टूटकर भी सच कंभी कहता नहीं
जी हाँ आज अपनी सबको ऐसी पहचान दूँगा
कैद में रख जुगनुओं को अंधेरो की जान लूंगा
जो भूल गए है प्यार करना जालिम दुनियां में
उन सबको प्यार के क़ाबिल बना सम्मान दूँगा
हाँ जानता हूँ मै जमाने ने हाशिये पे रखा मुझे
आज महफ़िल में इस जमाने को उन्वान दूँगा
एक धोखा खाया की ख़ुद को समझ ना सका
अब आइने को आईना दिखाकर इम्तहान लूंगा
टूटकर भी कमबख्त सच कभी कहता नहीं क्यों
आईने का अंदाज़ हूँ शीशे में उतरकर गुमान लूंगा
शहरों में नम्बर से पहचाने जाते है नन्हे घर हमारे
मेरा तो किरदार कद्दावर हुआ पूरा आसमान लूंगा
रखोगे अपने किरदार के सब रंग छुपाकर पर्दे में
अशोक नाम है याद रखना खंजर पर जुबान लूंगा
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से