ठहर गई कलम
ठहर गई वो क़लम ,
खूब कह कर ।
ख़ामोश हुआ शीशा ,
ज्यों टूटकर कर ।
लफ्ज़ आते नही पास,
जुस्तजू बन कर ।
कहता है वक़्त गुजरा ,
याद मुझे क्यु कर ।
चल आज के साथ ,
क्या करेगा मुझे जी कर ।
तेरी तमन्ना थी मैं गुजर जाऊँ,
न आऊँगा मैं कभी मुड़कर ।
….विवेक दुबे”निश्चल”@..
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