डेस्डिमोना मरती क्यूँ नहीं ??
डेस्डिमोना मरती क्यूँ नहीं
पढ़ रहा था एक कहानी
और कहानी में छिपा
जैसे इक चिरंतन सत्य
एक वर्तमान अपने होते समय में
एक अतीत को उजागर करता
या कि अतीत ही हो जाता हुआ
या कि वर्त्तमान कहीं
अतीत ही तो न था
कि अतीत ही कहीं
वर्त्तमान बनकर सामने तो न खड़ा था
एक पीड़ा जो जैसे किसी
अनन्त की खोह से झाँकती सी
एक दर्द कहीं से रिसता हुआ
पुकारता हुआ,तड़पता हुआ
डेस्डिमोना सचमुच ही कभी
मरने को होती ही नहीं
क्या सचमुच हर स्त्री कोई
डेस्डिमोना ही तो नहीं
थोड़े से विन्यास की बदलाहट के संग
सब कुछ जैसे वही का वही हो
जैसे अतीत,जैसे वर्तमान
दिल में घुटती हुई बातें
चीखती तो हैं जैसे हर वक्त
पर कह नहीं पाती कुछ भी
एक समर्पिता की चाहना और
एक शक्की का लुंठितपना
सबके भीतर एक गहरी सी कंदरा
और उन कन्दराओं में एक
अट्टहास करता व्यभिचारी इतिहास
किससे मूँह मोडूं
किसकी तरफ मुंह करूँ
समझ से बाहर है हम जैसों के
हम तो जैसे शब्द-शब्द पढ़ते हुए
शब्द-शब्द जीते हैं
शब्दों की दीवानगी को
महसूस करते हुए
रोते हैं-हँसते हैं
तड़पते हैं-मरते हैं
चीत्कार करते हुए
खामोश से शब्द
हमारी नसों में समा जाते हैं
और ऐसा लगता है तब
अपने आख़िरी क्षणों में हों हम
कभी कभी किसी एक क्षण में
हम अपना अतीत-वर्त्तमान और
भविष्य एक साथ ही होते हैं
संकट जो कभी टला ही नहीं
हर काल में आसन्न सा रहा
उसे देखते हुए भी
न टाल पाए हम
संकट वहीं का वहीं है अब भी
और हम खड़े हैं
इसके एन भीतर
एक दर्द पीते हुए
एक मौत जीते हुए….
राजीव थेपड़ा