ठिठुरन
ये सिहरन
ठिठुरन यह
सिकुड़ते लोग
अहं की दहलीज
प्रेम प्यार से दूरी
इंसानियत के लिए
फंदे तो नहीं कहीं
मंथन नहीं
न ही मनन
कौन कहे मनुष्य,
शर्मसार मनुष्यता,
कहीं बलात्
कही छल कपट
बढ़ रहे सरपट,
रुकना था, रुके नहीं,
बढ़ना था, बढ़े नहीं,
छोड़े नहीं, पाखंड,
सहेज न पाये थे,
प्यासे थे,
भर लिया,
ऊपर तक पेट,
भर कर घट,
सब चट पट,
निष्ठा खुद में नहीं,
देते गौतम आकार,
प्रकृति को जाने बिन,
हिस्से मिले विकृति,
कैसे हो भले स्वीकृति,
मूढ़ मति बने आकृति,