ठहरा हुआ हूँ
ठहरा हुआ हूँ मैं,
वृक्षों के जैसे
पर चल रहा हूँ मैं,
समीर के जैसे
मै एक तरंग हूँ,
लहरों का जैसे
तू एक किरण है,
चन्दा की जैसे।
तू एक उमंग है,
हृदय की जैसे
डोर है जीवन की,
पतंग की जैसे
सरगम हो मधुर,
साज की जैसे
तान हो सुहाना,
वीणा की जैसे।
तू है दरिया, मैं
पिपासु पथिक सा
तू पीपल की वाटिका,
मै विश्राम को लालायित पंथी
मदमस्त फिजा सी,
मनोरम घटा सी
आह्लादित करती,
हृदय को जैसे।
जीवन मे छाई,
काली रात घनेरी
फैला दी है ज्योति,
चन्द्रकला सी
भटका मैं राही,
मंजिल तू मेरी
गन्तव्य तक छोड़ा,
मार्गदर्शक के जैसे।
-सुनील कुमार