, दिखे देव शिव धाम।।
अर्जित कर सत्कर्म से, पुण्य रत्न भण्डार ।
सत्संगति के मंच का, करते रहो प्रसार।।
70- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
कहना हो तो राम कह, और कहो बलराम।
राम और बलराम से, पूरे सारे काम।।
पूरे सारे काम, सकल चिंताएँ भागें।
मन पाये आराम, वृत्तियाँ निर्मल जागें।।
कहें मिसिर कविराय, स्वयं को सीखो रचना।
बनो राम का दास, राम से ही सब कहना।।
71- सन्देश (सोरठा)
हो उत्तम सन्देश, खुशी से श्रोता झूमें।
बने सुखद परिवेश,लोकमंगला कामना।।
होय सदा आदेश, लगे सब को हितकारी।
बहे मधुर उपदेश,सहज दिव्य जो अति रुचिर।।
संदेशों में प्रीति, सदा रस बनकर बरसे।
बने प्रीति की रीति, परम पावनी गंग सम।।
पावन मधुए विचार, सभी को सुखी बनाये।
करें सभी व्यवहार, अति विनीत भावुक सदृश।।
मिटे सकल अवसाद, यदि सब में शुभ भावना।
होंगे सब आबाद,यदि मन में शुचिता रहे।।
72- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
समझो अपने आप को, कभी नहीं बलवान।
जो ऐसा है मानता, उस में है अभिमान।।
उस में है अभिमान, स्वयं रावण बन चलता।
अपने को ही सर्व, श्रेष्ठ मानता फिरता।।
कहें मिसिर कविराय, स्वयं को छोटा बूझो।
प्रभु ही सत्तासीन,प्रबल उन को ही समझो।।
73- शुभ कामना (रोला छंद)
सब के हित की बात, जो करता वह राम है।
रखकर पावन सोच,मन पाता विश्राम है।।
रखना सुंदर भाव, बनोगे प्रियतम उत्तम।
सबके प्रति हो स्नेह, बनेगा मन अति अनुपम।।
कर मिलकर सहयोग,कठिन काम अति सरल हो।
बढ़े आपसी प्रीति,हृदय पक्ष नहिं गरल हो।।
शुद्ध भाव को साध, साधक बन चलते रहो।
दीनों के दुःख-दर्द,सहज बाँटते नित बहो।।
कर मानव कल्याण, कर्म यह सुंदर फलप्रद।
सब के प्रति अनुराग, दिलाता पावन शिवपद।।
74- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
जाना जिस को है जहाँ, जाता स्वयं जरूर।
पुनः लौटता या नहीं, यह है प्रश्न अधूर।
यह है प्रश्न अधूर,नहीं उत्तर है निश्चित।
कहाँ कौन का खेल, मेल है बहुत अनिश्चित।।
कहें मिसिर कविराय, नियति है जिस का आना।
करो अटल विश्वास, सुनिश्चित उस का जाना।।
75- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
धारा निर्मल बन बहो, दो पावन सन्देश।
बनें सभी परिजन सुखद,दिल में प्रेमावेश।।
दिल में प्रेमावेश, करे सब को आकर्षित।
सुंदर बने समाज, स्नेह से हो नित सिंचित।।
कहें मिसिर कविराय, भाव यह सहज अपारा।
सद्भावों का सिंधु, बहे बन अविरल धारा।।
76- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
मारा जिसने मन सतत, वही बना प्रिय सन्त।
मन-साधक ही एक दिन, चढ़ता गगन अनन्त।।
चढ़ता गगन अनन्त, बना कौतूहल रहता।
बनकर मोहक दृश्य, स्वयं में विचरण करता।।
कहें मिसिर कविराय, सन्त इस जग में प्यारा।
पाया वह सम्मान, स्वयं मन को जो मारा।
मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
तारा बन उड़ गगन में, देखो चारोंओर।
पकड़ाओ इस जगत को, सदा योग की डोर।
सदा योग की डोर, पकड़ मानव हो योगी।
करे स्वयं में वास, त्याग कर काया भोगी।।
कहें मिसिर कविराय, बनो इक सुंदर न्यारा।
सिद्धि योग का भाव, भरो सब में बन तारा।।
77- अपावन (चौपाई)
चला चीन से पतित अपावन।
बहुत भयानक परम डरावन।।
हवा बना वह दौड़ रहा है।
ले गिरफ्त में रौंद रहा है।।
सारा जग “कोरोना हब” है।
मुश्किल में जीवन अब-तब है।।
डरा हुआ दिखता मानव है।
भारी पड़ा हुआ दानव है।।
चाहे जितनी दवा बनाओ।
“वैक्सिनों” की खोज कराओ।।
तरह-तरह की युक्ति लगाओ।
फिर भी अपनी पीठ दिखाओ।।
महाकाल छाया अंबर में।
बाहर से घुसता अंदर में।।
नाक-गला-फेफड़ा चबाता।
सहज मौत की भेंट चढाता।।
रक्तबीज का वध कब होगा?
