टुलिया……….. (कहानी)
कहानी…….
“टुलिया”
लेखक- लालबहादुर चौरसिया ‘लाल’
गोपालगंज,आजमगढ़, यूपी
बरसों बाद अपनी स्टेशनरी की दुकान के काउंटर पर मुझे पुनः बैठते मात्र दो ही दिन हुए थे। सुबह का समय था। गुलाबी फ्राक पहने हाथ में दो रूपए का सिक्का लिए, लगभग चार वर्षीय बच्ची मेरे स्टेशनरी की दुकान के काउंटर पर आई तो मैं उसे देखते ही देखता रह गया। बिल्कुल वही चेहरा, वही रूप रंग, वही नाक नक्श,उम्र भी लगभग वही, जिसे मैंने बाइस वर्ष पहले देखा था। जो मेरी दुकान पर आया करती थी। जिसका नाम था ‘टुल्ली’ जिसे मैं प्यार से ‘टुलिया’ कह के बुलाता था। मैं भौचक्का रह गया। मन अतीत में चला गया। हृदय पटल पर बाइस वर्ष पहले के चित्र चलचित्र की तरह चलने लगे। मेरा मन स्वयं से प्रश्न पूछने लगा? क्या यह ‘टुलिया’ है? स्वयं ने मन को समझाया। नहीं यह ‘टुलिया’ नहीं हो सकती। ‘टुलिया’ को तो मैंने लगभग बाइस वर्ष पहले देखा था।
बच्ची दो का सिक्का मेरे दुकान के काउंटर पर रखते हुए अपनी तोतली आवाज में बोली “अंतल अंतल मुझे मित्तन दे दो।”
मैं दो का सिक्का हाथ में लेते हुए पूछा “बेटा तुम्हारा क्या नाम है?
वह बोली “मुत्कान।”
मैं मुस्कुरा कर बोल उठा “मुत्कान की मुस्कान।
यह सुनकर वह मुस्कुराने लगी।
मैंने फिर पूछा “तुम्हारे पापा का क्या नाम है?
यह सुनते ही उसके चेहरे की मुस्कान गायब हो गई। वह बिना सामान लिए ही जाने लगी। शायद मेरा पूछना उसे अच्छा नहीं लगा। मैं बुलाता ही रहा। “मुस्कान मुस्कान आओ अपना मिट्टन ले लो।” लेकिन वह मेरी बातों को अनसुना करती हुई, अपने नन्हे कदमों की रफ्तार तेज करती, आंखों से ओझल हो गई। मैं बहुत पछताया। मुस्कान मेरी आंखों से ओझल जरूर हुई थी। लेकिन मेरी वर्षों की सुषुप्त स्मृतियों को जागृत कर गई। या यूं कहिए कि मेरे अंतः पटल पर स्मृतियों का पूरा पहाड़ खड़ा करके गई। मैं स्मृतियों में डूबता चला गया।
आज से लगभग पच्चीस-छब्बीस वर्ष पहले की बात है।हमारे पिताजी गांव के स्थानीय बाजार में एक स्टेशनरी के दुकान की निव डाले। उस समय मैं इंटर का छात्र था। पढ़ाई के साथ साथ, कभी कभार दुकान पर भी रहने का मौका मिल जाया करता था। जब कभी पिताजी को दुकान का सामान लाने शहर जाना पड़ता था तब मुझे ही पूरा दिन दुकान संभालना पड़ता था। दुकान को लेकर पिताजी बड़े सचेत रहा करते थे। वे अच्छे व्यवसायी थे। स्टेशनरी का पूरा रेंज लगाकर चलते थे। प्राइमरी से लेकर बी.ए., बी.एस.सी. तक की पुस्तकें दुकान पर उपलब्ध रहा करती थीं। पढ़ाई लिखाई से संबंधित कोई ऐसी सामान न थी जो हमारे दुकान पर ना मिले। यही कारण था कि स्कूली बच्चों का पूरा जमावड़ा लगता था। खासकर स्कूल जाते समय, लंच के समय, तथा शाम को स्कूल छूटते समय काफी भीड़ हुआ करती थी। उस समय घर के किसी सदस्य को सहयोग के लिए दुकान पर रहना अनिवार्य रहता था।
