टूटकर बिखर गया आईना
टूटकर बिखर गया आईना उसको बड़ा गुमाँ था
झील के दर्पण से हुआ जो उसका अपमान था
जलते घरों को देखकर खुश होता था जो कभी
उन जलती लपट्टों में आज उसका भी मकान था
अहसास हुआ था आज उसकी गलतियों का उसे
जिस परिंदे के पर काटें उसने वो बेचारा नादान था
एक एक कटा पेड़ चीखता चिल्लाता रहा सुना नहीं
क्यों कुर्सी की खातिर हुआ सियासती फरमान था
आज अपने अंजाम से उसको भी डर लगा था यारों
जिसके कातिल हांथो में मेरे लिए तो तीर कमान था
नोचकर खा गए गिद्ध ,मेरी मानवता की धरती को
इंसान मर गया पर जिन्दा हिंदू और मुसलमान था
दुःख अभी अशोक का जमीर जला डाला उन्होंने
मन्दिर में आरती तो मस्जिद में जिनका आजान था
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से