“डॉ० रामबली मिश्र ‘हरिहरपुरी’ का
“डॉ० रामबली मिश्र ‘हरिहरपुरी’ का
विश्व हिंदी साहित्य कोश”
खण्ड – 2
रचनाकार:
डॉ०रामबली मिश्र’हरिहरपुरी’
ग्राम व पोस्ट-हरिहरपुर
( हाथी बाजार)
जनपद- वाराणसी-221405
उत्तरप्रदेश , भारतवर्ष ।
1- सेवा (चौपाई)
मुझको सेवा का अवसर दें।
आने का मौका अक्सर दें।।
अभिवादन स्वीकार कीजिये।
सेवा का अधिकार दीजिये।।
सेवा में ही मानवता है।
मानव में ही नैतिकता है।।
मानव का सत्कार कीजिये।
नैतिकता से प्यार कीजिये।।
सेवक बनना सबसे उत्तम।
सेवा में रहते पुरषोत्तम।।
सेवक को उपहार दीजिये।
सेवक का उद्धार कीजिये।।
सेवा में अति शक्ति छिपी है।
सेवा में ही भक्ति छिपी है।
सेवा अंगीकार कीजिये।
सेवक पर उपकार कीजिये।।
2- मत मुकरो (चतुष्पदी)
मत मुकरो तुम कभी प्यार से,
सटे रहो तुम नित्य यार से;
इधर-उधर की बात न करना,
जोड़ तार को सदा तार से।
प्यार करोगे तो पाओगे,
नहिं तो पीछे पछ्ताओगे;
छिपा प्यार में अमी कुंड है,
रख रसना पर रम जाओगे।
रमकर प्यारे बन जाओगे,
नहीं मृतक तुम कहलाओगे;
जीना सीखो सदा प्यार में,
अमृत सिंधु उतर पाओगे।
3- मोहब्बत (चतुष्पदी)
मोहब्बत में धोखा भले खाता मन है,
पर वह समझता मोहब्बत वतन है;
मोहब्बत में जीता मोहब्बत में मरता,
मोहब्बत की खातिर वह जिंदा बदन है।।
मोहब्बत को सिर पर लिये वह मचलता,
मोहब्बत का इजहार करते बहकता;
मोहब्बत बिना जिंदगी है अधूरी,
मोहब्बत को दिल से लगाये थिरकता।
मोहब्बत के कारण बहकती जवानी,
मोहब्बत से बनती विगड़ती कहानी;
मोहब्बत बड़ी चीज है जिंदगी में,
मोहब्बत रुहानी अलौकिक रवानी।
मोहब्बत हो सबसे तो क्या पूछना है?
मोहब्बत मिले फिर तो क्या याचना है?
मोहब्बत में संसार की रश्मियाँ हैं,
मोहब्बत को जानो यही कामना है।
4- प्रियवर (सजल)
प्रियवर को अपने कभी मत भुलाना।
निगाहों से अपनी कभी मत गिराना।।
प्रियवर सा पाना बहुत ही कठिन है।
प्रियवर है भावुक बहुत प्रिय सुहाना।।
होता उदय भाग्य मिलता है प्रियवर।
सजल मन से प्रियवर को निश्चित बुलाना।।
अहोभाग्य तेरा जो पाये हो प्रियवर।
गले से लगाकर हृदय में बसाना।।
बहुत यार तेरा मजा देगा तुझको।
नजरों में अपने तुम उसको सजाना।।
मस्ती भरी जिंदगी हो सुहानी।
प्रियवर की प्रतिमा की काया बनाना।।
इसी कल्पना को स्वीकारो तुम मन से।
आस्था व विश्वास कर बढ़ते जाना।।
5- अत्याचार नहीं…..(चौपाई)
अत्याचार नहीं सह सकता।
वही लोक का नायक बनता।।
ऐसा मानव पूजा जाता।
सबके द्वारा पूछा जाता।।
बना हुआ जो स्वाभिमान से।
गर्वीला जग बुद्धिमान से।।
मेधावी अभिमानी योधा।
राष्ट्रप्रेममय ज्ञान पुरोधा।।
आजादी का परम दीवाना।
स्वांतः सुख के हेतु रवाना।।
स्वतंत्रता ही ध्येय दिव्य था।
अत्याचार विरुद्ध भव्य था।।
एक व्यक्ति में महा शक्ति थी ।
नायकत्व में राष्ट्र भक्ति थी।।
हिन्द फौज का प्रिय संस्थापक।
आजादी का महान नायक।।
परम हितैषी राष्ट्र्जनों का।
अतिशय मनभावन स्व-जनों का।।
परम सपूत राष्ट्र निर्माता ।
प्रिय सुभाष चन्द्र विख्याता।।
बना कटक प्रिय जन्मस्थल है।
बंग-कलकता छात्रस्थल है।।
कर्मभूमि बंगाल स्वर्ग सम।
आंग्ल कुशासन के प्रति निर्मम।।
जन सेवक अतिशय बलशाली।
राष्ट्रवाद की पीते प्याली।।
शिवाकार हनुमान-राम सा।
दिव्य चक्षु सम्पन्न श्याम सा।।
कूद पड़े राक्षस के ऊपर।
परम क्रुद्ध नित अंग्रेजों पर।।
मार भगाने को संकल्पित।
दीवाने का हृदय समर्पित।।
जन्म दिवस को रोज मनाओ।
जय सुभाष उदघोष लगाओ।।
बोस सुभाष चंद्र की वाणी।
अजर अमर अतिशय कल्याणी।।
6- जैसा चाहो… (सजल)
जैसा चाहो बन सकते हो ।
जैसे चाहो रह सकते हो।।
सभी क्रियाओं का मालिक बन।
मुट्ठी में सब भर सकते हो।।
संयम से सब कुछ संभव है।
जैसा चाहो कर सकते हो।।
छिपी चाह में क्रिया तुम्हारी।
सुंदर चिंतन कर सकते हो।।
पावन भावों के निर्मल जल।
में बहते तुम चल सकते हो।।
चलकर उठकर शिव लहरी सा।
जग को पावन कर सकते है।
जग ही ध्येय एक हो सबका।
खुद ही जग को गढ़ सकते हो।।
जग को गढ़ना रहे मुबारक।
जनमानस में रम सकते हो।।
नित्य रमण कर मानव बनकर।
मानवता को पढ़ सकते हो ।।
7- धर्म क्षेत्र (चौपाई)
धर्म क्षेत्र अतिशय व्यापक है।
सकल विशुद्ध क्रिया-वाचक है।।
अति संवेदनशील धरातल।
सात्विक भाव प्रधान अटल तल।।
कर्म प्रधान विश्व की रचना।
कर्म फलद यह शिव की वचना।
सुंदर सात्विक कर्म युधिष्ठिर।
दुर्योधन दूषित अति दुष्कर।।
