#कटी-पतंग
कटी-पतंग थी।
उडते-उडते गिरीं जमीन पे।
शायद हवाएँ दबंग थींं।।
कमजोर माँझा था या झोंकाएँ तेज थी।
जहाँ पे अटक गई मैं वो पथरीली रेत थी।
तेज धुप था और गहरी तपन थी।
कटी-पतंग थी।
उडते-उडते गिरीं जमीन पे।
शायद हवाएँ दबंग थींं।।
भरनी थी ऊँची उडानें।
बुलन्दीयों को छूना था।
आसमान को लपकने की थी ख्वाहिश,
पुरे फलक में उडना था।
हवाओं में उडते-उडते,
ख्वाहिशों को जीना था।
मरने का डर नहीं था।
सर पे बाँध के निकली कफन थी।
कटी-पतंग थी।
उडते-उडते गिरीं जमीन पे।
शायद हवाएँ दबंग थींं।।
बेसुध निढाल पडी थी।
लहुलुहान हर जगह से मेरी खाल पडी थी।
थक कर चूर थी,
रौनकें बेनूर थी।
दर्द से छटपटा रही थी,
कराह रही थी।
फिर भी गहराई से सफर का आकलन कर थी।
सपने के टूटने की टीस थी,
या मंजिल तक न पहुंच पाने की खीझ थी।
आत्मविश्वास डिगा नहीं था।
ये वर्षोंं के तालिम की जतन थी।
कटी-पतंग थी।
उडते-उडते गिरीं जमीन पे।
शायद हवाएँ दबंग थींं।।
ताजा था जख्म,गहरे थे घाव।
असहनीय पीडा और द्रवित थे भाव।
असहाय और लाचार,
समाज में मेरा था कुप्रचार।
गिरते-पडते,धीरे-धीरे
सम्भल रही हूँ।
दर्द के गांठ को पिघाल रही हूँ।
अब फिर से जलती लौ में
खुद को जलाना है।
तन को आग बनाना है।
फिर से ख्वाबों को जगाना है।
ख्वाबों के वृक्ष मे पहले से ही,
मैं लिपटी भुजंग थी।
कटी-पतंग थी।
उडते-उडते गिरीं जमीन पे।
शायद हवाएँ दबंग थींं।।
जागी ललक है,छूनी फलक है।
मन मे है ठानी,अभी है जवानी।
सफल कोशिश फिर से है करना,
सपनों में है जीना-मरना।
आग हूँ,आग थी।
उडता धुआँ तन से,
क्युँकि मै अब भी अग्नि प्रचण्ड थी।
कटी-पतंग थी।
उडते-उडते गिरीं जमीन पे।
शायद हवाएँ दबंग थींं।।
द्वारा कवि:-Nagendra Nath Mahto.
17/June/2021
मौलिक व स्वरचित रचना।
Bollywood में बतौर गायक,संगीतकार व गीतकार के रूप में कार्यरत।
Youtube:-n n mahto official
All copyright:- Nagendra Nath Mahto.