ज़ख्म मिले तितलियों से
ज़ख्म इतने मिल चुके हैं तितलियों से
डर नहीं लगता हमें अब आंधियों से
शुक्रिया, जो आपने छीना सहारा
बच गए हैं आज हम बैसाखियों से
हम मुहब्बत की इबारत लिख रहे हैं
तुम भी निकलो अपने दिल की खाइयों से
चार बर्तन इस कदर बजने लगे हैं
डर बहुत लगने लगा शहनाइयों से
बोलते क्या बाप बनने की खुशी में
लुट गए हम डॉक्टर से – दाइयों से
जिंदगी पर याद भारी पड़ रही है
जान तो जाकर रहेगी हिचकियों से
फिर ग़ज़ल में लुत्फ आकर ही रहेगा
कुछ कहो तो फिक्र की गहराइयों से