भष्मासुर मर्दन कब होगा??
कब आयेंगी दुर्गा माता?
“त्राहि मां” हे शक्ति-विधाता।।
चिंता मत कर धीरज रखना।
बुधि-विवेक से चलते रहना।।
सामाजिक दूरी अपनाओ।
घर में रह कर काम चलाओ।।
कोरोना को नश्वर जानो।
जहरीले को तुम पहचानो।।
दूर रहो बस यही तरीका।
कोरोना तब होगा फीका।।
यही अस्त्र है सहज शस्त्र है।
योद्धाओं का यही वस्त्र है।।
दूरी का जब ख्याल रखोगे।
निश्चित कोरोना मारोगे।।
कोरोना को मरना ही है।
इस राक्षस को जरना ही है।।
संयम से जब काम करोगे।
कोरोना से नहीं डरोगे।।
भागेगा कोरोना डर कर।
बनना सीखो पावन सुंदर।।
क्या कर लेगा नीच कोरोना?
जूते-जूते इस को धोना।।
78- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
तोड़ो मत संबन्ध को, कर सब से संवाद।
संवादों के मूल में, है समाज का स्वाद।
है समाज का स्वाद, बहुत ही रुचिकर मोहक।
कर समाज से स्नेह, रहो बनकर उत्प्रेरक।।
कहें मिसिर कविराय, सभी से नाता जोड़ो।
मधुर बहुत संबन्ध, कभी मत नाता तोड़ो ।।
मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
नाता इस संसार में,बहुत दिव्य अनमोल।
सब के दिल में बैठ कर, प्रेम रसायन घोल।।
प्रेम रसायन घोल, परम अमृत हितकारी।
जो करता है पान, बनत है शिव अविकारी।।
कहें मिसिर कविराय, वही जग में यश पाता।
जो रखता है भाव, प्रेममय सब से नाता।।
79- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
छोटा कोई है नहीं, समय बड़ा बलवान।
छोटा है जो आज वह, कल बन जात महान।।
कल बन जात महान, समय का यह चक्कर है।
छोट बड़ा को देत, बहुत भारी टक्कर है।।
कहें मिसिर कविराय, भाव मत रखना खोटा।
जग में बड़ा न कोय, नहीं है कोई छोटा।।
80- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
आयें जब प्रभु याद में, बहे अश्रु की धार ।
तब समझो तुम पा गये, श्री प्रभु जी का प्यार।।
श्री प्रभु जी का प्यार,जान लो अति दुर्लभ है।
जन्म-जन्म का पुण्य,बनाता इसे सुलभ है।।
कहें मिसिर कविराय, सभी प्रभु के गुण गायें।
खोलो दिल के द्वार, कहो हे प्रभु जी आयें।।
81- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
काया अपनी तोड़ कर,करते रह अभ्यास।
सकल मनोरथ सिद्धिप्रद, केवल सघन प्रयास।
केवल सघन प्रयास, सफलता का है साधन।
करते जाओ कर्म, लगा दो अपना तन-मन।।
कहें मिसिर कविराय, बनो अपनी ही छाया।
करते रहो प्रयोग, निरन्तर अपनी काया।।
82- मिसिर हरिहरपुरी की कुण्डलिया
राजा कोई है नहीं, सब हैं रंक समान।
जिस को कुछ नहिं चाहिये, उस को राजा जान।।
उस को राजा जान, जो खुश रहता आजीवन।
थोड़े में संतुष्ट, रहा करता है निज मन।।
कहें मिसिर कविराय,रहे मन जिस का ताजा।
वही राज का भोग, किया करता बन राजा।।
83- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
चलना हो तो चल सतत, पहुँच राम के द्वार।