धर्म क्षेत्र में सत्य-असत्या।
सत्य विजयश्री राक्षस हत्या।।
पाण्डव करता सदा धर्म है।
दुर्योधन करता अधर्म है।।
सीखो धर्म युधिष्ठिर बनकर।
धर्म क्षेत्र को अति पुनीत कर।।
धर्म क्षेत्र को पावन करना।
सत्य अहिंसा प्रेम वरतना।।
न्याय पंथ पर कदम बढ़ाना।
मानवता का पाठ पढ़ाना।।
सबके प्रति सम्मान भाव हो।
धर्म क्षेत्र का शुभ प्रभाव हो।।
8- विधवा पुनर्विवाह चालीसा
दोहा:
विधवा के सम्मान से, कटता मन का पाप।
विधवा को लक्ष्मी समझ, दूर करो संताप।।
विधवा की रक्षा करो, हर लो दुःख अरु शोक।
आओ अग्र समाज में, बनो नहीं डरपोक।।
विधवा का सम्मान किया कर।
विधवा का अपमान नहीं कर।।
विधवा को जीने का हक है।
विधवा को रहने का हक है।।
कभी नकारो मत विधवा को।
सहज सकारो नित विधवा को।।
विधवा का सम्मान जहाँ है।
मानवता का ज्ञान वहाँ है।।
बैठाओ विधवा को उर में।
दो सिंहासन अंतःपुर में।।
सिंहासन पर नित्य विराजें।
पा कर मदद स्वयं में राजें।।
विधवावों का पुनर्वास हो।
सुंदर घर प्रिय शुभ निवास हो।।
इनके प्रति जिसमें संवेदन।
वह खुशहाल दिव्य प्रतिवेदन।।
इन्हें प्रेम-अहसास चाहिये।
सहानुभूति उजास चाहिये।।
होय विवाह पुनः इनका भी।
स्थापित हो समाज इनका भी।।
जो भी इनकी मदद करेगा।
स्वांतः सुख का भोग करेगा।।
इनके प्रति जहँ प्रेम-स्नेह है।
वहीं ईश का करुण-गेह है।।
विधवावों को राह दिखाओ।
फिर से इनको देवि बनाओ।।
अपनाओ इनको बढ़-चढ़कर।
गढ़ दो प्रिय समाज अति सुंदर।।
विधवा को विधवा मत जानो।
विधवा की अस्मिता बचाओ।।
नहीं टूटने इनको देना।
इनको सीने में रख लेना।।
इनको कभी न रोने देना।
मानवता का वट बो देना।।
अश्रुधार को मत गिरने दो।
मुस्कानों में ही बसने दो।।
विधवाएँ भी नारी होतीं।
अतिशय कोमल प्यारी होतीं।।
इसको निर्मल बन बहने दो।
गंगा माता सी बनने दो।।
दोहा:
विधवा पुनर्विवाह का,करो समर्थन नित्य।
विधवा को स्थापित करो, बन जाये वह स्तुत्य।।
9- बेटी (दोहे)
बेटी को बेटा समझ, कर उसका सम्मान।
दोनों में क्या फर्क है, बेटी दिव्य महान।।
बेटी घर की रोशनी, करती घर उजियार।
आदि शक्ति सम्पन्न यह, रचती घर संसार।।
करतीं प्यारी बेटियाँ, घर का सारा काज।
शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर, करतीं दिल पर राज।।
बेटी के आयाम बहु, यह बहु- उद्देशीय।
बेटी को अति स्नेह दो, यह अतिशय महनीय।।
बेटी की पूजा करो, यही सृष्टि का धाम।
अब तो बेटी कर रही, सकल लोक में नाम।।
कोई ऐसा पद नहीं, जिस पर वह आसीन।
जग के नित्य विकास में, बेटी प्रबल प्रवीण।।
बेटी के अरमान को, मत कर चकनाचूर।
सदा मनाओ जन्मदिन, बेटी का भरपूर।।
बेटी का जब जन्म हो, होना बहुत प्रसन्न।
आयीं घर में आज हैं,लक्ष्मी जी आसन्न।।
अति पवित्र अवधारणा, बेटी शब्द महान।
बेटी में बेटा छिपा, बेटी में भगवान।।
10- पावन कर्म (चौपाई)
परहित का ही चिंतन करना।
परहित को ही विषय समझना।।
धर्मशास्त्र का यह अवधारण।
तुलसी का यह मधु पारायण।।
त्याग स्वयं को धर्मवाद बन।
खो जाओ खुद निर्विवाद बन।।
मस्ती है खुद खो जाने में।
सारे जग का हो जाने में।।
धर्म सरीखा नहिं कुछ कर्मा।
कृष्ण रथी बन कर सत्कर्मा।।
सत्कर्मों में त्याग धर्म है।
त्याग-तपस्या सत्य मर्म है।।
स्व का जब बलिदान करोगे।
पर में खुद घुलमिल जाओगे।।
परहित में जो रहता जिंदा।
अति प्रिय बनता वही परिंदा।।
सकल कर्म का एक लक्ष्य हो।
मानवता ही फलित साक्ष्य हो।।
मानव से ही धर्म बना है।
दिव्य रूप में कर्म सना है।।
धर्मशास्त्र को पढ़ो पढ़ाओ।
कर्मवाद का स्वाद बताओ।।
जबतक सुंदर कर्म रहेगा।
मानववादी धर्म चलेगा।।
11- हिंदुस्तान मैरिज ब्यूरो
मैरिज ब्यूरो हिंदुस्तान।
प्रयागराज अति पावन स्थान।।
शास्त्री देव नरायण सन्त।
ब्यूरो के वे दिव्य महंत।।
विधवा विधुर विवाह उदार।
देव नरायण करते प्यार।।
देव नरायण परम सुशील।
परम हितैषी प्रिय अनुकूल।।
करते सबसे वार्तालाप।
सुंदर चित्तवृत्ति से जाप।।
अब समाज से गन्दी रीति।
भागे,जागे मन में प्रीति।।
विधवा विधुर भरें मुस्कान।
नाचें गायें सुंदर गान।।
पुनर्विवाह का हो गुणगान।
पाये यह विवाह सम्मान।।
मैरिज ब्यूरो हिन्दुस्तन।
देव नरायण का हो मान।।
दुःखियों का जीवन खुशहाल।
सत्युग का हो सात्विक काल।।
विधवावों के मन में हर्ष।
विधुरों का भी हो उत्कर्ष।।
सबको आदर भाव चाहिये।
सुरभित जीवन नाव चाहिये।।
12- कैसे कह दूँ? (चौपाई)
कैसे कह दूँ प्यार हुआ है?
