झूठे परदे जो हम हटाने लगे,
झूठे परदे जो हम हटाने लगे,
लोग आँखें हमें दिखाने लगे।
जब हकीकत बयां गज़ल में की,
वो क़लम ही मेरा चुराने लगे।
पल दो पल की खुशी मिली थी हमें,
जाने क्यों लोग मुँह बनाने लगे।
ख़ुश्बुयें तेरे दर पे आती रहें,
बाग फूलों के यूँ सजाने लगे।
वक़्त करवट बदलने को जो मुड़ा,
आँख औरों से वो लड़ाने लगे।
ज़ख्म गहरे दिये जिन्होंने कभी,
आज वो ख़ाब में भी आने लगे।
थे जो अंजान इश्क़ से यारो,
क्यूं नज़ारे नये दिखाने लगे।
जिनके पहलू में नींद आती कभी,
पंख मेरे वही जलाने लगे।
जब “परिंदे” खफ़ा शज़र से हुए,
तो नज़र गमज़दा वो आने लगे।
पंकज शर्मा “परिंदा”