समय बीतता गया। मेरा बी.ए. भी कम्प्लीट हो गया। दुकान पर किताब कापी बेचना मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे दुकान पर देख पिताजी को यह आभास हो गया कि यह लड़का मेरी जमी जमाई दुकान को संभाल लेगा। जल्द ही पिताजी ने मुझे दुकान की पूरी जिम्मेदारी ही सौंप दी। यदा-कदा दुकान का हिसाब किताब देख लिया करते थे। उन्हें पूरा विश्वास हो गया था कि मैं पूरी जिम्मेदारी से यह दुकान संभाल लूंगा। पढ़ाई लिखाई से मेरा मन पूरी तरह विरक्त हो चला था। कभी किसी कंपटीशन में नहीं बैठा। कंपटीशन में बैठने की आवश्यकता ही नहीं थी। क्योंकि मुझे पिताजी की विरासत स्वरूप यह जो स्टेशनरी की दुकान संभालनी थी।
एक दिन सुबह का समय था। लगभग साढ़े दस बज रहे थे। दुकान पर ग्राहक नहीं थे। मुझे पुस्तकों से बड़ा प्रेम था। मैं काउंटर पर बैठे-बैठे जयशंकरप्रसाद जी की कामायनी पढ़ रहा था। तभी एक छोटी सी बच्ची मेरी दुकान पर आई। मेरा ध्यान ‘कामायनी’ से हटकर उस पर जा पहुंचा। मैला कुचैला वस्त्र पहने मेरी ओर एकटक देख रही थी। मेरी निगाह जैसे ही उसके माथे पर पड़ी। मैं सन्न हो गया। लगभग पांच वर्षीय बच्ची के माथे पर लगा सिंदूर देख मेरा माथा ठनका। मैंने उससे पूछा क्या चाहिए। वह कुछ नहीं बोली बस काउंटर से चिपकी,जड़वत खड़ी रही। मैंने उसका नाम पूछा। फिर भी कुछ नहीं बोली। बस मुझे देख मुस्कुरा रही थी। मुझे उसके मां-बाप पर बहुत गुस्सा आया। कितने अशिक्षित इसके मां-बाप हैं। जो इस छोटी बच्ची का विवाह कर दिए। मन में अनेक प्रश्न उठे। क्या गांव गिराव अभी इतना पिछड़ा है?जो सरकार के नियम कानून को नहीं मानता। बाल विवाह एक कानूनी जुर्म है। क्या अब भी इसकी जड़े जीवित हैं।” मैं बुद्बुदाते हुए पुनः उसका नाम पूछा। अबकी बार मैं गुस्से में था। मेरी आवाज तेज थी। जोकि मेरा ऐसा स्वभाव न था। बच्चों से डांट डपट कर बात करने की मेरी आदत नहीं थी। मेरे गुस्से से पूछने के बाद भी वह नहीं बोली। चुपचाप चली गई। मेरी तेज आवाज को सुन, मेरे बगल के एक दुकानदार आ गए। उन्होंने ही मुझे बताया “भाई अभी जो छोटी बच्ची आई थी वह दिमाग से कुछ अपसेट है।” मुझे पूरी बात समझने में देर न लगी। यह जानकर मुझे बहुत अफसोस हुआ कि मैंने उस बच्ची को डांटा जिसका दिमागी संतुलन