डर डर के उड़ रहे पंछी
डर डर के उड़ रहे पंछी, उन्हें नीड़ तक आना है।
ये कैसे जाल बिछ रहे, कैसे पंख बचाना है ।।
आशियां उनका वहाँ, सुदूर दरख्त तक जाना है।
उड़ कर जाना वहाँ, जीवन दावँ पर आना है।।
कैसा ये जंजाल बुना, उन्हें चीर आसमाँ जाना है।।
डर डर के उड़ रहे पंछी,उन्हें नीड़ तक आना है।
वो भी ये उत्सव मनाते, संग तुम्हारे साथ ही।
संग खुशियां वो बटाते, ना होता मांज़ा हाथ ही।
त्योहारों में प्यार भरे , यह सोच तुम्हें बनाना है।
डर डर के उड़ रहे पंछी,उन्हें नीड़ तक आना है।
घायल गर हुए वो तो, घायल दिल का नाता है।
भातृ हमारे प्रकृति संगी, जब धरती भी माता है।
सुबह शाम उनको उड़ना, चूजे पोषण करना है।
डर डर के उड़ रहे पंछी, उन्हें नीड़ तक आना है—
बिसरे डंडे गिल्ली भोर, सिर्फ काट कते का शोर।
इतनी भी क्यों है होड़, ना जोड़ो यह शीशा डोर।।
ख्याल मूक का रख, उत्सव में खुशियां लाना है।
डर डर के उड़ रहे पंछी, उन्हें नीड़ तक आना है —
पशु पक्षी बचाये, उत्सव में खुशियां बढ़ाये।
शुभ मकर सक्रांति।
(लेखक- डॉ शिव ‘लहरी’)