ठोकर तमाम खा के….
ठोकर तमाम खा के सँभलते रहे हैं हम।
हसरत लिये मुकाम की चलते रहे हैं हम।।
आगे न ग़र्दिशों के झुका अपना सर कभी,
आँखें मिला के उनसे निकलते रहे हैं हम।।
उनको रहा गुमान मसीहाई का मगर,
मक़तूल हो के रोज़ उछलते रहे हैं हम।।
अहसास दर्द का न कभी इसलिए हुआ,
काँटों के रास्तों पे टहलते रहे हैं हम।।
अब और क्या सबूत दें आँखों की प्यास का,
पाने को दीद उनकी मचलते रहे हैं हम।।
दो-चार हाथ ग़म से भी करना पड़े तो क्या,
हालात ज़िन्दगी के बदलते रहे हैं हम।।
आबाद रौशनी से रहे “अश्क” उनका दिल,
बस इसलिए चराग़ सा जलते रहे हैं हम।।
©अशोक कुमार “अश्क चिरैयाकोटी”