साहस रहित विचार हुआ है।।
नहीं जुटा पाता हूँ हिम्मत।
खाली हाथ दीखती किस्मत।।
मन में पागलपन छाया है।
दिल को अति बचपन भाया है।।
चाह रहा हूँ मुँह को खोलूँ।
अपने उर की बातें बोलूँ।।
नहीं नहीं मैं नहीं कहूँगा।
कभी नहीं कुछ भी बोलूँगा।।
चाहे जो बीते अपने पर।
धब्बा नहीं लगेगा तन पर।।
स्वाभिमान से समझौता मत।
स्वभिमान में ही जीवन रत।।
स्वाभिमान का शंख बजाऊँ।
नहीं प्यार का राज बताऊँ।।
स्वाभिमान से प्यार करूँगा।
स्वाभिमान का यार बनूँगा।।
स्वाभिमान मस्तक पर होगा।
स्व पर स्व नतमस्तक होगा।।
13- नहीं तड़पना (चौपाई)
व्यक्ति वस्तु के लिये तड़पना।
अतिशय लौकिवादी बनना।।
चित्तवृत्ति यह ठीक नहीं है।
मनोवृत्ति यह नीक नहीं है।।
मत भागो माया के पीछे।
कभी नहीं काया के पीछे।।
काया माटी से निर्मित है।
मल अरु रक्त यहाँ संचित है।।
काया को मत आतम जानो।
नश्वर तथ्यों को पहचानो।।
नश्वर त्याग सत्य में जागो।
कभी नहीं मिथ्या को माँगो।।
कामवासना अति विषधर है।
सिर्फ देखने में सुंदर है।।
बहु क्षणभंगुर काम पिपासा।
है अंतिम परिणाम निराशा।।
काम रूप में केवल तड़पन।
काल बना यह करता प्रहसन।।
इसका चक्कर खतरा करता।
सदा खून को पतला करता।।
14- गणतंत्र दिवस
नये वर्ष का छब्बीसवाँ दिन,
भारत का गणतंत्र दिवस है।
संविधान का यह पावन दिन,
संविधान निर्माण दिवस है।
गणतांत्रिक यह प्रजा प्रणाली,
जनता का यह पर्व दिवस है।
जनता के हाथों में सत्ता,
जनता का यह सर्व दिवस है।
जनता चुनती अपना नायक,
जनता का मतदान दिवस है।
अधिकारी मतदाता मत का,
जनता का अधिकार दिवस है।
मतदाता में शक्ति निहित है,
सत्ता को स्वीकार दिवस है।
जब चाहे सत्ताच्युत कर दे,
जनता का प्रतिकार दिवस है।
जनता को ही समझ जनार्दन,
जनता का सुविचार दिवस है।
जनता के पीछे नेताजन,
जनता का दरबार दिवस है।।
जनगणमन ही सर्वोपरि है,
जनता का सरकार-दिवस है।
जनता अति प्रिय जननायक है,
जनता का ही प्यार दिवस है।
संविधान जनता में केंद्रित,
,जनता खेवनहार दिवस है।
भारत की जनता बड़भागी,
सत्ता का हकदार दिवस है।
15- राष्ट्रप्रेम (चौपाई)
राष्ट्रप्रेम मन में तब जागत।
जब सब राष्ट्रमनुज मन भावत।।
सबके प्रति अनुराग बहत जब।
राष्ट्र भाव आवत उर में तब।।
हों उपसंस्कृतियाँ मनभावन।
सकल बस्तियाँ बहुत लुभावन।।
सब नदियों के प्रति अनुरागा।
सभी पहाड़ों के प्रति रागा।।
सकल स्वयं की राष्ट्र संपदा।
अपनी बने राष्ट्र की विपदा।।
दिखे राष्ट्र यह इक परिवारा।
राष्ट्र बिना यह मन बेचारा।।
रहे राष्ट्र के प्रति संवेदन।
सबके प्रति हो शुभ आवेदन।।
सबका सुख-दुःख अपना जानो।
सकल राष्ट्र को अपना मानो।।
स्वयं बनो इक घटक राष्ट्र का।
प्रिय बन जाओ एक राष्ट्र का।
राष्ट्र हितों में सीखो जीना।
राष्ट्रवाद की हाला पीना।।
सब कुछ करो राष्ट्र के कारण।
करते रहना राष्ट्रोच्चारण ।।
राष्ट्रपिता गाँधी बन जाओ।
राष्ट्र बनाने में लग जाओ।।
राष्ट्रप्रेम का सिक्का बन जा।
राष्ट्रभक्तिमय पक्का बन जा।।
राष्ट्रदूत बन फर्ज निभाओ।
राष्ट्रभूमि का कर्ज चुकाओ।।
16- मातृभूमि चालीसा
दोहा-
मातृभूमि को नमन कर, करना सीखो प्यार।
मातृभूमि में है छिपा,प्रिय जीवन का सार।।
मातृभूमि प्रिय सोच है, पावन शुभद विचार।
परम रम्य प्रिय भूमि पर, रह कर निज उद्धार।।
चौपाई-
मातृभूमि को वतन बनाना।
सब धामों का यही खजाना।।
मातृभूमि जिसको अति प्यारी।
उसकी दुनिया सुंदर न्यारी।।
जन्मभूमि प्रिय स्वर्ग समाना।
इस माटी का लेप लगाना।।
जन्मभूमि की करो वन्दना।
इस पूर में जीवनभर रहना।।
भाग्यशालियों का यह आलय।
खुद का यह अति प्रिय देवालय।।
जो प्रेमी है मातृभूमि का।
उर में उसके भाव-मातृका।।
पुरजन स्वजन सभी मनलायक।
प्रिति परस्पर सभी सहायक।।
उन्हें देख मन हर्षित होता।
हृदय प्रेम से पुलकित होता।।
लगता नहीं अभाव यहाँ है।
मातृ शक्ति की छाँव यहाँ है।।
बनी अमर माँ की काया है।
जन्मभूमि माँ की माया है।।
मातृ भूमि को कभी न त्यागो।
इसे छोड़कर कहीं न भागो।।
इसे त्यागना पाप समाना।
नहीं विरत को सहज ठिकाना ।।
मातृभूमि से जिसे घृणा है।
वह सहता रहता पीड़ा है ।।
उसको सुंदर ठौर नहीं है।
दिल में मधुरिम शोर नहीं है।।
हरिहरपुर अति दिव्य हिमालय।
वरुणा नदी यहाँ करुणालय।।
रामेश्वर प्रिय धाम निकट है।
पंचक्रोश पंथ करवट है।।
भाग्यमान का यह पावन घर।
मातृभूमि हरिहरपुर शिवघर।।
अति पुनीत मेरी किस्मत है।
मातृधाम का नित स्वागत है।।
जननी का यह पावन गेहा।
यहाँ विचरता माँ का स्नेहा।।
मातृभूमि का पूजन कर लो।
भव सागर से पार उतर लो।।
दोहा-
मातृभूमि को पूज कर, रहो मातृ के धाम।
जीवन का आनंद लो,आजीवन मनमान ।।
17- सम्मान चालीसा
दोहा-
जो देता सम्मान है, वह पाता सम्मान।
यह मधुमय उपहार है, विनिमयशील विधान।।
यह कुदरत की देन है, सब में इसको बाँट।
एक बूँद घटता नहीं, है अनंत यह घाट।।
चौपाई-
करना सीखो सबका आदर।
नहीं किसी का करो अनादर।।
जो सब की इज्जत करता है।
वह समाज में प्रिय बनता है।।
रहो प्रतिष्ठित करो प्रतिष्ठित।
विनय भावना रहे सुससज्जित।।
आदरणीय सभी को मानो।
साख्य भावना को पहचानो।।
उर में ममता की माला हो।
मन में समता का प्याला हो ।।
देख स्वयं को सभी जगह पर।
अति सम्मान दृष्टि रख सब पर।।
सम्मानित कर मित्र समझकर।
सदा हृदय से प्रेम किया कर।।
कभी किसी को मत दुत्कारो।
प्रेम सहित सब को पुचकारो।।
नहीं किसी को छोटा जानो।
सब को एक हैसियत मानो।।
सब में बसे हुये परमेश्वर।
दिव्य भाव से चलो देखकर।।
रहो सभी के पास निरन्तर।
करना सीखो बात स्वतंतर ।।
अति सम्मानपूर्ण सब कुछ हो।
हो विपरीत कभी नहिं कुछ हो।।
जो कुछ बोलो प्रेम से बोलो।
अपशब्दों का मुँह मत खोलो।।
करना सीखो शिष्ट आचरण।
पढ़ना सीखो सभ्य व्याकरण।।
सम्मानों का भण्डारण कर।
मुक्त हस्त से नित वितरण कर।।
घटता नहीं नित्य बढ़ता है।
पारा उपरि चढ़ा करता है।।
सम्मानों से सदा सजाओ।
हाव-भाव से हाथ मिलाओ।।
मन में कपट कभी मत रखना।
सब के प्रति हो कर नत रहना।।
संस्कृति पावन रच-रच गढ़ना।
मन से मान बढ़ाते चलना।।
माननीय रीति अति मधुमय ।
सदा मान में प्रीति समुच्चय।।
दोहा-
समानित कर विश्व को, यह अत्युत्तम भाव।
सहज प्रेम-सम्मान का, होता अमर प्रभाव।।
18- संबन्ध
संबन्धों में इकजुटता हो।
सदा परस्पर में मधुता हो।।
भेदभाव से रहित सभी हों।
निष्कामना सहज मन में हो।।
संबन्धों को दें आकर्षण।
दूर करें सारे संघर्षण।।
मन में सबके प्रीति ज्योति हो।
दिल से मानव प्रिय विभूति हो।।
हर मानुष हितकारी होये।
सदा प्रेम की पूड़ी पोये ।।
नहीं किसी का काम बिगाड़े।
सहयोगी बन खूँटा गाड़े।।
दे कर समय डटे सहयोगी।
आये काम दिखे जिमि योगी।।
अपना और पराया भूले।
छूता हृदय सभी का डोले।।
बात करे तो लगे सरस है।
व्यवहारों में प्रेम दरश है।।
बनकर वातावरण सुगन्धित।
दिखे सब जगह शिवमय वन्दित।।
अपने दिल की होय सफाई।
पालन करें सभी अच्छाई।।
दिनकर निकलें सोना बनकर।
हो स्वर्णिम समाज अति रुचिकर।।
दूषित वृत्ति श्वांस अंतिम ले।
शुचि भावों का बीज नित पले।।
शीघ्र पतन हो दुर्गंधों का।
शिव सावन हो संबन्धों का।।
19- धर्म बनता है
नंगे , भूखे -प्यासे जन के ,
प्रति नित अब संवेदन हो।
अन्न-वस्त्र से सदा मदद हो,
सहानुभूति निवेदन हो।
लोकतंत्र में भूखे प्राणी?
