डर पर विजय
कोरोना काल में मां के आकस्मिक निधन ने जैसे मुझे झकझोर के रख दिया था। यह समय चुनौतीपूर्ण था और उसपर यह घटना दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन मृत्यु पर तो किसी का नियन्त्रण नहीं। जो यह संसार छोड़कर एक बार चला जाये तो कोई लाख कोशिश कर ले पर उसे वापिस नहीं बुला सकता। यह कठोर सत्य तो आखिरकार स्वीकार करना ही पड़ता है।
पिताजी का देहान्त भी अभी दो बरस पहले ही हुआ था। पूरा यकीन था कि मां का साथ अभी कई वर्षों तक मिल जायेगा लेकिन भगवान की मर्जी के आगे तो घुटने टेकने ही पड़ते हैं।
मां की मृत्यु का कारण कोरोना नहीं था लेकिन कोरोना के बढ़ते कहर के कारण उन्हें अंतिम विदाई देने शहर के लोग भी अधिक तादाद में नहीं जुट सके। रिश्तेदार नातेदार भी एकाएक नहीं आ सके। किसी गरीब की तरह उनकी विदाई हो गई।
मां बाप के चले जाने के बाद मैं नितांत अकेली रह गई। एक बहिन विदेश में है और एक भाई है लेकिन अपने परिवार के साथ अलग रहता है। हमारा फैमिली बिजनेस है तो मैं फैक्ट्री और आफिस की बिल्डिंग में जो रेजिडेंट है उसमें रहती हूं।
फैक्ट्री के कर्मचारियों और आफिस स्टाफ का बहुत सहारा है मुझे। उन्हें मैं अपना परिवार मानती हूं। घर के लोग ख्याल रखें या न रखें पर वह मेरा हर कदम पर सहयोग करते हैं।
मां की मृत्यु का समाचार मिलते ही मेरी एक दोस्त नीलम घर के सारे काम छोड़कर जैसे खड़ी थी वैसे ही मेरे पास भागी चली आई। मेरी स्थिति समझकर बिना मेरे कुछ कहे वह मेरे पास रुक गई। वह न पहनने के लिए अपने कपड़े लाई थी न खाने को अपनी जरूरी दवाइयां। घर में वह भी अपनी बूढ़ी मां और बीमार भाई को छोड़कर मुझे हौसला देने के लिए एक रक्षक की भांति मेरे सिर पर डटी रही।
मेरी एक और मित्र नीरा जिसकी ससुराल दिल्ली है पर मायका यहीं मेरे शहर में भी इत्तफाक से यहीं थी। उसका सहयोग भी एक दोस्त से बढ़कर एक परिवार के सदस्य सा था। उसने लगातार ऐसे कठिन समय में मेरा साथ दिया। खाना पीना पहुंचाती रही। आकर मेरे पास बैठी। ढांढस बंधाया। मुझे कभी भी, कैसी भी जरूरत हो मैं बेहिचक कह दूं, यह कहा।
मेरी दोस्तों के सहयोग से ही मैं धीरे धीरे खुद को मानसिक रूप से उठाने में अन्ततः सफल रही।
नीलम ने शुरू के मेरे कठिन कई दिन मेरे साथ लगातार रहकर कटवाये लेकिन एक दिन तो उसे वापिस अपने घर जाना ही था लेकिन उसने उसके लिए भी जल्दी नहीं करी। मुझे सोचने का मौका दिया। मैंने खुद को इस दौरान अच्छे से समझा लिया। मैंने सोचा कि अपना सहारा खुद बनो। आज अगर मैं दूसरों पर निर्भर हो जाऊं तो हमेशा किसी न किसी के सहारे की तलाश में रहूंगी और सारी उम्र भटकती रहूंगी। आज मैंने अगर अपने डर पर विजय पा ली तो हमेशा विजयी रहूंगी।
मैंने साई बाबा की एक कहानी का भी स्मरण किया जिसमें एक बच्चा जो गणित विषय से बहुत घबराता है और किसी भी तरह की परीक्षा से, उसे साई रात के घुप अंधेरे में एक बूढ़ी औरत जो गांव के मंदिर में कहीं से भटककर आकर रह रही होती है, के पास जाकर खाना देकर आने को कहते हैं। वह बालक भयभीत होकर कहता है कि रात के अंधेरे से डर लगता है, कुत्ते भौंकते हैं, कटखने हैं, काट लेंगे, आदि लेकिन साई कहते हैं कि मैं तुम्हारे पीछे चलता हूं लेकिन एक शर्त है कि तुम्हें पीछे मुड़कर नहीं देखना। अगर देखा तो मैं नहीं दिखूंगा। वह बालक साई के कहे अनुसार मन्दिर तक जाकर, उस बूढ़ी औरत को खाना देकर, कुत्तों का भी सामना करके सकुशल वापिस लौट आता है। साई के निवास स्थान में कदम रखते ही पाता है कि साई तो वहीं हैं। उसको यह अच्छा नहीं लगता लेकिन साई उसको समझाते हैं कि देखो बस इतना भर सोचने से कि मैं तुम्हारे साथ हूं तुम्हें डर नहीं लगा और अगर तुम यह सोच बना लो कि मैं अकेला हूं तो तुम भयभीत हो जाओगे।
फिर मैंने यह सोचा कि दुनिया भर में न जाने कितने लोग हैं जो अकेले रहते ही हैं। बड़े शहरों में कामकाजी महिलायें भी अकेली रहती ही है। बच्चे मां बाप से दूर रहते हैं तब भी वह बुढ़ापे में अकेले हैं।
फिर मैंने सोचा कि यह मेरा घर है। मेरे मां बाप की मृत्यु हुई है और फिर देखा जाये तो वह मेरे अपने ही तो थे। मेरे दिल के सबसे करीब। मेरे शुभचिन्तक। आज वह मेरे साथ नहीं तो क्या उनके आशीर्वाद का साया तो सदैव मेरे साथ रहेगा तो फिर अकेलेपन से भय कैसा।
मीनल