झूठ
“सौरभ, आज ऑफिस से जल्दी आ जाना| याद है ना आज आस्था जी की पुस्तक के विमोचन के लिए जाना है और मैं उनसे मिलने का ये मौका गँवा नहीं सकती ।”
“हाँ हाँ मुझे याद है। मुझे क्या मरना है तुम्हें उनसे मिलवाने ना ले जा कर। मैं अच्छे से जानता हूँ कि तुम उनकी कितनी बड़ी फैन हो। सोते-जागते उनकी ही कहानियाँ, उपन्यास पढती रहती हो। जाने ऐसा क्या लिखती हैं वो!”
“अरे तभी तो कहती हूँ कि कभी उनको पढ़ के देखो। प्यार, ज़िन्दगी,रिश्तों की जो गहराई उनकी किताबों में मिलती है,वो और कहीं नहीं। ऐसा लगता है जैसे कि उन्होंने ज़िन्दगी में बहुत कुछ सहा है। तभी तो अपनी सारी कमाई वो जरूरतमंद लोगों पर खर्च कर देती हैं। उनके द्वारा चलाये गए “कैंसर इंस्टीट्यूट” से जाने कितने ही गरीब लोगों का मुफ्त इलाज़ होता है। जाने कैसे आज किस्मत से एक दोस्त के साथ उनकी पुस्तक विमोचन पर जाने का मौका मिल रहा है जो मैं बिल्कुल भी गँवाना नहीं चाहती”।
“मैं तुम्हें पहले भी कह चुका कि मुझे ये प्यार, विश्वास, भरोसे जैसे चासनी में लिपटे तीर अच्छे नहीं लगते। हाँ पर ठीक है मैं तुम्हारे लिए वक़्त पर आ जाऊँगा। अब जाऊँ?” और हाथ जोड़ते हुए सौरभ ऑफिस के लिए निकल गया।
सौरभ और सुमन की शादी को 15 साल हो चुके थे और बच्चे हॉस्टल में रहकर पढ़ रहे थे इसलिए किताबों की शौक़ीन सुमन दिन का वक़्त पढ़ने में ही बिताती थी और आस्था उनकी सबसे पसंदीदा लेखिका थी। शाम को सौरभ के आने से पहले ही वो तैयार थी, उसके आते ही वो दोनों निकल पड़े।
आस्था जी के कैंसर इंस्टीट्यूट में ही ये समारोह रखा गया था, जहाँ जाने कितने ही बुद्धिजीवी लोग दिखाई दे रहे थे। सब ही आस्था जी के लेखन और व्यक्तित्व की प्रशंसा कर रहे थे। थोड़ी देर बाद ही कार्यक्रम शुरू हुआ और कुछ गणमान्य व्यक्तियों के साथ एक अधेड़ उम्र की सौम्य सी महिला मंच पर पधारी। उसे देखते ही मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा। क्या मैं सच में निहारिका को देख रहा था कि मेरा भ्रम था ये? नहीं नहीं, मैं निहारिका को पहचानने में धोखा नहीं खा सकता। ये निहारिका ही है। पर ये ही आस्था!!!! मंच पर लोग कुछ बोल रहे थे पर मुझे जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
मेरा मन 17 साल पुराने उस दिन को देख रहा था जब कॉलेज के आखिरी दिन मैंने घुटने पे बैठके निहारिका को शादी के लिए प्रपोज़ किया था और उसने शर्माते हुए अपना हाथ मेरे हाथ में थमा दिया था। और फिर शादी के बाद हम दोनों ने अपना एक प्यारा सा आशियां बसा लिया था, जहां सिर्फ प्यार ही प्यार था।निहारिका अक्सर मुझसे पूछती कि क्या मैं हमेशा उसको इतना ही प्यार करूँगा? और मैं उसके चेहरे को अपने हाथों में लेकर जवाब देता कि हमेशा, आखिरी साँस तक।
और जब निहारिका कहती कि तुम झूठ तो नहीं बोल रहे ना? तो मैं हँस पड़ता और मजाक में कहता कि अरे पगली ऐसे झूठ बोलके ही तो तुमसे शादी की है, नहीं तो तुम जैसी हूर मुझे कहाँ मिलती भला। और निहारिका झल्ला कर वहाँ से चली जाती।
शादी के बाद एक साल जैसे पलक झपकते ही बीत गया।अब हम चाहते थे कि कोई नन्हा सा फ़रिश्ता हम दोनों की ज़िंदगी में आये। पर कुछ दिनों से निहारिका की तबियत ठीक नहीं रहती थी इसलिए बेबी प्लान करने से पहले उसने अपना चेकअप करवाना ठीक समझा ताकि कोई दिक्कत न हो।