यह भी क्या कुछ बात हुई??
लोकतंत्र के रखवालों की,
लगता है अब रात हुई।
रोते बच्चे माँ रोती है,
रक्षक का कुछ पता नहीं।
प्रजातंत्र का यह मतलब है,
भूखी बस्ती अब सोती है।
बनता है यह धर्म नहीं क्या?
सत्ता में उजियारा हो।
प्रजापलकों से यह पूछो,
क्यों गरीब अँधियारा हो??
20- मधुर वचन (दोहे)
मधुर वचन अति कर्णप्रिय, अति सुरभित आनंद।
अमृत मूल प्रवृत्ति को,जानत कवि कुछ चंद।।
मधुर वचन में है भरा,अति मादक मिष्ठान्न।
मधुर शब्द प्रिय रम्य में,बहत मधुर जल-अन्न।।
मीठी वाणी से बहत,शीतल मंद बयार।
सुंदर मीठे वचन से ,कर सबका सत्कार।।
बनो आदती मधुर का, तीखी बोली त्याग।
तीखे वाक्यों को समझ, बहुत विषैला नाग।।
मधुर वचन को जान लो,अपना प्रिय अवतार।
मधुर-मधुर हर शब्द को,चुन-चुन कर व्यवहार।।
इस पवित्र अनमोल धन,से कर शुभ व्यापार।
मधुर वचन से सींच कर, रच हरितिम संसार।।
21- प्रतिभा (दोहे)
असाधारण बुद्धि जो, समझे विषय तुरन्त।
प्रखर मानसिक शक्ति से,बनता प्रतिभावन्त ।।
बुद्धिमान चहुँओर से,प्रातिभ विज्ञ विशेष।
मेधामण्डल में सहज, प्रतिभा करत प्रवेश।।
परम विलक्षण शक्ति यह, अतिशय आभायुक्त।
नव उन्मेषों में सदा, होती सहज प्रयुक्त।।
समझदार इंसान के, भीतर प्रतिभा-देश।
बौद्धिक मानव अति कुशल, बनता प्रज्ञ गणेश ।।
प्रतिभा से संसार का, होता सदा विकास ।
प्रतिभा का संकट जहाँ, वहाँ ह्रास अविकास।।
प्रतिभा में क्षमता निहित, क्षमता से सब काम।
रचते प्रतिभावान ही, प्रिय गुरुकुल का धाम।।
है प्रतिभा जिस देश में, वह है सभ्य समाज ।
प्रतिभा के कारण चलत, ‘टेक्नोक्रेटिक’ राज।।
22- सपना
होगा कोई अपना सपना।
सपने में कोई है अपना।
अपने में श्रृंगार रसामृत।
रस-अमृत में सुंदर सत्कृत।
सत्कृति में है चमक दिव्यतम।
विश्वमोहिनी रूप चमाचम।
चमचम चमकत प्यारा तारा।
तारा लगताअनुपम न्यारा।
न्यारा सपना अतिशय मोहक।
परम मनोहर प्रिय संबोधक।
संबोधन में प्यार छिपा है।
अत्युत्तम सा यार छिपा है।
छिपा यार में अमृत घट है।
घट में लहराता मधु वट है।
वट के पत्ते हिलते प्रति पल।
सब के लिये समर्पित चल-चल।
देते सबको तथ्य अनोखा।
कहते, देना कभी न धोखा।
धोखे में विष की थैली है।
विषमय चादर मटमैली है।
अमृत खोजो विष का मारक।
अमृत पावन उर का कारक।
सुंदर कारक प्रिय सपना है।
प्रिय सपने में ही अपना है।
अपने में ही अपनी जगती।
अपनी जगती में सब जगती।
सारे जग का प्रियवर बन जा।
सपने में प्रभु रघुबर बन जा।
रघुबर बनकर धर्म पंथ रच।
सत्यमेव जयते को कर सच।
23- मधुर चालीसा
दोहा-
मीठी-मीठी बात कर, हो बातों में स्वाद।
मीठी बोली से करो,दुनिया को आबाद।।
मीठी वाणी में बसत,सदा प्रेम की गंध।
स्वतः सुवासित इत्र यह,मीठी शीत सुगंध।।
चौपाई-
मधुर-मधुर अति मधुर मधुरतम।
सर्व सुखाय सहज सर्वोत्तम।।
मस्तक मधुर महक जाने दो।
सात्विक शिव समाज आने दो।।
मधुरामृत रस जब टपकेगा।
मधुमय सारा लोक बनेगा।।
मधुर शब्द का होगा गुंजन।
मादक काव्यों का तब पूजन।।
मधुर-मधुर मुस्कान मात्र हो।
मधुर ज्ञानमय प्रज्ञ पात्र हो।।
मधुर प्राप्य की रहे अपेक्षा।
कटु भावों की सतत उपेक्षा।।
मोहनीयता कण-कण में हो।
अति व्यापकता जन-गण में हो।।
मधुर गद्य नित मधुर पद्य हो।
मधुराकृति में सदा अद्य हो।।
सब कर्मों में मधुर गेह हो।
प्राणिजनों में मधुर स्नेह हो।।
सब मधु बनकर सदा पिलायें।
एक दूसरे को नहलायें।।
संरचना में मोहकता हो।
मधु हृद की आवश्यकता हो।।
संस्थाओं में मधुर वास हो।
सुखद व्यवस्था का निवास हो।।
संबधों को मधुर शक्ल दो।
सबको शुभमय ज्ञान-अक्ल दो।।
बहें त्रिवेणी मधु संगम बन।
स्नान करें साधू शिव सज्जन।।
मधुर प्रेममय प्रिय मिठास हो।
शुभद वास नित मधु प्रवास हो।।
मधुर विचारों का स्पंदन हो।
मधुर सत्य का नित वंदन हो।।
मधुरिम मानव की हो धरती।
महादेव की हो यह जगती।।
मधुर काम का देवालय हो।
आत्मसंयमित सचिवालय हो।।
मधुर प्रेम का अश्रु बहे अब।
मधुर मिलन में प्रीति बहे अब।।
सहज परस्पर धाम बनेगा।
मधु रामेश्वर ग्राम मिलेगा।।
दोहा-
मधुर शब्द के भाव में, बैठ करो विश्राम।
मधु अर्थों को समझकर, जपो मधुरमय राम।।
24- ऊर्ध्वगमन (दोहे)
ऊर्ध्वगमन करते रहो, चढ़ो राम के पेड़।
सीधे ही ऊपर बढ़ो, तान मनोहर छेड़।।
धरती से अंबर चढ़ो, फिर धरती को देख।
