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19 Jan 2022 · 3 min read

टिकट की विकट समस्या (हास्य व्यंग्य)

टिकट की विकट समस्या (हास्य व्यंग्य)
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आदमी की इस समय स्थिति यह है कि अगर शादी के मंडप पर बैठा हुआ है और कोई कान में कह दे कि टिकट मिल रहा है तुरंत चलो, तो वह चाहे दूल्हा हो या दुल्हन शादी छोड़कर टिकट लेने चले जाएंगे । टिकट के मामले में “एक अनार सौ बीमार” वाला परिदृश्य दिख रहा है । हालत इतनी बुरी है कि बहुत से भले आदमी तो टिकट मांगने की हिम्मत ही नहीं कर पाते । चालीस लाख का खर्चा चुनाव लड़ने का है । टिकट मांगने में जो पापड़ बेलने पड़ते हैं ,वह अलग हैं।
किसी भी पार्टी से मिल जाए लेकिन टिकट ले लो । टिकट का मामला यह है कि जो ज्यादा लालच में फंसा ,वह काम से गया। जो मिल रहा है ,ले लो । वरना यह भी चला जाएगा । ऐसे भी उदाहरण हैं कि लोगों को छोटी पार्टी से टिकट मिल रहा था, वह मध्यम पार्टी की ओर लपके और छोटी पार्टी छोड़ दी । जब तक मध्यम पार्टी के पास तक पहुंचते, वहां पता चला कि उनका टिकट कट गया है । लौटकर फिर छोटी पार्टी के पास आए । उन्होंने भी टिकट देने से अब मना कर दिया ।
इस समय किसी की चुनाव लड़ने की इच्छा है ,टिकट चाहता है ,मगर जेब में पैसे नहीं हैं। बाजार में ऐसे लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है । कुछ लोग पैसा खर्च करने के लिए तैयार हैं मगर टिकट नहीं मिल पा रहा । कुछ लोगों को टिकट मिलता है मगर जिस पार्टी से टिकट चाहते हैं उस पार्टी से टिकट नहीं मिल पाया । कुछ लोग जिस क्षेत्र से टिकट चाहते हैं ,वहां से टिकट नहीं मिला । कुछ लोग जितना समर्थन चाहते थे, उतना समर्थन लोग नहीं दे पा रहे । कुछ को दर्द यह है कि आचार संहिता लग जाती है और उनका खेल चुनाव आयोग बिगाड़ देता है । पैसा संदूकों में भरा पड़ा है ,मगर खर्च कैसे करें ?
आदमी की बुरी हालत है । चारों तरफ भागमभाग मची पड़ी है । कुछ लोग बस में सामान बेचने वालों की तरह “टिकट ले लो- टिकट ले लो” की आवाज राजनीतिक पटल पर लगा रहे हैं । उनका कहना है अगर टिकट न मिले तो पैसा वापस । कई लोगों ने उन पर भी दांव खेला है । यह धंधा भी बुरा नहीं है । जो टिकट की दलाली करते हैं उन्हें कुछ नहीं करना पड़ता । केवल अपना दबदबा दिखाना होता है । दस-बीस बड़े नेताओं के साथ उनके निकट के संपर्क हैं अगर यह बात फैला दी जाए तो टिकट की दलाली के काम में काफी गुंजाइश है । जहां तक पैसा वापस करने की बात होती है ,कौन करता है ? जो गया ,सो गया । ऐसे भी लोग हैं जिनका पैसा भी गया और टिकट भी गया। अब आंख से आंसू टप-टप गिर रहे हैं। फोटोग्राफर अखबार की सुर्खियां बना कर उन्हें प्रस्तुत कर देते हैं । तरह तरह के लोग हैं। जिन को टिकट मिला ,चुनाव का महापर्व उनके लिए है । जिन को टिकट नहीं मिला, वह कहते हैं कि काहे का चुनाव ? कैसा महापर्व ? उनके घरों में बत्तियां बुझी हुई हैं । टीवी पर दर्द भरे गाने चल रहे हैं । संसार से उनका मोहभंग हो चुका है ।
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लेखक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451

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