झूठ बोलता हु कबूल करता हु*
*झूठ बोलता हु
कबूल करता हु
जिम्मेदार हु या नहीं
उसे परखता हु
जन्म हुआ ममता स्नेह प्रेम-प्यार
रूप जननी मिली,
एक श्रेष्ठ घर-परिवार और पिता मिला
खुश थे सब घर-परिवार को एक प्राकृतिक उपहार मिला,
बदल गया सबकुछ
छोटे बढ़े सब झूठ-सच बिन समझ मुझ पर मँडराने लगे,
पहला झूठ जाति बनी,
जो कर्म पर आधारित थी,
पढ़ने गया
कुछ सिखने
कुछ बनने से
पहले ही नाम जाति निर्धारित हुई,
पैदा हुआ सरदार था,
मुंडन करा हिंदू बना,
खटना कर मुसलमान बना,
पहचान को तरस रहा हु
नास्तिक हु पता चला,
झूठ बोलता हु कबूल करता हु,
जिम्मेदार हु या नहीं परखता हु,
पग-पग पर संभाला गया,
जागने नहीं दिया विवेक,
मैंने पूछा? ये क्या है?
मंदिर है ये,मस्जिद है ये?
उत्सुक होकर पूछा ?
ये अलग-अलग क्यों है?
इनमें क्या होता है ?
कोई जवाब न मिला ?
उनके चेहरे की तरफ़ देखा तो,
शुकून मिला !
अकेला महेंद्र झूठा नहीं है,
तब पता लगा,
झूठ बोलता हु पर कबूल करता हु
आज पैर तो है,
पर अपाहिज़ हु
चल नहीं सकता,बिन सहारे के,
झूठ बोलता हु कबूल करता हु,
पर्व है उत्सव है तीज़-त्योहार है,
खुश बहुत रहता हु,
बलि चढ़ेगा कोई जीव
इसलिए रोता हु
चढ़ गई कोई कौम
बेचकर इमान
दबाकर इंसान,
हो गए पत्थर के इमान
इंसानियत को मार डाला,
विवेक जगे..पहचान मिले,
फिर कौन हिंदू-मुसलमान कहे,
जो लोग मुफ्त कौम के नाम का खाते है, बस उनकी पहचान करें,
गर दस्तकार हो
हूनर है तो दुनिया सलाम करें,
उपयोगिता खोजें और व्यक्तिगत व्यवहार करें, जीवंत है उसका प्रमाण बने,
जय भीम जय संविधान जय भारत
जीव मुक्त है,
जीवन एक लय का नाम जिसे धर्म कहते है,
बिन परख मत आप्त वचन पर विश्वास करें,
फिर जो है वो है,जो नहीं है वो नहीं है,
डॉ महेन्द्र सिंह खालेटिया,