सिर्फ राम के जाप में, सहज राम दरबार।।
सहज राम दरबार, बनाता मन को मानव।
गढ़-गढ़ काढ़त खोट, मिटाता सारे दानव।।
कहें मिसिर कविराय, सीख ले सच्चा बनना।
पहुँचो चारों धाम, अगर मन में हो चलना।।
84- उत्साह (रोला छंद)
मन में भर लो जोश, कभी मत चिंतित होना।
जो हो दिल में लक्ष्य, उसी को नियमित ढोना।।
हो कर्मों से प्यार, कर्म से रखना नाता।
केवल निष्ठावान, जगत में सब कुछ पाता।।
साहस का संसार, दिखाता सब को मंजिल।
मन में सहज जुनून, बनाता सब को काबिल।।
जीवन का आसार, छिपा है मोहक मन में।
आगे को ही देख, चलो सुंदर उपवन में।।
नहीं किसी को देख, काम में केवल जागो।
करो अनवरत कर्म, निकम्मे मन को त्यागो।।
करो निरन्तर यत्न, लक्ष्य को यदि पाना है।
रहे मनोबल ऊँच,काम करते जाना है।।
85- हरिहरपुरी के सोरठे
मन में रहे उमंग, लक्ष्य हो सुंदर न्यारा।
चढ़े प्रेम का रंग,मने होली आजीवन।।
सब के प्रति सम भाव, सदा चंदन की माला।
छोड़ो प्रेम प्रभाव, सब का साथी बन सदा।।
निर्मलता की खोज, रहे होती नित मन में।
उग कर बनो सरोज, दिखो मोहक मनभावन।।
सब से उतम ज्ञान, सिखाता बनना मानव।
कर सब का सम्मान, धर्म एक यह अति सहज।।
बनना सीखो छाँव, छाया बन कर मदद कर।
मरहम बन कर घाव, सभी के धोते रहना।।
पूछो सब का हाल,यही नीति है अति सुखद।
बनना मालामाल, सब के हित की बात कर।।
86- वज्रपात का समाधान (चौपाई)
वज्रपात हो रहा चतुर्दिक।
ताण्डव करता सतत अनैतिक।।
सब का चेहरा लगता काला।
किन्तु अपावन है मतवाला।।
गन्दा नाला का कीड़ा है।
करता बहु गन्दा क्रीड़ा है।।
पतित नीच से दूरी रखना।
मिलने की कोशिश मत करना।।
कभी निकट मत आने देना।
मारे उस को अपनी सेना।।
दूर खड़ा हो सैनिक बनना।
उस का चेहरा सतत कुचलना।।
“चेन” तोड़ना बहुत जरूरी।
कोरोना की तोड़ो चूड़ी।।
आपस में सहयोग चाहिये
दो गज दूरी रोज चाहिये।।
चेहरा ढक कर चलते रहना।
साफ-सफाई नियमित करना।
बाहर नहीं निकलना प्यारे।
खड़ा दीखना एक किनारे।।
अतिशय सावधान रहना है।
कोरोना का बल हरना है।।
कोरोना को मरना होगा।
दूर -दूर ही चलना होगा।।
बन एकाकी रहो अकेला।
कोरोना का कसो नकेला।।
अपनेआप मरेगा साला।
नीच-दुष्ट का कर मुँह काला।।
87- दुःख (सोरठा)
दुःख है बहुत अपार, नहीं है मन यह मानत।
बदलत नहीं विचार,बार-बार दुःख देखकर।।
दुःखमय जीवन सून, उदासी मन में छायी।
जीवन में सुख न्यून, क्षण भर का है खेल यह ।।
मन है बहुत उदास,नहीं आशा दिखती है।
विछुड़ गया है आस, छोड़ राह में पथिक को।।
दुःखसागर में डूब, जाता दिखता मनुज है।
जाता मानव ऊब,देख दुःखी हर जीव को।।
दुःख की रेखा देख,बहुत व्याकुल मानव है।
कैसे लिखे सुलेख, विद्यालय देखा नहीं।।
धरती कंपित होत,देख निशाचर आचरण।
सुखते जाते स्रोत, नयन में नीर नहीं है।।
88- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
