ठोकरें आज भी मुझे खुद ढूंढ लेती हैं
ठोकरें आज भी मुझे खुद ढूंढ लेती हैं,
दौड़ने से पहले हीं, चलने की हिम्मत तोड़ देती है।
जो साँसें एक पल का सुकून, सरायों में लेती है,
तबाही आँधियों को, उस पते पर भेज देती है।
जो काया पतझड़ से भी, छाँव उधार में लेती है,
तपिश सूरज की, उन शाखों को भी झुलसा देती है।
जो अश्क खुद को गिरती बारिशों में छुपा लती है,
हालातों की धूप, उन बूंदों को भी सुखा देती है।
जो ख़्वाहिशें, बंद दरवाजे कर खुद को सुला लेती हैं,
साजिशें ख़्वाबों की, उनकी नींदें भी उड़ा देती हैं।
साहिल नामों को रेत पर लिख तो लेती हैं,
लहरें तो मिटती हैं, संग उनको भी मिटा देती हैं।
निगाहें जिस सितारे से चाहतों की बात कर लेती है,
उम्मीदें उस सितारे को, क्षितिज को सौंप देती हैं।
जो वक़्त की धाराओं में कदम खुद को रोक लेती हैं,
मोहब्बत नदियों की मुझे, सागर की गहराइयों में छोड़ देती हैं।
यूँ तो पत्थरों के शहर में, ज़हन खुद को पत्थर बना लेती है,
पर चोटें आज भी, हृदय की ईंटें गिरा देती हैं।