उस दिन मैं ऑफिस जाते हुए उसको हॉस्पिटल छोड़ते हुए गया। शाम को निहारिका ने बताया कि एक दो दिन में रिपोर्ट आ जाएंगी, डॉक्टर ने कहा है कि सब ठीक ही लग रहा है।और हम दोनों अपने सुनहरे भविष्य के सपने संजोते हुए सो गए।
2-3 दिन बाद निहारिका ने बताया कि सब ठीक है, बस थोड़ी कमजोरी है जिसके कारण उसको चक्कर आ जाते हैं। उसके बाद मैं उसका,उसके खाने-पीने का पहले से ज्यादा ध्यान रखने लगा पर फिर भी वो अनमनी सी रहती। आजकल जब कभी ऑफिस से घर आता तो अक्सर वो घर पर नहीं मिलती। पूछता तो कहती कि किसी सहेली के घर गयी थी। मुझसे भी कटी कटी सी रहती। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसको हुआ क्या है। उसकी ये हरकतें मुझे भी चिड़चिड़ा बना रही थी और एक दिन जब मैं ऑफिस की किसी मीटिंग के लिए एक रेस्टोरेंट में गया तो देखा कि निहारिका वहाँ किसी के साथ बैठी कुछ बात कर रही है। वो रो रही थी और वो शख्स उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कुछ कह रहा था। मैंने ध्यान से देखा तो वो आदमी मिहिर था, हमारे साथ ही कभी स्कूल में पढ़ता था और निहारिका को बहुत पसंद भी करता था, इसीलिए मुझे वो फूटी आँख नहीं सुहाता था। पर ये निहारिका के साथ यहाँ क्या कर रहा है? कुछ पूछता इस से पहले ही वो दोनों वहाँ से उठकर चले गए और मैंने भी सोचा कि घर जाकर ही बात करूँगा।
“निहारिका आज तुम कहीं बाहर गयी थी क्या” घर जाकर मैंने पूछा।
“नहीं तो, मैं तो आज पूरा दिन घर पर ही थी”
मैं इस जवाब के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। निहारिका मुझसे झूठ क्यूँ बोल रही है। वो मिहिर से मिली थी, ये बात वो मुझसे क्यूँ छुपा रही है। सारी रात मुझे ये बात कचोटती रही। उस दिन के बाद भी मैंने निहारिका को कई बार मिहिर के हॉस्पिटल आते-जाते देखा। मैं गुस्से से पागल होता जा रहा था कि जो निहारिका मुझसे कुछ नहीं छुपाती थी, वो आज मुझसे इतना झूठ बोलती है और उस मिहिर से मिलती है जो कभी उस को पसंद भी करता था। क्या निहारिका भी अब उसे? नहीं, वो मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकती। आज मैं उस से पूछ कर ही रहूंगा।
“निहारिका तुम इस तरह मुझे बेवकूफ नहीं बना सकती।आज तुम्हें मुझे बताना ही पड़ेगा कि मिहिर के साथ तुम्हारा क्या चक्कर चल रहा है।”
“सौरभ, मिहिर मेरा अच्छा दोस्त है बस, इस से ज्यादा कुछ नहीं। कितनी बार तुम्हें समझा चुकी हूँ।”
“अच्छा तो दोस्त से यूँ छुप छुप के मिला जाता है। ऐसी क्या आफत आन पड़ी है जो तुम्हें मुझसे छुपके उस के पास जाना पड़ता है।”
“सौरभ वक़्त आने पर मैं तुम्हें सब बता दूँगी।मुझ पर विश्वास करो, मैं तुम्हें कोई धोखा नहीं दे रही। मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ।”
“अच्छा तो ठीक है, तुम आज के बाद उस से कभी नहीं मिलोगी”
“मैं उस से मिलना नहीं छोड़ सकती सौरभ पर इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करती”
“तुम झूठ बोल रही हो, सिर्फ झूठ”
“मैं झूठ नहीं बोल रही सौरभ, मेरा यकीन तो करो”
मैं गुस्से से उफ़न रहा था और निहारिका का शांत रहना और ऐसे जवाब मुझे और भी ज़्यादा गुस्सा दिला रहा थे।
आखिर झगड़ा इतना बढ़ गया कि मैंने निहारिका पर हाथ उठा दिया और रात को ही उसको अपने घर से निकल जाने को कह दिया। उसने कुछ नहीं कहा और रोते हुए वो थोड़ा सा सामान लेकर वहाँ से चली गयी।
मैंने भी उसको जाने दिया। इतनी बेवफाई और फिर भी इतनी बेहयाई!!! वाह रे तिरिया चरित्र!!!!