हरियाली में झाँक कर, लिखते रहो सुलेख।।
यात्रा का आरंभ कर, चल अनंत की ओर।
है अनंत ही सत्य शिव, पकड़ सत्य की डोर।।
काया से प्रारंभ कर, चल आतम की ओर।
केंद्रित हो कर आत्म में, पहुँच बैठ कर जोर।।
ऊर्ध्वगमन का अर्थ है, अपना करो विकास।
विकसित मन अरु बुद्धि से, पहुँच नित्य के पास।।
चढ़ने-बढ़ने की कला, का करना अभ्यास।
नित अंतिम सोपान तक, करते रहो प्रयास।।
सैनिक बन लड़ते रहो, खोजो अपना मीत।
पहुँचो अंतिम छोर तक, लिखते मानव गीत।।
भोजन-आसन से निकल, पकड़ प्रेम की राह।
ऊपर उठ पूरी करो, अपनी अंतिम चाह।।
25- सावधान (उल्लाला छंद)
(मात्रा भार 13)
संयम से चलते रहो।
नाप-तौल कर सब कहो।।
अहंकार से बच निकल।
कभी न जिह्वा से फिसल।।
सदा प्रेम की बात कर।
चलो सदा बनकर सुघर।।
डरना गन्दे काम से।
करो कर्म आराम से।।
करो नियत्रण आप पर।
प्रायश्चित कर पाप पर।।
खाईं से बचकर चलो।
सुंदरता में नित पलो।।
कहने लायक ही बनो।
नैतिकता का दिल चुनो।।
सुंदर पावन भाव रख।
मानवता का स्वाद चख।।
26- ताकत (चौपाई)
समझो अंतस की ताकत को।
पहचानो मौजूद वक्त को।।
शक्ति माँग लो धरती माँ से।
जीना सीखो पृथ्वी माँ से।।
माँ देती बस देती जाती।
दे कर अन्न शक्ति भर जाती।।
माँ ही ताकत बनकर आती।
मन-काया मजबूत बनाती।।
ताकत ही जीवन की दौलत।
धरती के ही सदा बदौलत।।
धरती में ही शक्ति छिपी है।
सहज भक्ति -अनुरक्ति छिपी है..
ताकत से ही श्रम होता है।
बिन ताकत विभ्रम होता है।।
ताकत का उपयोग जरूरी।
यह करती सब इच्छा पूरी।।
27- आत्मचिंतन (चौपाई)
अपने बारे में ही चिंतन।
करता अपने भीतर नर्तन।।
खुद में बैठा करता मंथन।
खुद को देता खुद अभ्यर्थन।।
मन को नियमित केंद्र बनाकर।
मन को अपना विषय बनाकर।।
बौद्धिक बनकर सोचा करता।
दुःख के आँसू पोंछा करता।।
आत्मा पर हो ध्यानावस्थित।
आत्म क्षेत्र में खड़ा उपस्थित।।
सोचा करता ध्यान लगाकर।
होता चकित आत्म देखकर।।
बाह्य जगत से कट कर रहता।
स्वयं स्वयं की कहता सुनता।।
अंतर्मुखी बना यह चिंतक।
पढ़ता रहता स्वयं अंत तक।।
मानव बनने की जिज्ञासा।
गढ़ता अपनी खुद परिभाषा।।
चाह रहा बनना उद्धारक।
खुद का खुद से बना सुधारक।।
इस चिंतन में पावनता है।
सच्चे मन की शीतलता है।।
सुचिता से अभिमंत्रित अंतस।
इसे चाहिये सिर्फ ज्ञान-यश।।
28- कशिश (चौपाई)
कशिश रहे बस यह प्रयास हो।
मन प्रिय सुंदर अनायास हो।।
दिल से सबको आकर्षित कर।
दया भाव का बन उत्तम घर।।
खींचो सबको पास बुलाओ।
सबको अंतःपुर में लाओ।।
खेला खेलो प्रेम रसिक बन।
दे कर देखो अपना तन-मन।।
पैदा करना कशिश निरन्तर।
आत्मवाद का खेत सींच कर।।
आकर्षण को पैदा करना।
मनमोहक बन उर में रहना।।
खींचो सबको खिंचो हर तरफ।
एक बनाओ बनो हर तरफ।।
एक इकाई बने व्यवस्था।
सबसे सुंदर यही अवस्था।।
हो रुझान अति दिव्य मनोहर।
झुक कर रहना सीख चरण पर।।
कुचल पैर से अहंकार को।
सेवन करना निर्विकार को।।
कशिश बनो बन जाओ उत्तम।
आकर्षण से बन पुरुषोत्तम।।
अनुपम मूल्य कशिश का जानो।
इस अमूल्य निधि को पहचानो।।
29- रचना घर (चौपाई)
रचना घर की खैर मनाओ।
रचना में ही रच -बस जाओ।।
जो रचना में रत रहता है।
रचनाकार वही बनता है।।
रचना से ही नेह लगाओ।
रचना को ही गेह बनाओ।।
प्रेम करोगे यदि रचना से।
बन जाओगे प्रिय वचना से।।
रचना को उर में बैठाओ।
उर को रचना गेह बनाओ।।
बैठ गुफा में लिखना-पढ़ना।
रचना लिख कर गाते रहना।।
रचना को मत कभी छोड़ना।
अंकों में भर ले कर चलना।।
रचना को ही प्रति पल चूमो।
नित नव रचना ले कर घूमो।।
रचना का संसार खड़ा कर।
साहित्यिक अनुराग बड़ा कर।।
हिंदी में ही रचना करना।
प्रिय रचना से सब कुछ कहना।।
प्रिय रचना से नाता जोड़ो।
लौकिकता से नित मुँह मोड़ो।।
रचना को ही समझ प्रेमिका।
रचना राधा प्रिया नायिका।।
रचना को ही गीता जानो।
रचना के दिल को पहचानो।।
रचनाओं में सरस गीत हो।
सीता जैसी दिव्य प्रीति हो।।
30- मेरा प्यार… (सजल)
मेरा प्यार मुझे लौटा दो।
या फंदे पर अब लटका दो।।
ऐ जालिम!भर नीर नेत्र में।
मुझ पर करुणा रस बरसा दो।।
सूख गयी यदि हिय की दरिया।
थोड़ा उस में नीर गिरा दो।।
बने मीत तुम आये घर में।
कुछ तो मन को याद दिला दो।।
धोखे से क्यों किया घात है?
मित्र धर्म का भान करा दो।।
तोड़ रहे मेरे दिल को क्यों?