ठीक नहीं था। उस बच्ची के घर का पता लगाया। बाजार के अंतिम छोर से जाने वाली गली में ही उसका घर था। मैं उसके घर पहुंचा। धीरे-धीरे सारी बातें खुलकर सामने आने लगी। उसके पिताजी ने मुझे पूरी बात बताई कि “बाबू वह दिमाग से थोड़ा हल्की है। वह रोज कोई न कोई उल्टा सीधा काम कर ही दिया करती है। कभी चेहरे पर लगाने वाली क्रीम की पूरी फाइल ही लगा लेती है। कभी नेल पॉलिश की पूरी शीशी हाथों पैरों पर लगाकर खाली कर देती है। कभी सिंदूर की पूरी पोटली ही अपने मांग में उड़ेल लेती है। कभी काजल की डिब्बी से पूरे चेहरे पर कालिख पोत लिया करती है।” यह जानकर मेरा मन और भर्रा गया कि कूड़ेदान में फेंकी गई इस्पायरी डेट की दवाइयां भी खा जाया करती है। किंतु इसे कुछ नहीं होता। उसके बारे में ऐसी अनेकों बातें जानकर,सुनकर मेरा हृदय मर्म आहत हो गया। ईश्वर की यह कैसी बिडम्बना है। उसके प्रति मन ही मन में मेरी आत्मीय संवेदना हुई। मैं अपने स्टेशनरी के काउंटर पर आ गया।
अगले ही दिन वह फिर मेरे दुकान पर आई। आज वह सुंदर दिख रही थी। पूरी साफ-सुथरी। चोटिया भी सलीके से गूंथी गई थी। शायद उसकी मां ने आज बढ़िया से उसे नहलाया धुलाया था। मुझे देख मुस्कुराई। उसकी मुस्कुराहट का मैंने अभिनंदन किया। पूछा क्या नाम है। मुस्कुराकर अस्पष्ट शब्दों में बोल उठी “तुल्ली। यह सुन मैं भी मुस्कुरा उठा और पूछा “क्या चाहिए?
वह बोली -“गुब्बारा दे।”
मैं झट से गुब्बारे के डिब्बे से दो तीन पीस गुब्बारे निकाला और उसे दे दिया। गुब्बारा लेकर बिना पैसा दिए ही मुस्कुराते हुए चली गई। मैं भी उसे जाने दिया। पैसा नहीं मांगा। अब दिन में एक या दो बार जरूर आती। मुझसे बतियाती। जैसे ही गुब्बारा पाती चली जाती। बाजार के किनारे ही उसका घर होने के कारण उसका आना-जाना मेरी दुकान पर लगा रहता था। कभी पैसा देकर,कभी बिना पैसा दिए ही गुब्बारे मांगने लगती। मैं इंकार नहीं करता था। उसे दे दिया करता था। हां एक बात थी कि वह किसी के दुकान पर नहीं जाती थी। सिर्फ मेरी ही दुकान पर देर तक खड़ी रहती थी। कभी कभार पैसा भी मांगती थी। मैं उसे दे दिया करता था लेकिन बिना दो सिक्का लिए नहीं जाती थी। चाहे एक का सिक्का हो या दो का सिक्का। उसे दो सिक्के जरूर चाहिए था। जब उसके पैसा मांगने पर मैं नहीं देता तो मुझे भी परेशान किया करती थी। मैं डांटता तो मुस्कुराती थी। एक दिन मैं उससे पूछा “टुल्ली मैं कौन हूं?
तो वह कुछ सोच कर बोली “चाची।
मैं हंसने लगा और बोला “चाची नहीं चाचा बोलो।”
फिर मैंने पूछा कि टुल्ली मैं कौन हूं ?