पावन अंदर से बना, जो भी वही महान।
निर्मल मन रचता सतत, हितकर सुखद विधान।।
हितकर सुखद विधान, सर्व जन मंगलकारी।
रखता सब का ध्यान, भाव रखता उपकारी।।
कहें मिसिर कविराय, बनो आजीवन सावन।
रहे लुभानी दृष्टि, हृदय हो अतुलित पावन।।
89- संकट से छुटकारा होगा
(चौपाई)
संकट से छुटकारा होगा
यह जीवन नित प्यारा होगा।।
भ्रांति न पालो रह न सशंकित।
आशाएँ हों मन में अंकित।।
लगा रहे मन नित्य भजन में।
दिव्य भावना सब के मन में।।
मन से संकट सदा निकालो।
सुंदर सोच हृदय में डालो।।
हो निर्भीक सतत चलना है।
विकृत जीवों से लड़ना है।।
कदम बढ़ाओ पीछे मत हट।
मोर्चे पर जाना है अब डट।।
जीत उसी की जो निर्भय है।
उच्च मनोबल सदा अभय है।।
जो भी डरा वही है हारा।
सच्चा सैनिक अतिशय प्यारा।।
वीर बहादुर बन कर लड़ना।
दुश्मन के सीने पर चढ़ना।।
अंतिम दम तक है जो लड़ता ।
उसे “विजयश्री” का हक मिलता ।।
जो संकट को मक्खी मानत।
वही विजय का पर्व मनावत।।
जो दुश्मन को काट रहा है।
वह यश-वैभव बाँट रहा है ।।
90- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
माता की ममता सहज, सरल सघन मधु स्नेह।
आदि शक्ति माँ अद्यतन,है अमृत का गेह।।
है अमृत का गेह, लुटाती सारा जीवन।
अमृत पय का पान, कराती रचती तन-मन।।
कहें मिसिर कविराय, मात ही असली दाता।
शिशु पर देती जान, जगत में जो वह माता।।
91- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
मानव काढ़ रहा यहाँ, मानव की ही खाल।
कौवा-कुत्ता-गिद्ध बन, नोंचत सब के बाल।।
नोंचत सबके बाल, दरिंदा पतित अपावन।
ले अवसर का लाभ,नाचता नीच डरावन।।
कहें मिसिर कविराय,हुआ जो मन से दानव।
ऐसा घृणित पिशाच, नहीं बन सकता मानव।।
92- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
आशा रूपी पुष्प का, कर प्रभु से इजहार।
संकट के हर काल में, सुनते वही पुकार।।
सुनते वही पुकार, दौड़ कर वे चल आते ।
दाता दीनदयाल,सहज रक्षक बन जाते।।
कहें मिसिर कविराय, पाल मत कभी निराशा।
कर प्रभु से फरियाद, वही हैं अंतिम आशा।।
93- मिसिर रामबली की कुण्डलिया
घेरा में निष्काम के,रहे करे जो काम।
वही स्वयं में धर्म प्रिय, परम भव्य शिव धाम।।
परम भव्य शिव धाम,आदि काशी नगरी है।
सुखद भावना दिव्य, वहाँ रहती जबरी है।
कहें मिसिर कविराय, बनाओ पावन डेरा।
करना जनसहयोग, तोड़ स्वारथ का घेरा।।
94- जीवन को संग्राम समझना
(चौपाई)
जीवन को संग्राम समझना।
दुश्मन के आगे मत झुकना।।
ललकारो नित बढ़ते जाओ।।
धक्का दे कर उसे भगाओ।।
विषम परिस्थिति जब भी आये।
संकट का बादल मड़राये।।
हो तैयार शत्रु को मारो।
डरना कभी नहीं संहारों।।
धीरज धारण कर के लड़ना।
चुटकी भर में उसे मसलना।।
वैरी का छक्का छुड़वाओ।
उस के ऊपर चढ़ कर जाओ।।
खेल समझ कर लड़ते रहना।
हँस-हँस-हँस कर बढ़ते चलना।।