बुरा न बन एहसान जता दो।।
मेरी मनोदशा दयनीया।
मेरा प्यार मुझे लौटा दो।।
कुछ तो सोचो मानव बनकर।
मेरा दिल आबाद करा दो।।
मत तोड़ो मानव की प्रतिमा।
मेरा अब संसार बसा दो।।
31- लौकिक पदच्युत…
लौकिक पद च्युत होने पर भी,
अहंकार यदि नहीं गया।
इस का मतलब यह होता है,
मन-विकार बाहर न गया।
लौकिक पद में दर्प समाया,
पद में स्वर्णिम माया है,
पद मिलते ही मन पगलाता,
मन कंचन प्रति काया है।
अहंकार का दंश मारता,
पदवीधारी चलता है।
नहीं किसी को कुछ भी गिनता,
सदा मचलता रहता है।
किन्तु एक दिन ऐसा आता,
राह दिखायी जाती है।
गिरता वह चौफाल भूमि पर,
बात समझ में आती है।
फिर भी दंभ नहीं मरता है,
भूतकाल में जीता है।
रटता रहता भूत कहानी,
झूठे मद को पीता है।
32- माँ सरस्वती जी की वंदना
माँ का नित करना अभिनंदन।
पूजनीय का करना वंदन।।
सर्वेश्वरि को जपते रहना।
अपने सारे दुखड़े कहना।।
माँ चरणों से नेह लगाओ।
माँ को रचना गेह बनाओ।।
माँ चरणों में सोओ जागो।
माँ को छोड़ कहीं मत भागो।।
माँ ही सबका संरक्षक है।
बनी हुई माँ जग शिक्षक हैं।।
ज्ञान प्रदाता एक मात्र माँ।
गाते रहना माँ की महिमा।।
जो भी माँगो माँ से माँगो।
मातृ भक्ति में नियमित जागो।।
सीखो माँ श्री को अपनाना।
प्रिय माता से काम बनाना।।
जय जय जय जय जय श्री माता।
बन जा हे माँ करुणादाता।।
ज्ञान दान कर हे अविनाशी।
मातृ शारदे! रह उर-काशी।।
33- बिना बुलाये….(चौपाई)
बिना बुलाये कहीं न जाना।
कभी न अपना मान गँवाना।।
इज्जत ही सबसे प्यारा है।
जीवन का यह धन सारा है।
जो इज्जत का अर्थ समझता।
सावधान हो चलता रहता।।
कभी नहीं समझौता करता।
स्वभिमान पर सहज थिरकता।।
साहस अरु उत्साह भरा है।
अति उमंग का भाव हरा है।।
इज्जत उसकी जीवन नैय्या।
इज्जत ही है महज खेवैया।।
बिना बुलाये जो जाता है।
नहिं कदापि इज्जत पाता है।
कुत्तों जैसा जीवन जीता।
बेईज्जत बन हाला पीता।।
बेईज्जत से बचकर रहना।
उसको निकट कभी मत रखना।।
भले हिलाये पूँछ बेईज्जत।।
कभी न देना उसको इज्जत।।
34- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया
सबका नित समान कर, समझ सभी को पूज्य।
इज्जत देना धर्म है, यही आचरण स्तुत्य।।
यही आचरण स्तुत्य, समझ लो सबको अपना।
कर सबका उपकार,सभी के दिल में रहना।।
कह मिश्रा कविराय,बनो प्रिय मानव जग का।
जाओ खुद को भूल, स्वयं को मानो सबका।।
35- प्रीति करो…(चौपाई)
प्रीति करो एकाकृति हो कर।
एक समान मुखाकृति बन कर।।
रहो मिटाते नित अंतर को।
विकसित कर मानव सुंदर को।।
दुविधाओं को नष्ट करो अब।
भय माहौल विनष्ट करो अब।।
शंकाओं को दूर भगा दो।
समाधान का भाव जगा दो।।
रहें निशंक यहाँ सब प्राणी।
विकसित हो संस्कृति कल्याणी।।
लहरें उठें स्नेह भावों की।
झाँकी हो सुंदर गाँवों की।।
प्रीति सुधा का नित्य पान हो।
परम प्रीति में सिद्ध ध्यान हो।।
रहे प्रीति के प्रति आकर्षण।
मिट जाये जीवन संघर्षण।।
प्रीति लक्ष्य हो केवल अपना।
प्रीति बिना सब कुछ हो सपना।।
सिर्फ प्रीति का गान चाहिये ।
प्रीतियुक्त जलपान चाहिये।।
सदा प्रीति ही वंदनीय हो।
प्रीतिशून्य नर निंदनीय हो।।
प्रीति प्रधान मनुज अति पावन।
जहाँ प्रीति तँह सब मनभावन।।
36- मुझ को याद….(सजल)
मुझ को याद कभी मत करना।
पत्थर बन कर घर में रहना ।।
टूट गये संबन्ध आज सब।
मिझको दिल से जुदा समझना।।
हाथ में लेकर पत्थर अपने।
मेरे ऊपर फेंका करना।।
कोई कोर-कसर मत छोड़ो।
मुझ पर तीर चलाते रहना।।
दया कभी मत करना मुझ पर।
निर्दयता का पालन करना।।
अब मैं मीत नहीं हूँ तेरा।
मुझ को दुश्मन सदा समझना।।
किया भलाई जो भी मैंने।
उस पर पैर चलाते रहना।।
जो भी मैंने फ़र्ज़ निभाया।
उसको मन में कभी न रखना।।
कभी न आना पास भूल कर।
मेरी निन्दा करते रहना।।
37- सज कर….(चौपाई)
सज कर मेरे मन में आना।
बस मेरे दिल में बस जाना।।
मृदुल भाव अक्षय बन जाये।
वारिद बन अमृत बरसाये।।
रहे बरसता शुभ प्रिय सावन।
हर्षों का हो उर में आवन।।
दिल दरिया में प्रेम मिलन हो।
कुण्ठाओं का सदा गलन हो।।
रहे प्रवाहित प्रेम निरन्तर।
उमड़े मन में मधुर समंदर।।
उर महके सत्युग सा खिल कर।
अंतस में सुगंध अति रुचिकर।।
अति प्रिय मादक सरिता बनकर।
मधु शीतल शिव कविता बनकर।।
दिल में छा जाओ मुस्काते।
प्रेम-अश्रु का रस बरसाते।।
38- कुछ तो मुझ को…(चौपाई)
कुछ तो मुझ को करना होगा।
कदम-दो कदम चलना होगा।।
यदि मैं ऐसा नहीं करूँगा।
खुद नजरों से गिर जाऊँगा।।
यह है मेरी प्रिय नैतिकता।
नैतिकता से क्या समझौता??