उस दिन के बाद ना मैंने निहारिका की कोई खोज खबर ली ना ही निहारिका ने मुझसे मिलने की कोई कोशिश की। हाँ उसके फ़ोन जरूर आते रहे और हर बार बस यही बात कि मुझे गलतफहमी हुई है, उसे थोड़ा वक्त दूँ। उस से पीछा छुड़ाने के लिए मैंने उसको कुछ वक्त देने की बात कह दी।
कुछ वक्त बाद मैंने अपना नम्बर ही बदल दिया ताकि निहारिका की आवाज़ भी ना सुननी पड़े। उसी दौरान मुझे ऑफिस टूर पर अपनी सेक्रेटरी के साथ 2-3 दिन के लिए बाहर जाना पड़ा और निहारिका की बेवफाई से परेशान मैं किसी कमजोर घड़ी में सुमन के नजदीक आ गया। वैसे भी मुझे निहारिका को भूलना था। मैंने वापिस आते ही निहारिका को तलाक़ का नोटिस भेज दिया। निहारिका तब भी मुझसे मिलने नहीं आई बस कुछ दिन बाद तलाक़ के पेपर दस्तख़त करके भेज दिए और मैंने सुमन से शादी कर ली। आज वही निहारिका आस्था बनकर मेरे सामने बैठी थी। जिसको खुद कभी प्यार निभाना नहीं आया, वो दुनिया को झूठे शब्दों के जाल में फंसा कर लुभा रही है। मुझे इतनी नफ़रत उमड़ी कि मुझे वहाँ बैठना भी भारी हो गया और मैं सुमन को “अभी आया” कहकर बाहर चला गया।
जल्दबाजी में बाहर निकलते हुए मैं एक शख़्स से टकरा गया और एक और झटका मुझे लगा। मिहिर.. हाँ मिहिर मेरे सामने था।
होना ही था, दोनों ने तभी शादी कर ली होगी।
मैं उस से बच के निकल लेना चाहता था पर उसने मुझे पहचान लिया।
“सौरभ, तुम ही हो ना…. इतने साल बाद???”
“मुझे नहीं पता था कि ये तुम्हारी पत्नी का कार्यक्रम है, नहीं तो नहीं आता”
“पर भला ये मेरी पत्नी का कार्यक्रम क्यूँ होने लगा!”
“बनो मत मिहिर। मैं तुम्हारे और निहारिका के रिश्ते को तभी जान और पहचान गया था।”
“तुम नहीं बदले सौरभ। बिना बात जाने अपने आकलन से ही नतीजे पर पहुँच जाते हो। बरसों पहले तुम्हारे इसी शक ने सब उजाड़ कर रख दिया था” मिहिर ने कहा।
“क्या मतलब है तुम्हारा”
“मतलब यही कि तुम्हारी इसी आदत और शक़ के कारण बेचारी निहारिका की सारी ज़िंदगी अकेलेपन के साये में कटी। तुमसे प्यार करने की अच्छी सज़ा दी तुमने उसे”
“बक़वास… निहारिका ने मुझसे प्यार नहीं, धोखा दिया था। और अकेलापन कहाँ, तुम हो ना हमेशा से उसके साथ”
“हाँ सौरभ मैं तो हमेशा उसके साथ रहा ही हूँ, पर सिर्फ एक दोस्त और उसके डॉक्टर की हैसियत से। तुमने हमेशा हमें ग़लत ही समझा”।
“उसके डॉक्टर की हैसियत से!!!”
