टिक -टिक चली घड़ी की सुई
टिक- टिक उलटी घड़ी की सुई चली,
हो जा मेरी बचपन का समय शुरू।
नया गुल्ली और नया डंडा ,
नदी में उमड़ा जोश का सैलाब।
नहीं चलेगी मेरी और तेरी,
बचपन की सरकार जो शुरू।
नहीं किसी से अब गिला और शिकवा,
चंदामामा दूर के पुए पकाएं गुड़ के ।
गर्मी की मस्ती भरी छुट्टी हो चुकी,
पाठशाला का पथ खुल चुका।
नई पुस्तकें ने भर लिया सांस बस्ते की,
स्कूल ड्रेस तैयार राह देख रही मेरी।
थोडा से रोना और थोड़ा हंसना,
पूरा हो जाता मेरा दिनचर्या का जिद।
दादी मां के स्नेह वाले अंदाज,
कहानी देती मुखो को आनंद।
मिलता मुझे अखंड आंनद
जब होता मेरी ख्वाहिश की जीत।
मैं अबोध बालक हूं, नटखट
खेल- खिलौना मेरी पहचान।
अब तो मैं बड़ा हुआ, समझ
नहीं आता संसार का मायाजाल।
मैं गलत या संसार सही
समझ- समझ का फेर सही
प्रतिदिन का नया नियम
शतरंज का नया खिलाड़ी
लेकर आए क्या हो, जो लेकर जाओगे
मेरा पुराना बचपन ही लौटा दो
टिक -टिक चली घड़ी की सुई
लौटा दो मेरी बचपन की घड़ी ।
गौतम साव