नहीं मुझे पीछे हटना है।
कभी नहीं नीचे गिरना है।।
आये का समान जहाँ है।
सदा खड़े भगवान वहाँ है।।
अतिथि देव को ईश्वर जानो।
सदा प्राण से बढ़ कर मानो।।
दिल में अतिथि सदा बैठाओ।
सीने में उस को चिपकाओ।
बड़े प्रेम से दिल दे देना।
अतिथि देव का मन हर लेना।।
अतिथि देव में सोओ जागो।
अतिथि देव से प्रिय वर माँगो।।
अतिथि समर्थ सकल दुःखहारी।
करो अतिथि की सेवादारी ।।
39- संगम (चौपाई)
सकल विश्व का इक संगम हो।
एकत्रित सारे जंगम हों।।
एक गूँज हर हर गङ्गम हो।
आध्यात्मिक सारा अंगम हो।।
मानवता का मंच सजाओ।
हर हर महा देव को गाओ।।
कूद-कूद कर गंग नहाओ।
भाग्य रेख को अमर बनाओ।।
देखो घाटों को काशी के।
दर्शन कर शिव अविनाशी के।।
जाओ देखो संकट मोचन।
भूत उतारो पिशाच मोचन।।
भैरव काल काल भैरव हैं।
काशी जी के महान रंब हैं।।
इन्हें पुकारो माँगो मिन्नत।
पा जाओगे असली जन्नत।।
राजघाट का सेतु देखिये।
नीचे गंगा रेत देखिये।।
गंगा जी में स्नान करोगें।
भव सागर से तर जाओगे।।
गोदी में रह विश्वनाथ के।
वह इक स्वामी हैं अनाथ के।।
भोले भण्डारी कहलाते।
सब को अन्न-वस्त्र दिलवाते।।
यहीं अन्नपूर्णा का आलय।
सकल विश्व का प्रिय देवालय।।
नहीं कमी है कुछ काशी में।
सब कुछ अंतःपुरवासी में।।
काशी बाबा धाम चाहिये।
शिवशंकर का ग्राम चाहिये।।
जग-संगम पर स्नान चाहिये।
दिव्य सहज शिव ज्ञान चाहिये।।
40- तीर्थस्थल…..(चौपाई)
जीवन को तीर्थ स्थल मानो।
सुंदर कर्मों को पहचानो।।
गाँधी के बन्दर को देखो।
जीवन कला उन्हीं से सीखो।।
बुरा न देखो बुरा सुनो मत।
कभी भूल कर बुरा कहो मत।।
बुरी बात से दूरी रखना।
सत्य पंथ पर चलते रहना।।
परनिंदा से नित्य विरत रह।
सबके प्रति अच्छी बातें कह।।
परनिंदा से विघटन होता।
संबन्धों में घर्षण होता।।
परनिंदा कर दूषित मत बन।
मधुर भावमय हो नित चितवन।।
तीर्थ समझ कर जीवन ले चल।
सत्कर्मों का हो केवल बल।।
सुंदर करे यदि तन-मन।
तीर्थ स्थल बन जाये जीवन।
स्वतः स्फूर्त होगा मानव मन।
खिल जायेगा जीवन-उपवन।।
यदि सच्चा आनंद चाहिये।
देवालय की गंध चाहिये।।
देखो जीवन को तीरथ सा।।
करो काम सब निःस्वारथ का।।
समय मूल्य से परमारथ कर।
देकर दान अर्थ स्वारथ कर।।
दिल को जीतो अच्छा कर कर।
साथ निभाओ सह में चल कर।।
धर्म-कर्म सब पास तुम्हारे।
इन तत्वों के सदा सहारे।।
धर्म क्षेत्र में चलते जाओ।
जीवन को बहु -मूल्य बनाओ।।
41- राम -लेखन (दोहे)
राम राम लिखते रहो, जपो राम का नाम।
राम नाम के जाप में, छिपा राम का धाम।।
लिखते -लिखते राम को, होत लेखनी सिद्ध।
जीवन में आनंद ले, लेखक होत प्रसिद्ध।।
लेखन की यह चरम गति, लिखत लेखनी राम।
करती रहती राम को,दिल से सतत प्रणाम।।
लिखनेवाला राम को, पा जाता है राम।
लेखन से श्री राम के, मन पाता विश्राम।।
लेखन है श्री राम का, सब लेखन के बाद।
लिख-लिख-लिख श्री राम, होत जीव आजाद।।
राम आदि में अंत में,और मध्य में राम।
कण-कण में प्रभु राम का,स्थित पावन धाम।।
अति पावन इस नाम को, लेनेवाला धन्य।
बनता क्रमशः एक दिन, अति पावन चैतन्य।।
रोम-रोम में राम का, होता अमिट प्रवेश।
जिह्वा देती रात-दिन सतत राम-संदेश।।
लेखन से श्री राम के,मिलता ज्ञान प्रकाश।
अनुदिन बढ़ता प्रेम है,दिव्य भक्ति आकाश।।
42- सद्वृत्ति (चौपाई)
सुंदर सहज प्रवृत्ति चाहिये।
सद्चिन्तन-आवृत्ति चाहिये।।
नित्य सुमंगल भाव चाहियें।
हरित मनोरम गाँव चाहिये।।
पावन मन का देश चाहिये।
संस्कारित परिवेश चाहिये।।
अति प्रसन्नता उर में छाये।
त्याग-तपस्या घर में आये।।
शुचि कानन का नित दर्शन हो।
अतिशय निर्मल शुभ चिंतन हो।।
शुभद दिशाओं का स्पर्शन हो।
सदा मांगलिक हरिकीर्तन हो।।
धरती पर कल्याण कृत्य हो।
मानव मन का दिव्य नृत्य हो।
खुशियों का गंगासागर हो।
सुख-वैभव का प्रिय वादर हो।।
43- नहीं कहूँगा (चौपाई)
नहीं कहूँगा तुम भी कह मत।
अपना काम करो हो सहमत।।
कभी अड़ंगा नहीं लगाओ।
खुद से खुद को सतत सजाओ।।
सोच स्वयं से क्या करना है?
सिर्फ लक्ष्य देख चलना है।
अपने में ही बस जाना है।
नहीं किसी को कुछ कहना है।।
यदि हम अपना काम करेंगे।
प्रति पल चारों धाम करेंगे।।
नहीं किसी से लेंगे पंगा।
कभी नहीं नाचेंगे नंगा।।
जब हम खुद में खो जायेंगे।
अति मस्ताना हो जायेंगे।।
नहीं किसी से मतलब होगा।
साधू जैसा जीवन होगा।।
44- अच्छाई (चौपाई)
अच्छाई का मौज अलग है।
गन्दा मानव अलग-थलग है।।
अच्छे कर्मों में सच्चाई।
बुरे कर्म में सदा बुराई।।
गन्दा मानव सदा बेईज्जत।
पाता कब समाज में इज्जत?
दुत्कारा जाता है लतिहर।
अनायास बनता है सुंदर।।
अच्छाई का अर्थ यही है।
सच्चा मानव सदा सही है।।
स्थिर बनकर चलता रहता।
नहीं फालतू बातें करता।।
जो भी कहता उसको करता।
सच्चाई का साक्षी बनता।।
नहिं कपट से कोई नाता।
प्रिय महान मोहक कहलाता।।
जिसने सीखा अच्छा बनना।
सच्ची मीठी बातें कहना।।
दुनिया में वह वंदनीय है।
महा पुरुष सा अतुलनीय है।।
45- मोहब्बत की दुनिया (सजल)
मोहब्बत की दुनिया उजड़ने न देना।
सजाओ सँवारो विगड़ने न देना।।
मोहब्बत का आलय ये सारा जगत है।
घृणा की लकीरों को खिंचने न देना।।
दिलों का दिलों से है रिश्ता पुराना।
पत्थर में दिल को बदलने न देना।।
मन में छिपी गन्दगी साफ करना।
मन के विकारों को जमने न देना।।
रहे सत्य का बोध सारे मनुज को।
बुद्धि की द्वंद्वता को पनपने न देना।।
विवेकों की महफ़िल में हो प्रेम नर्तन।
कभी भी मोहब्बत को मरने न देना।।
मोहब्बत की मंजिल मोहब्बत को जानो।
मोहब्बत के अंतस को दुःखने न देना।।
हर श्वांस में हो मोहब्बत की खुशबू।
मोहब्बत की धड़कन को रुकने न देना।।
सजाओ मोहब्बत का मंदिर पुजारी!
