ठंड (जाडो़ :- बुंदेली रचना )
जा जड़कारे बहुतई पर रई ठंड,
उढ़ना पैरे खूबई फिर भी कांपे अंग ।
सपरबे की कोऊ कैहै तो हो जैहे जंग,
अगयाने को छोडो़ जात न संग ।।
पानी देखत उठे फुरेरू,
कैसै सपरै भइया ।
ज्यों ज्यों पानी गिरै पिठी पे,
मुख से निकरै हे मइया ।।
जाडो़ पर रहो बहुतई भारी,
कैसे करैं खेतन की रखवारी ।
कोहरा घना छाव चहुं ओर,
कैसो निकरों खोल किबारी ।
जाडे़ में जब पानी बरसे,
घाम के लाने सब तरसे ।
अगुरियां ठिठुर कै भई छुवारे,
किट किट करके दांत बजै रे ।।
जाडे़ की कोऊ दवा बता दे,
ठंडी़ में भी गरम हवा चला दे ।
उढनन को बोझ तनिक कम करा दे,
मौसम को मिजाज बदल दे।।
कुदरत से न करो खिलवाड़ ,
बरना खा जैहो पछाड़ ।
पेड़ पौधन की बंद करो कटाई,
खेतन खेतन करो पेड़ रुपाई ।।
न जादा जाडो़ न ही गरमी पड़ है ।।
और बारिस भी टैम पे हो है।।
खुशहाल बनेंगो हमारो जीवन,
रोग दोग से हो जैहै मुक्त ।।
डां. अखिलेश बघेल
दतिया (म.प्र.)