लेकिन अबकी बार वह मुझे ‘पापा’ बोली। उसका मुझे ‘पापा’ कहना, अंदर तक झंकृत कर गया। मैं उसे देखता रहा। मेरे मन में उसके प्रति अपार स्नेह था। इसका मूल कारण यह था कि वह दिमाग से असंतुलित थी। अब वह प्रतिदिन मुझसे दो सिक्का लेकर जाती रही। सुबह जैसे ही दुकान खुलती, वह आ जाया करती थी। दस पंद्रह मिनट काउंटर से चिपक कर उटांग पटांग बातें करती। मैं उसका विरोध नहीं करता था ना ही उसकी बातों का बुरा मानता था। कभी कभार दुकान पर स्कूली बच्चों की भीड़ के समय ही सारे बच्चों को धकियाते हुए वह मेरे निकट तक आ जाती थी। काउंटर तक आते ही मुस्कुरा कर कहती “देखो मैं आ गई।” किसी बच्चे की मजाल क्या की काउंटर से खींच कर उसे दूर कर दे। बहुतेरे बच्चे जान गये थे कि वह दिमाग से थोड़ा हल्की है। इसलिए उसे कोई डांटता नहीं था। कभी-कभी कोई पूछ लेता था ‘यह आपके घर की है।’ तो मैं किसी को ‘हां’ किसी को ‘ना’ में उत्तर दे देता था। ज्यादा देर होने पर उसके पिता मेरी दुकान पर आ जाते थे और उसे अपने साथ अपने घर लिवा जाते थे।
एक बार चार-पांच दिन तक टुलिया मेरे काउंटर पर नहीं आई। मुझे उसकी चिंता होने लगी। आखिर टुलिया को क्या हो गया। दोपहर के समय मैं उसके घर ही पहुंच गया। पता चला कि उसे बुखार है। मैंने उसके पिताजी से टुलिया से मिलने की इच्छा जाहिर की। उसके पिताजी मुझे उसके कमरे में ले गए। जहां वह अपने बिस्तर पर सोई थी। उसके समीप पहुंचकर उसके माथे पर हाथ रखा। उसका सर बुखार से तप रहा था। वह आंखें नहीं खोली। जैसे ही मैं उसे बुलाया “टुल्ली टुल्ली।” मेरी आवाज उसके कानों में पड़ते ही वह उठकर बैठ गयी। मुझे देख मुस्कुराते हुए मुझे ‘चाची चाची कहने लगी।’ मैंने कहा “चाची नहीं चाचा बोलो टुल्ली।” किन्तु वह मेरी बातों को अनसुना करती बिस्तर पर लेट गई। मैं समझ गया कि उसे बुखार तेज है। उसके पिता ने बताया “दवा चल रही है।जल्दी ही ठीक हो जाएगी।” मैं अपनी दुकान पर आ गया। मैं प्रतिदिन उसका हाल-चाल लेता रहा। एक सप्ताह के बाद वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और मेरी दुकान पर आने लगी।
उसी समय लगभग तीन महीने बाद मुझे मुंबई जाना पड़ा। हमारे पिताजी दो भाई थे। पिताजी के बड़े भाई अर्थात मेरे बड़े पिताजी का मुंबई में अच्छा कारोबार था। बड़े पिताजी मुझे वहीं बुला लिए। मैं मुंम्बई के लिए निकल गया। बड़े पिताजी के कारोबार में हाथ बटाने लगा। बड़े पिताजी के छोटे बेटे भी हमारे साथ कारोबार की देखभाल किया करते थे। मैं मुम्बई रहने लगा। मुंबई रहते हुए मुझे टुलिया की बहुत याद आई। उसका मुस्कुराना, मेरे ऊपर गुस्सा करना, उसकी उल्टी सीधी बातें याद आती रही। मुम्बई रहते काफी दिन हो गए। धीरे-धीरे टुलिया की यादें मन से निकलने लगी। कभी कभार गांव आ ही जाया करता था। लेकिन समय के साथ-साथ टुलिया से जुड़ी हुई सारी बातें लगभग विस्मित हो चली थी। हम सभी मुम्बई में अपने कामकाज में व्यस्त हो चुके थे। अब गांव आने पर भी टुलिया की याद नहीं आया करती थी। समय अपनी गति से चलता रहा। मुम्बई रहते मुझे पूरे बाइस वर्ष बीत गए। अनेकों उतार-चढ़ाव, सुख-दुख से आमना-सामना हुआ। पिताजी और बड़े पिताजी के बीच जमीन जायदाद को लेकर कुछ विवाद हो गया। जिसके परिणाम स्वरूप पिताजी ने हमें गांव बुला लिया। मैं गांव आ गया।
