झूमकर जो कल उठी थी
झूमकर जो कल उठी थी
एक बदली मनचली थी
आँख बन बैठी समंदर
हर पलक भीगी हुई थी
होश में आये तो जाना
क्या गजब की बेख़ुदी थी
नूर था कलियों के रुख पर
गुल के तन पर ताजगी थी
जल रहे थे कल सितारे
चाँद के सँग चाँदनी थी
ख़्वाब तक आया न तेरा
रात आँखों में कटी थी
दर्द पर पहरे लगे थे
बंदिशों में आह भी थी
कुछ मुक़द्दर था हमारा
कुछ तुम्हारी बेबसी थी
तुम हमारे हो न पाये
इश्क़ में शायद कमी थी
क्या सजाते हम ये गुलशन
दो घड़ी की ज़िंदगी थी
राकेश दुबे “गुलशन”
14/06/2016
बरेली