मोहब्बत का जलवा विखरने न देना।।
46- तुझे देखकर….(सजल)
तुझे देखकर मन पिघलता रहेगा।
तुम्हारी अदा पर मचलता रहेगा।।
पैरों में तेरे खनक पायलों की ।
आवाज सुन दिल बहकता रहेगा।।
टेसू के फूलों सी होठों की लाली।
बहुत प्यार से मन बदलता रहेगा।।
चेहरे पर मुस्कान की प्रीति आभा।
मधुर भाव अंतस में चलता रहेगा।।
आँखों में तेजस्विनी रश्मियाँ हैं।
मनोभाव उद्दीप्त होता रहेगा।।
माथे की बिदिया में दैवी चमक है।
नमन मेरा मन नित्य करता रहेगा।।
केशों में गुंफित गुलाबों की माला।
सजन का मगन मन थिरकता रहेगा।।
धराधाम पर खूबसूरत सी प्रतिमा।
हृदय -मन सहज ही फिसलता रहेगा।।
47- दुश्मन की प्रगति…(चौपाई)
दुश्मन की भी प्रगति देखकर।
खुश होनेवाला अति सुंदर।।
उत्तम मानव प्रगति चाहता।
प्रगतिशीलता में ही जीता।।
प्रगतिशील सोच अति अनुपम।
छिपा सोच में मानव उत्तम।।
जिस का उत्तम भाव शुद्ध है।
वही विश्व का सहज बुद्ध है।।
परम हितैषी जो दुश्मन का।
महा मना वह निर्मल मन का ।।
उसके आगे झुकना ही है ।
दिल परिवर्तित करना ही है।।
सारे जग की सतत प्रगति हो।
तन-मन-धन की नित उन्नति हो।।
दुःख का शमन सदा करना है ।
मानव बनकर मन गढ़ना है।।
मत दुश्मन को दुश्मन कहना।
दुश्मन को भी सहज समझना।।
कोई नहीं यहाँ है दुश्मन।
निष्कासित कर दो दुश्मन मन।।
सब की उन्नति अपनी उन्नति।
उन्नति में जीवन की उन्नति।।
उन्नति को जो गले लगाता ।
वह उन्नत मानव बन जाता।।
सब के प्रति सम भाव विखेरो।
स्वर्णाक्षर को नित्य उकेरो।।
मानवता का नित बीजन हो।
प्रिय समाज का नित्य सृजन हो।।
48- यह कैसा दूषित आंदोलन
(चौपाई)
यह कैसा दूषित आंदोलन।
गन्दा-घटिया अप्रिय विचलन।।
आज कर रहा है मनमानी।
खुलेआम करता शैतानी।।
निंदनीय नेतृत्व कर रहा।
अशोभनीय वक्तव्य दे रहा।।
ले कर नाम किसानों का वह।
उगल रहा है आग आज वह।।
लाल किला पर किया आक्रमण।
जन-गण-मन का किया अपहरण।।
नये वर्ष के छब्बीसवें दिन।
घोर अहिंसक कृत्य सकल दिन।।
पुलिस वर्ग को लकरवाया।
बदमाशों को खूब चढ़ाया।।
अपनी रोटी सेंक रहा है।
नेतागीरी झोंक रहा है।।
यह सत्ता का भूखा-प्यासा।
बना किसानों का प्रिय खासा।।
बहुत घिनौना चाल चल रहा।
नेता बना बवाल कर रहा।।
सत्ता को ललकार रहा है।
सर्प बना फुफकार रहा है।।
आज बना है यह बड़बोला।
बहका-बहका गन्दा चोला।।
बातें करता सदा अनर्गल।
खुद को कहता सबसे अव्वल।।
दानव बनकर घूम रहा है।
कृषकों का मुँह चूम रहा है।।
अपना चेहरा लिये भयानक।
खड़ा आज भूचाल अचानक।।
अत्यावश्यक इसे कुचलना।
आंदोलन पर पैर रगड़ना।।
49- धर्मपत्नी चालीसा
दोहा-
बनी धर्मपत्नी सहज, भाव प्रधान महान।
नाम इंद्रवासा प्रिये,देवी रूप सुजान।।
जीवन के आनंद में, तुम्हीं परम प्रिय मूल।
तेरे कारण जिंदगी, में सब कुछ अनुकूल।।
तुझ से ही घर भरा-भरा है।
अति मधुरामृत हरा-भरा है।।
तेरा राज चला करता है।
सुंदर भाव जगा करता है।।
तुम्हीं एक में सर्व दीखती।
मधु जीवन का पर्व दीखती।।
तुम सर्वेश्वरि प्रिय अनुपम हो।
महा शक्तिमय शुभ उत्तम हो।।
तेरे कारण मेरा जीवन।
बना हुआ है मोहक उपवन।।
तुम्हीं एक मेरा मधुवन हो।
शीतल मंद सुगंध पवन हो।।
तुम मेरे जीवन की शोभा।
दिव्य चमकती मोहक आभा।।
तुम्ही परम मनभावन अपना।
लगता मोहक तुझ को जपना।।
बनी धर्मपत्नी मनमोहन।
परम मनोरम भावुक जेहन।।
अतिशय भावुक सदा दयालू।
दींन-दुःखी के लिये कृपालू।।
परम सौम्य शालीन शुद्ध हिय।
शान्ताकारं पवित्र सर्व प्रिय।।
भोलीभाली सभ्य सुरीली।
सबके दुःख में आँखें गीली।।
प्रिय सहयोगिनि दानशील मन।
देवी त्यागी सहनशील जन।।
अच्छा जीवन अति साधारण।
सर्वोत्तम विचार आवरण।।
सन्तोषी समझौतावादी।
सदा संयमित नित आजादी।।
मधुर वचन की बहु अनुरागी।
लक्ष्मीरूपा ज्ञान सुभागी।।
महा शारदा ज्ञानामृत हो।
बनी धर्मपत्नी सत्कृत हो।।
तुम मेरी पावन कविता हो।
निर्मल नीर सहित सरिता हो।।
तुम्हीं लेखनी मैं रचना हूँ।
मैं ही तेरी शुभ वचना हूँ।।
मेरी तुम्हीं भाग्य रेखा हो।
मेरी शुभदा शिव लेखा हो।।
दोहा-
भाग्य विधाता प्रिय सहज, मधुर-मधुर मुस्कान।
देती रहती रात-दिन, सुखमय जीवन ज्ञान।।
50- क्षन्तव्य (दोहे)
क्षमा करो उस व्यक्ति को, जो निरीह इंसान।
गलत इरादा है नहीं,किन्तु चूक का भान।।
क्षम्य वही इस जगत में, जिसके शुद्ध विचार।
असमंजस में ले डुबा, उसको गलत विचार।।
शांत चित्त पावन हृदय, से हो जाये भूल।
क्षमा करो उस मनुज को,कर निर्णय अनुकूल।।
गलती का अहसास यदि, हो जाये तो छोड़।
दण्डव्यवस्था से विरत, हो अपना मुँह मोड़।।
क्षमादान देना उसे, जिसका पावन भाव।
अनजाने में आ गया, अपराधों के गाँव।।
दण्डित मत करना उसे, जो अत्युत्तम नेक।
कभी न रोटी दण्ड की, किसी तरह से सेंक।।