पिताजी कुछ अस्वस्थ भी हो चले थे। मैं वही पुरानी स्टेशनरी की दुकान संभालने लगा। जिस दुकान के काउंटर को छोड़े मुझे बाइस वर्ष बीत गए थे। उसी दुकान पर बैठे आज मेरा दूसरा ही दिन था। जब एक छोटी बच्ची मुस्कान आकर उस बाइस वर्ष पुरानी ‘टुलिया’ की यादें ताजा कर गई। मैं अपने बेटे को दुकान पर बुला कर टुलिया के घर की तरफ निकल गया। मैं जैसे ही टुलिया के घर पहुंचा। टुलिया की मां मुझे पहचान गई। हालांकि मैं उसे देख थोड़ा असमंजस में जरूर पड़ गया। क्योंकि जिस महिला को मैने आज से बाइस वर्ष पहले देखा,वह आज वैसी नहीं रही।सूख कर कांटा हो गई थी। उसे नमस्ते करने के बाद जैसे ही मैंने पूछा “टुलिया कैसी है, कहां है? तो वह मुझे पकड़ कर रोने लगी। तब तक टुलिया के पिता जी भी आ गए। मुझे देखते ही भावुक हो गए। मुझे कुछ आभास होने लगा कि कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य है। मैंने उनसे भी पूछा “भइया टुलिया कहां है। मैं उससे मिलने आया हूं।” उनकी आंखें भर आई। रुधे हुए कंठ से बोल उठे “बाबू क्या बताऊं। तुम तो जानते ही थे । टुल्ली थोड़ा हल्के दिमाग की थी। हमने यहां से लेकर शहर तक इलाज कराया। कुछ लाभ जरूर हुआ। जब वह सयानी हो गई तो हमने उसका विवाह भी धूमधाम से कर दिया। वह अपने ससुराल तीन-चार माह तक रही। किंतु एक दिन उसके ससुर उसे यहां पहुंचा गए और बोले “तुम्हारी बेटी पूरी की पूरी पागल है। हमारे बेटे का इसके साथ गुजारा नहीं हो सकता।” हमलोग क्या करते। अब टुल्ली हमारे यहां ही रहने लगी। उसने एक बेटी को जन्म दिया। ससुराल वालो ने कुछ खोज खबर नहीं ली। टुल्ली अपनी बेटी से बहुत प्यार करती थी। किंतु आज से दो साल पहले टुल्ली का सड़क पार करते समय एक ट्रक से एक्सीडेंट हो गया। एक्सीडेंट बहुत ही भयानक था। हम लोग उसे लेकर इधर-उधर दौड़े लेकिन उसे बचा नहीं पाए।”
इतना कहते ही टुलिया के पिताजी फफक फफक कर रोने लगे। टुलिया की ऐसी खबर सुन मैं विचलित हो उठा। तभी एक बच्ची बाहर से दौड़ती आई और टुलिया के मां से लिपट गई। टुलिया की मां ने बच्ची की ओर इशारा करते हुए बोली “बाबू यही है ‘टुल्ली’ की बिटिया ‘मुस्कान’।” मैं मुस्कान को देखते ही पहचान गया। और बोला “यही तो बच्ची मेरी दुकान पर आकर मुझे टुल्ली की याद दिला गई। हूबहू टुलिया की टू कापी। मैं उस छोटी सी बच्ची मुस्कान को खींच कर अपने सीने से लगा लिया। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे वर्षों बाद आज टुलिया मिल गई। ‘टुलिया’ को याद करके तथा उसकी पावन स्मृतियों में भ्रमण करते करते मेरी आंखें नम हो गई।
लेखक- लालबहादुर चौरसिया ‘लाल’
गोपालगंज,आजमगढ़
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