“हाँ, क्यूँकि निहारिका को कैंसर था सौरभ”
“क्या!!!!” मैं जैसे धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ा।
“तुम्हें याद होगा कि निहारिका कुछ कमजोरी महसूस करती थी, इसलिए तुम उसे हमारे हॉस्पिटल कुछ टेस्ट कराने लाये थे”
” हाँ और निहारिका ने कहा था कि सब ठीक है”
“सब ठीक नहीं था सौरभ। निहारिका को कैंसर था, पर वो जानती थी कि तुम उसको इतना प्यार करते हो कि ये जानकर तुम टूट जाओगे इसलिए उसने तुम्हें नहीं बताया। फर्स्ट स्टेज थी, उसके ठीक होने के काफी चाँस थे इसलिए उसने अकेले ही इससे लड़ने का फ़ैसला किया ताकि तुम इसकी आँच से दूर ही रहो। हाँ वो मिलती थी मुझसे चोरी-छुपे, पर इसलिए नहीं}कि वो तुम्हें धोखा दे रही थी या झूठ बोल रही थी, बल्कि इसलिए कि वो अपना इलाज़ करवा रही थी। लड़ रही थी वो अकेले अपनी मौत से ताकि तुम्हारे साथ जी सके। मैंने कितनी बार उसको कहा कि तुम्हें सब बता दे पर उसने कहा कि बस कुछ वक्त की बात है। मेरा सौरभ मुझे बहुत प्यार करता है, मैं जानती हूँ कि वो मेरा इंतज़ार करेगा। पर तुमने कहाँ उसको समझा, कहाँ इन्तजार किया!! जिस दिन बेचारी को पता चला कि वो अब बिल्कुल ठीक हो गयी है, उस दिन वो कितनी खुश थी। बोल रही थी कि मन करता है उड़कर सौरभ के पास पहुँच जाऊँ। पर जैसे ही घर से निकली तुम्हारा तलाक़ का नोटिस दरवाज़े पर इन्तजार कर रहा था। बिखरी हुई निहारिका किसी तरह तुम्हें मनाने तुम्हारे घर पहुँची लेकिन दरवाजा किसी औरत ने खोला जिसने खुद को तुम्हारी होने वाली बीवी बताया। ये सुनकर वो फिर खुद को समेट नहीं पायी और बिना कुछ कहे वहाँ से वापिस आ गयी। मैंने उसको कहा भी कि एक बात तुमसे बात करे, अब भी इतनी देर नहीं हुई है पर उसने कहा कि अगर तुम अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ चुके हो तो उसको कोई हक नहीं कि तुमसे तुम्हारा सुकुन फिर से छीन ले।
तब से बस लिखना और इस कैंसर इंस्टीट्यूट के जरिये कैंसर के रोगियों का इलाज करवाना ही उसकी ज़िन्दगी में शामिल हैं, मैं न कभी था, न हूँ सौरभ। वो हमेशा सिर्फ तुमसे प्यार करती आयी है।”
मेरे शरीर में जैसे काटो तो खून नहीं। झूठ निहारिका ने नहीं बल्कि मैंने उसको कहा था कि मैं उसको इतना प्यार करता हूँ कि कभी उसका साथ नहीं छोडूंगा। मैंने अपना वादा कहाँ निभाया। क्यूँ नहीं देख पाया मैं तिल तिल मरती अपनी निहारिका को। शक़ में अंधा होकर मैं उसके प्यार को ही नहीं देख पाया। झूठी निहारिका नहीं बल्कि मैं था जो उसका साथ देने का वादा भी नहीं निभा पाया और इतनी बड़ी जंग वो अकेले लड़ती आई।
तभी सुमन मुझे ढूंढ़ते हुए आई और मुझे हाथ पकड़कर ले चली,” चलो चलो जल्दी तुम्हें आस्था जी से मिलवाती हूँ”
और मुझे निहारिका के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया।
“आस्था जी ये मेरे पति हैं , सौरभ। पर ये हैं कि प्यार जैसे प्यारे अहसास से जाने क्यूँ इतने चिड़े से रहते हैं। आप ही इनको कुछ समझा दीजिए ना” सुमन आस्था से मिलने की ख़ुशी में कुछ भी बोल रही थी।
निहारिका ने मुझे देखा और बरसों का दर्द जैसे उसकी आँखों में सिमट आया। मैं पल भर भी उस से नज़रें नहीं मिला पाया।
“इनकी भी कोई गलती नहीं है। ये प्यार, विश्वास जैसा अहसास सबकी किस्मत में नहीं होता।इनकी किस्मत भी इतनी अच्छी नहीं है शायद या फिर हो सकता है कि ये इतने अच्छे ना हों। इनको शायद वक़्त से कुछ कड़वी यादें मिली हों। ईश्वर इनकी यादों से वो कड़वापन मिटाये, यही दुआ करती हूँ।” इतना कहकर निहारिका, नहीं ‘आस्था’ वहाँ से चली गई।
सुरेखा कादियान ‘सृजना’