” डाक युग “…..हमारा भी एक समय था
” डाक युग ” वाकई डाक युग एक युग था और हम सबने वो युग बहुत प्यार , अपनेपन और बेसब्री से से उसको जीया है । वो एहसास जो पत्र लिख कर लाल रंग के डब्बे ( पत्र पेटी / लेटर बॉक्स ) में उसको डालते वक्त होता था गज़ब का होता था । सबके घरों में गेट या दिवार के अंदर की तरफ एक लेटर बॉक्स ज़रूर होता था शाम के वक्त उसको खोल कर सारी आई डाक इकठ्ठा कर एक एक कर सबके नाम देखना ये रोज़ का बेहद रोमांचक कार्य होता था । और अगर किसी को किसी खा़स ( प्रियतम , पति – पत्नी , माता – पिता , नौकरी संबंधी , लड़की के पसंद की स्वीकृति आदि ) डाक का इंतज़ार हो उस वक्त उस व्यक्ति का व्यवहार देखने लायक होता था जब तक डाक न आ जाये उसका बेचैनी से टहलना बार – बार लेटर बॉक्स में झांक कर आना तब तक जारी रहता था । कुछ खास डाक तो अपने दोस्तों के पते पर भी मंगवाई जाती थी , उन खास पत्रों को सहेज कर रखना उनको मौका मिलते ही बार – बार पढ़ना किसी के आने पर झट उसको छुपाना वाह ! क्या मदहोशी वाले पल होते थे । पत्र लिखने के लिए ” हैंडराइटिंग ” सुधारी जाती अच्छे शब्दों को दिमाग में बैठाया जाता था इन दोनों के सही – सही होने के चक्कर में ना जाने कितने पन्नों की कुर्बानी दी जाती थी ।
उस ” डाक युग ” में जीने का सबसे बड़ा सहारा होते थे पत्र – चिठ्ठीयाँ ऐसा लगता था हम पत्र पढ़ नही रहे बल्कि वो व्यक्ति उस पत्र में से बोल रहा है उसका चेहरा भी हम उस पत्र में देख लेते थे । एक ऐसी उड़ान होती थी जिसको हम पत्रों के माध्यम से बिना पंखों के पूरी कर लेते थे । तरह – तरह के लिफाफे , लेटर पैड , अंतरदेशी , पोस्ट कार्ड और तार अरे ! तार से याद आया ये एक ऐसा शब्द था जिसको सुनते ही सबसे पहले तो बुरे समाचार की ही सोच दिमाग में आती ऐसा लगता जैसे ” तार ” ना होकर कोई बम हो ।
” डाक युग ” का खतम होना एक परंपरा का खतम होना है ये वो परंपरा थी जो प्रागैतिहासिक काल से निरंतर चली आ रही थी और अपने अलग – अलग माध्यमों से विकसित और परिष्कृत होती रही , कक्षा में भी पत्र लेखन सिखाया जाता था और है बस अंतर इतना है की उस वक्त हम इस लेखन से वाकिफ थे और ये हमारे जीवन का अभिन्न अंग था लेकिन आज के बच्चों के लिए ये बस एक अध्याय है । आज भी संभाले हुये पत्रों का जो एक विशेष स्थान है वो कोई भी आधुनिक उपकरण नही ले सकता जो एहसास बिना चेहरा देखे मन की आँखों से देख लेते थे वो एहसास आज कोई महसूस ही नही कर सकता इन्हीं सारी वजहों की वजह से मुझे वो ” डाक युग ” पसंद था । अब बस एक याद रह गई है एक आवाज साइकिल की घंटी की और डाकिये की…डाकिया डाक लाया…. डाकिया डाक…..।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 10/10/2020 )