टिकट
रमा के मोबाइल पर दो-तीन बार रिंग आ चुका था। पर वो सुन नहीं पायी । रात के खाने से निवृत्त होकर जब आराम से बैठी तो मोबाइल में कई मिस काॅल । खोलकर देखा तो अनिल का था ।
तुरंत रमा ने अनिल को फोन लगाया–“हेलो बेटा ! तुमने फोन किया था ?”
अनिल–“हाँ माँ पूछ रहा था कि दीपावली पर आपलोग मुम्बई आ रहे हैं या नहीं ?”
“तुम लोग ही यहाँ आ जाते तो अच्छा रहता ।”
“माँ! हम क्या कर सकते हैं । बताया तो था कहीं भी रिजर्वेशन नहीं मिल पाया । फ्लाईट की वहां सुविधा है नहीं । मैं भी क्या करूँ ?”
रमा सोचने लगी हाँ बेटा याद है कहा था कि ‘स्लीपर क्लास में केवल सीट खाली है बहू और बच्चों को परेशानी होगी ।’
फिर मैंने कहा था कि ‘यहाँ से भी तो यही हाल होगा बेटा तो हमलोग भी कैसे आ पाएंगे बोल ?’ तो तुमने कहा कि ‘क्या माँ आप भी ? आप और बाबूजी तो पहले स्लीपर क्लास से ही सफर किया करते थे ?’ मुझे याद है बेटा। सच में तुम्हें काबिल बनाने के लिए हमने तो इधर ध्यान ही नहीं दिया ।
तभी राजेंद्र जी जो टिकट बुक कर करा रहे थे उन्होंने कहा–“रमा ! टिकट बुक हो गया ।”
अनिल–“हेलो माँ क्या हुआ ? आप कुछ बोल नहीं रही हैं ?”
रमा–“अरे नहीं, वो तेरे बाबूजी कुछ कह रहे थे , वही सुनने लगी ।”
“अच्छा ।”
“खैर कोई बात नहीं बेटा । तेरे बाबूजी ने दीपावली के दो दिन के बाद सिंगापुर का टिकट बुक कराया है । वहां से वापसी में मुम्बई होते हुए आऊंगी ।”
–पूनम झा
कोटा राजस्थान
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