नहीं भागने दो दुश्मन को।
करो सफल अपने जीवन को।।
95- मिसिर बाबा की कुण्डलिया
जीतो अपने आप को,जीत सकल संसार।
अग्रदूत बनकर बढ़ो,कर सब का सत्कार।।
कर सब का सत्कार, मिलो सब से बन दिलवर।
सारे बन्धन तोड़,रहो सब से हिलमिल कर।।
कहें मिसिर कविराय,प्रेम मदिरा को पी तो।
अहंकार को त्याग, अटल हो खुद को जीतो।।
96- हरिहरपुरी के दोहे
होनी को टाला नहीं, जा सकता है मीत ।।
होनी पर अफसोस के, लिखना कभी न गीत।।
होनी ईश-विधान है,होनी को स्वीकार।
इस अवश्य परिणाम को,कभी नहीं धिक्कार।।
तेरे वश में कुछ नहीं, सब ईश्वर का खेल।
बच कर जाओगे कहाँ, कर होनी से मेल।।
विपदा से मुँह मोड़ मत,चंद दिनों की बात।
कट जायेगी जल्द ही, घोर अँधेरी रात।।
संकट से करना नहीं, तुम कदापि परहेज ।
यह भी एक प्रकार का, ईश प्रदत्त दहेज।।
सुख में भज लो ईश को,कट जाये दुख शोक।
जो सुख में भजता वही,रमता प्रभु के लोक ।।
97- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
करना नहीं अकाल पर, कुछ भी कभी सवाल।
माया देखो ईश की, वही काल के काल।।
वही काल के काल, सदा नैतिक
शिक्षक हैं।
परम मंत्र प्रिय तंत्र, सभी के शिव रक्षक हैं।।
कहें मिसिर कविराय, ईश को देखे नयना।
है संकट की काट, ईश से बातें करना।।
98- मिसिर कविराय की कुण्डलिया
माता ही आदर्श है, माता परम महान।
माता पूजा गेह है,माता ही भगवान।।
माता ही भगवान, सृष्टि संचालन करती।
बनकर पालनहार, क्षुधा को भरती रहती।।
कहें मिसिर कविराय, अगर कोई है दाता।
बहुत बड़ा है नाम,जिसे कहते हैं माता।।
99- हरिहरपुरी की कुण्डलिया
जननी जग की एक बस, भाव एक अनुराग ।
केवल जग का ख्याल कर,देती सब कुछ त्याग।।
देती सब कुछ त्याग, सिर्फ सेवा ही जीवन।
रहता है उत्साह, प्रेम आदर शीतल मन।।
कहें मिसिर कविराय,जगत में पावन करनी।
का है प्रियतम स्रोत, दिव्यमय सुखदा जननी।।
100- माता (चौपाई)
अनुपम भाव विचार तुम्हीं हो।
सदाचार सत्कार तुम्हीं हो।।
अद्वितीय अतिशय प्रिय नारी।
सबसे ऊपर भव्या न्यारी।।
परम विशिष्ट लोक हितकारी।
मंगलमय अति सहज कुमारी।।
प्रिय मूरत पावन बड़ भागी।
सत्य रूपसी शिष्ट विरागी।।
महा शक्ति शिव आदि महेशा।
देव व्रती देवत्व सुरेशा।।
निःस्वारथ निष्काम सुधामय।
अगणित शुभ कामी वसुधामय।।
गगन पवन पावक क्षिति जल हो।
सिद्ध प्रसिद्ध प्रेम निर्मल हो।।
ध्यान मान सद्ज्ञान दान हो।
नेति-नेति विद्या विधान हो।।
पूजा पूजन पूजनीय हो।
रघुकुल राघव रामसीय हो।।
प्रेम प्रसाद सकल मनरंजन।
दिव्य भोग मधु छप्पन व्यंजन।।
माता ममता महा मनीषी।
महाकाशमय शिवा रूपसी।।
सृष्टिविधाता नमन तुम्हारा।
हे माताश्री !दे सुख प्यारा।।
लेखक:
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
ग्राम व पोस्ट-हरिहरपुर (हाथी बाजार) , वाराणसी -221405
उत्तर-प्रदेश,भारत वर्ष